वो उम्मीदों का आक्रोश था… चाहत थी.. मोदीजी को देखने… सुनने… झलक पाने और वक्त साझा करने की… इसलिए वे हजारों किलोमीटर लांघकर देश की हृदय स्थली मध्यप्रदेश के इंदौर शहर तक आए… सरकार का रजिस्ट्रेशन शुल्क चुकाया… यहां तक कि ठहरने… रुकने… खाने और आने-जाने का खर्च खुद ने उठाया… सरकार ने प्रवासियों के आतिथ्य का राग गाया.. अतिथियों को देवो भव: बताया… लेकिन हकीकत यह थी कि वे मेहमान तो थे, लेकिन उनके लिए आतिथ्य का भाव नहीं था… उनकी भावनाओं को समझे बिना प्रशासन पूरा शहर सजाने और उन्हें रिझाने में जुट गया… लेकिन हकीकत की जो व्यवस्थाएं होना चाहिए थीं, उन्हें नजरअंदाज कर डाला… वे प्रधानमंत्री के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे… उन्हें सुनना चाहते थे… देश के भविष्य को समझना चाहते थे… अपेक्षाओं और आकांक्षाओं की थाह पाना चाहते थे… भारत से निकलकर कहीं और बसने का मलाल जेहन में पाले वे अपने भविष्य की थाह पाकर लौटना चाहते थे … लेकिन दो घंटे पहले बुलाकर भी उन्हें बाहर धकिया दिया गया… आयोजन हाल में शहरी कब्जा किए बैठे थे… अलते-भलते रास्ते चलते लोग भी सिनेमा की टिकट की तरह पैसे चुकाकर रजिस्ट्रेशन कराकर सुबह के अंधेरे में ही कतार में लगकर हाल में ठस चुके थे… और जिन अतिथियों को देव बताया जा रहा था… वे बाहर अपना दिल जला रहे थे… हाल में जितने लोग बैठे थे, उससे ज्यादा लोग व्यवस्थाओं के नाम पर हाल को घेरे खड़े थे… कुछ अधिकारियों का रौब कुर्सियों पर पसरा नजर आ रहा था… और सात समंदर पार से आया विदेशी स्क्रीन के सामने भाषण की झलक पा रहा था… यह अव्यवस्थाएं थीं, एक सुंदर शहर की मानसिक गंदगी की… जहां सरकार अतिथि देवो भवो का राग अलाप रही थी, लेकिन शहर के लोग अतिथियों को सम्मान देने के बजाय कब्जे की परंपरा निभा रहे थे… मुख्यमंत्री भी उदास नजर आ रहे थे… प्रवासियों के जख्मों पर मरहम लगा रहे थे… हाल छोटा पड़ गया… दिल बहुत बड़ा है, लेकिन यदि व्यवस्थाएं बड़ी होतीं तो मुख्यमंत्री का दिल और जगह दोनों की कमी नहीं खलती… उन्हें आतिथ्य का दर्जा दिल से दिया जाता… बिना पैसे लिए ठहरने… रुकने और भोजन की व्यवस्था का खर्च उठाया जाता… शहर की संस्कृति से परिचय कराया जाता… भौतिक सुंदरता के बजाय आत्मिक सौंदर्य दिखाया जाता… तो प्रवासी सम्मेलन का असली स्वरूप नजर आता… मौका केवल दस्तूर बनकर रह गया… और शहर कसूरवार बन गया… मलाल इस बात का रह गया कि घर आया परदेशी रूठकर चला गया…
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