– आशीष वशिष्ठ
एक पुरानी राजनीतिक कहावत है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है। कहते हैं यहां पर जिसने जितनी सीटें जीतीं, उसके लिए नई दिल्ली तक पहुंचने का रास्ता उतना ही आसान हुआ। उत्तर प्रदेश में विजय का परचम लहराने के लिए जातियों की समझ ही सब कुछ है। यहां विकास के नाम पर वोट भी तभी मिलता है, जब जातियों को सही तरह से साधा जाए। बात चाहे ओबीसी की हो, मुस्लिम की हो या सवर्ण समाज को साधने की, सभी का उत्तर प्रदेश की सियासत में अहम योगदान रहता है। यहां के बारे में एक कहावत चर्चित है कि यहां वोटर नेता को वोट नहीं देते बल्कि जाति को देते हैं।
जाहिर है कि सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीट वाले उत्तर प्रदेश पर हर पार्टी की नजर है। यहां भारतीय जनता पार्टी से लेकर सपा, कांग्रेस और बसपा भी अपना जनाधार मजबूत करने में पूरी ताकत के साथ जुट गई है। जाति, धर्म और वर्ग के आधार पर अपने-अपने वोट बैंक को दुरुस्त करने के लिए खास रणनीति बनाई जा रही है। इस मद्देनजर जो एक कम्युनिटी प्रदेश की हर राजनीतिक पार्टी की नजर में है, वो ओबीसी समुदाय है। प्रदेश में मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा ओबीसी से आता है और जिसकी ओर उनका झुकाव होता है, वही पार्टी यहां सबसे मजबूत स्थिति में मानी जाती है। ऐसे में इन्हें लुभाने के लिए हर पार्टी अपने-अपने स्तर पर अपनी-अपनी रणनीति के अनुसार कोशिश कर रही है।
उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोट का प्रतिशत 52 फीसदी है। ये ओबीसी वोट, यादव और गैर यादव में बंटा हुआ है। यादव वोट 11 फीसदी है तो गैर यादव 43 फीसदी है। ओबीसी वोट में यादव जाति के बाद सबसे ज्यादा संख्या कुर्मी मतदाताओं की है। इसके बाद मौर्य और कुशवाहा और चौथे नंबर पर लोध जाति है। पिछड़ा वर्ग में पांचवीं सबसे बड़ी जाति के रूप में मल्लाह (निषाद) हैं। ओबीसी वोट बैंक में राजभर बिरादरी की आबादी दो फीसदी से कम है। राज्य में दलित वोट बैंक, जाटव और गैर जाटव में बंटा हुआ है। दलितों में जाटव जाति की संख्या कुल वोट का 54 फीसदी है। दलितों में 16 फीसदी पासी और 15 फीसदी वाल्मीकि जाति है। राज्य में सवर्ण मतदाता की आबादी 23 फीसदी है। इसमें सबसे ज्यादा 11 फीसदी ब्राह्मण, आठ फीसदी राजपूत और दो फीसदी कायस्थ है। देश में उत्तर प्रदेश मुस्लिम जनसंख्या के हिसाब लिहाज से चौथा सबसे बड़ा राज्य है। यहां पर लगभग 20 प्रतिशत मुस्लिम रहते हैं।
2019 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)-अपना दल गठबंधन को 50.76 फीसदी वोट मिले थे। भाजपा ने 62 और अपना दल ने दो सीट जीती थीं। सपा-बसपा और आरएलडी गठबंधन को 38.89 फीसदी वोट मिले थे। सपा ने पांच और बसपा ने 10 सीटें जीती थीं। 2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए सबसे शर्मनाक रहा। उसे 6.31 प्रतिशत वोट शेयर के साथ सिर्फ एक सीट पर जीत मिली। अगर साल 2014 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत के साथ 71 सीट मिलीं और पार्टी के खाते में 42.3 फीसदी वोट गए। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी और आरएलडी का खाता भी नहीं खुला। बसपा को 19.6 फीसदी वोट मिले। सपा ने पांच ही लोकसभा सीट जीती। उसे कुल 22.2 फीसदी वोट मिले। कांग्रेस ने दो सीटें जीती और उसका वोट फीसदी 7.5 रहा।
थिंक टैंक सीएसडीएस और लोकनीति के एक सर्वे के मुताबिक 2019 के चुनाव में 82 फीसदी ब्राह्मणों ने भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए वोट किया। 89 फीसदी राजपूतों ने भाजपा को वोट दिया। वैश्यों का 70 फीसदी वोट भाजपा के खाते में गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में निर्णायक माने जाने वाले जाटों का 91 फीसदी वोट भाजपा को मिला। वर्ण व्यवस्था की अन्य जातियों में से 5 फीसदी ने कांग्रेस, 84 फीसदी ने भाजपा गठबंधन और 10 फीसदी ने सपा-बसपा गठबंधन को वोट किया। ओबीसी की दूसरी बड़ी जाति कोइरी-कुर्मी का 80 फीसदी वोट भाजपा, 14 फीसदी वोट सपा-बसपा, कांग्रेस को 5 फीसद और अन्य दलों को 1 फीसदी वोट मिला। यादव-कोइरी-कुर्मी के अलावा ओबीसी की अन्य जातियों में से 72 फीसदी ने भाजपा, 18 फीसदी ने सपा-बसपा, 5 फीसदी ने कांग्रेस और 5 फीसदी ने अन्य दलों को वोट किया।
अनुसूचित जाति की बड़ी जातियों में से एक जाटव है। इस जाति का 75 फीसद वोट सपा-बसपा, 17 फीसद भाजपा, 1 फीसद कांग्रेस और अन्य दलों को 7 फीसद वोट मिल। एससी की अन्य जातियों के वोटों में से भाजपा गठबंधन को 48 फीसद, सपा-बसपा गठबंधन को 42 फीसद, कांग्रेस को 7 फीसद और 3 फीसद ने अन्य दलों को वोट किया। उत्तर प्रदेश के 73 फीसद मुसलमानों ने सपा-बसपा गठबंधन, 14 फीसद ने कांग्रेस, 8 फीसद ने भाजपा गठबंधन और पांच फीसद ने अन्य दलों को वोट किया। अन्य जातियों में से 50 फीसद ने भाजपा गठबंधन, 35 फीसद ने सपा-बसपा, 1 फीसद ने कांग्रेस और 14 फीसद ने अन्य दलों को वोट किया। वास्तव में, सामान्य, गैर यादव ओबीसी, अन्य अति पिछड़े, और गैर जाटव दलित पर भारतीय जनता पार्टी की अच्छी पकड़ है।
भारतीय जनता पार्टी को साल 2014, 2019 के लोकसभा चुनाव में और साल 2017 तथा 2022 के विधानसभा में अच्छी-खासी संख्या में ओबीसी वोटर्स का साथ मिला। सपा की नीतियों से असंतुष्ट ओबीसी समुदाय ने भाजपा का दामन थामा। भाजपा अपने इस समर्थन को आने वाली लोकसभा चुनाव में बरकरार रखना चाहती है। भारतीय जनता पार्टी ओबीसी वोटर्स में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए तमाम तरह के जतन कर रही है। इसका मकसद गैर-यादव पिछड़ी जाति के लोगों को लामबंद करना है। इसके अलावा ओम प्रकाश राजभर को एनडीए में लाना भाजपा की ओबीसी नीति का ही नतीजा है। संजय निषाद और अनुप्रिया पटेल पहले से ही भाजपा के साथ हैं। आरएलडी के एनडीए का हिस्सा बनने से यह वोट बैंक और मजबूत होगा।
ओबीसी को समाजवादी पार्टी का कोर वोटर माना जाता है। इनमें भी यादव वोटर्स सपा के समर्पित समर्थक हैं। सत्ता पर काबिज भाजपा ने अपनी योजनाओं और राजनीतिक रणनीति की मदद से सपा के इस वोट बैंक में सेंधमारी की है। भाजपा की वजह से ही तमाम गैर-यादव ओबीसी कम्युनिटी सपा से दूर हो गए। ऐसे में सपा के सामने लोकसभा चुनाव में इन वोटर्स को वापस पाने की चुनौती है। अखिलेश यादव ने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) का नारा भी दिया है। गौरतलब है कि बीते साल पांच राज्यों के चुनाव में पीडीए का फार्मूला विफल हो चुका है।
आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा हिंदुत्व-राष्ट्रवाद के साथ सामाजिक समीकरण साधने पर भी पूरा जोर दे रही। 2019 में भाजपा और अपना दल गठबंधन ने चुनाव लड़ा था। इस बार भाजपा के साथ अपना दल (एस), सुभासपा, निषाद पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल हैं। सामाजिक समीकरणों के लिहाज से एनडीए उत्तर प्रदेश में पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है। इंडी अलांयस में सपा और कांग्रेस का गठबंधन है। अभी तक बहुजन समाज पार्टी किसी गठबंधन में शामिल नहीं है।
उत्तर प्रदेश में इस बार आम चुनाव में लड़ाई त्रिकोणीय नजर आ रही है। ओबीसी, दलित, ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ और अन्य जातियों का झुकाव साफ तौर पर भाजपा की ओर दिखाई दे रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुस्लिम वोटर्स की संख्या भले ही कम हो, उसका झुकाव भाजपा की ओर बढ़ा है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, भाजपा ने उत्तर में जो जातीय समीकरण साधे हैं, उससे वो 2014 के अपने 71 सीट के रिकार्ड तोड़ती दिखाई दे रही है।
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