नई दिल्ली। गोदावरी बायोरिफाइनरीज लिमिटेड और केजे सोमैया कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग ने धान का भूसा जलाने के हानिकारक प्रभावों को कम करने में मदद के लिये एक समाधान निकाला है। इंस्टीट्यूट की मेकैनिकल डिपार्टमेन्ट फैकल्टी प्रोफेसर शिवांगी विराल ठक्कर ने धान के भूसे से पल्प और टेबलवेयर जैसे उपयोगी उत्पाद बनाने का प्रस्ताव दिया है।
देश में खासकर उत्तर भारत में पराली जलाने से वायु प्रदूषण होने के प्रमुख स्रोतों में से एक है। साल दर साल बढ़ता प्रदूषण मनुष्यों के साथ-साथ अन्य प्राणियों के स्वास्थ्य के लिये भी गंभीर खतरा बन चुका है। इसलिए सरकार पराली जलाने से हो रहे प्रदूषण की रोकथाम के लिए गंभीरता से समाधान ढूंढ रही है। इंस्टीट्यूट की मेकैनिकल डिपार्टमेन्ट फैकल्टी प्रो. ठक्कर ने धान के भूसे से पल्प और टेबलवेयर जैसे उपयोगी उत्पाद बनाने का प्रस्ताव दिया है। इस तीन वर्षीय परियोजना का अनुमोदन और फंडिंग डिपार्टमेन्ट ऑफ साइंस एंडटेक्नोलॉजी ने की है।
पराली अपशिष्ट के प्रबंधन के प्राथमिक उद्देश्य के साथ यह परियोजना प्लास्टिक के स्थान पर कृषि उत्पादों के उपयोग का लक्ष्य भी रखती है, ताकि प्लास्टिक बैन की एक अन्य राष्ट्रीय समस्या दूर हो सके। इस परियोजना में धान के भूसे का पल्प बनाने के लिये प्रोसेस ऑप्टिमाइजेशन किया जाएगा, ताकि पर्यावरण-हितैषी टेबलवेयर बनाया जा सके। इस प्रक्रिया में चावल के भूसे की पल्पिंग कर सिलिका और पल्प को अलग किया जाएगा। इसके बाद मिले पल्प से 100 प्रतिशत जैव-अपघटन-योग्य टेबलवेयर बनाया जाएगा।
इस परियोजना के बारे में प्रोफेसर शिवांगी विराल ठक्कर, मेकैनिकल डिपार्टमेन्ट फैकल्टी, केजे सोमैया कॉलेज ऑफ इंजिनियरिंग और इस परियोजना की प्रिंसिपल इनवेस्टिगेटर, ने कहा कि ‘पराली अपशिष्ट का प्रबंधन हमारे शोध का प्राथमिक लक्ष्य है, जबकि प्लास्टिक और पारंपरिक कागजों को कृषि उत्पादों से रिप्लेस करने से प्लास्टिक और थर्माकोल बैन की एक अन्य राष्ट्रीय समस्या दूर होगी। पारंपरिक टेबलवेयर और कागजों को रिप्लेस करने के लिये इन उत्पादों का परीक्षण किया जाएगा।
सोमैया विद्याविहार यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफेसर वीएन राजशेखरन पिल्लई के अनुसार वैश्विक मापदंड पर प्रत्येक राष्ट्र विकास के संदर्भ में स्थायी रुख अपनाने के लिये काम कर रहा है। व्यापक स्तर की यह परियोजना प्रदूषण की समस्या को ठीक से समाधान करेगी, जिससे जन-साधारण को लाभ होगा।
गोदावरी बायोरिफाइनरीज लिमिटेड के डॉ. रमेश शेट्टार ने कहा, ‘‘आज धान की पराली का प्रबंधन एक चुनौतीपूर्ण काम बन गया है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा बैन होने के बावजूद पराली जलाने का काम जारी है। धान के भूसे को बार-बार जलाने से मिट्टी का कटाव भी होता है, क्योंकि वह गर्म हो जाती है और उसकी नमी, उपयोगी माइक्रोब्स, तलछट और कण खो जाते हैं और मिट्टी के जैविक द्रव्य के खोने से उसकी संरचना बिगड़ जाती है।’’
उल्लेखनीय है कि भारत विश्व में चावल के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है और विश्व का 20 प्रतिशत चावल उत्पादन भारत में होता है। चावल (धान) का लगभग 150-225 एमएमटी भूसा प्रतिवर्ष अपशिष्ट के रूप में उत्पन्न होता है। चावल का लगभग 70-80 एमएमटी भूसा किसान जला देते हैं। अकेले पंजाब में प्रतिवर्ष चावल का 20 एमएमटी भूसा होता है। एक टन भूसा जलाने से तीन किलो पार्टिक्युलेट मैटर, 60 किलो CO, 1460 किलो CO2, 199 किलो राख और 2 किलो SO2 निकलती है, जिससे फेफड़ों के और श्वसन रोग होते हैं और लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। धान के भूसे को बार-बार जलाने से मिट्टी का कटाव भी होता है। (एजेंसी, हि.स.)
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