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AMU मामले में 3 जजों की राय बहुमत से उलट, अल्पसंख्यक दर्जे के विरोध में लिखा फैसला

November 09, 2024

नई दिल्ली । अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (Aligarh Muslim University) के अल्पसंख्यक दर्जे (Minority status) को लेकर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की सात जजों की संविधान पीठ (Constitution bench of seven judges) के तीन जजों ने बहुमत की राय के उलट अपना फैसला लिखा…जस्टिस दीपांकर दत्ता (Justice Dipankar Dutta) ने संस्थान को अल्पसंख्यक होने के अयोग्य बताते हुए बहुमत की राय को खतरनाक (Majority opinion is dangerous) करार दिया। वहीं, जस्टिस सूर्यकांत (Justice Suryakant) ने कहा कि दो जजों की पीठ को बड़ी पीठ के फैसले पर संदेह करने या उससे असहमत होने का कोई अधिकार नहीं है। जस्टिस शर्मा ने कहा कि यह मान लेना कि देश के अल्पसंख्यकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए सुरक्षित आश्रय की आवश्यकता है, गलत है।


सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) का अल्पसंख्यक दर्जा खत्म करने का आधार बना 57 साल पुराना फैसला पलटते हुए बहुमत के निर्णय में कहा कि राष्ट्रीय महत्व का संस्थान भी अल्पसंख्यक चरित्र का हो सकता है। एएमयू को सांविधानिक रूप से राष्ट्रीय महत्व के संस्थान का दर्जा मिला हुआ है। संविधान की सूची 1 की इंट्री 63 में कहा गया है, इस संविधान की शुरुआत के समय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के रूप में जाने जाने वाले संस्थान, अनुच्छेद 371ई के तहत स्थापित विश्वविद्यालय, और कानून के जरिये संसद से घोषित अन्य कोई भी संस्थान, राष्ट्रीय महत्व के संस्थान माने जाएंगे।

मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने तर्क दिया था कि राष्ट्रीय महत्व का संस्थान होने के कारण एएमयू को खासकर सामाजिक न्याय की दृष्टि से राष्ट्रीय संरचना दिखानी चाहिए। इस पर बहुमत के फैसले में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने लिखा, किसी संस्थान को राष्ट्रीय महत्व का घोषित करना उसके अल्पसंख्यक चरित्र में बदलाव नहीं लाता।

चीफ जस्टिस के अनुसार, राज्य या केंद्र सरकारों को संविधान की विभिन्न सूचियों के तहत मिली शक्ति और अनुच्छेद 30 के तहत संस्थान का अल्पसंख्यक अधिकार एक दूसरे से टकरा सकते हैं, लेकिन राज्य या केंद्र सरकार की शक्ति अल्पसंख्यक दर्जे को खत्म नहीं कर सकती। सरकारें शैक्षणिक संस्थानों के अलग-अलग पहलुओं को नियंत्रित कर सकती हैं। विश्वविद्यालयों के ऊपर सरकार को मिली विधायी शक्ति उस संस्थान के अल्पसंख्यक दर्जे को प्रभावित नहीं करती।

चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने समग्र दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा, एक विश्वविद्यालय राष्ट्रीय और गैर राष्ट्रीय हो सकता है, राष्ट्रीय महत्व का हो सकता है और साथ ही अल्पसंख्यक चरित्र का हो सकता है। यह मानने का कोई कारण नहीं कि अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान राष्ट्रीय महत्व का संस्थान क्यों नहीं हो सकता। दूसरी बात, सैद्धांतिक रूप से कोई भी चीज अल्पसंख्यक संस्थान को राष्ट्रीय महत्व का होने से नहीं रोकती। राष्ट्रीय व अल्पसंख्यक शब्द एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं और ये सह अस्तित्व में रह सकते हैं। पहला शब्द किसी संस्थान के पूरे देश या राष्ट्रीय चरित्र को बताता है, जबकि दूसरा शब्द संस्थापकों की धार्मिक व भाषाई पृष्ठभूमि और उन्हें हासिल सांविधानिक अधिकार को। दोनों शब्द अलग-अलग खासियत बताते हैं, एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं।

 

अनुच्छेद 30(1) संविधान अंगीकृत होने से पहले के संस्थानों पर भी लागू
सुप्रीम फैसले में यह भी कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के जरिये दिए गए गारंटीकृत अधिकार संविधान लागू होने से पहले स्थापित विश्वविद्यालयों पर लागू होते हैं। अनुच्छेद 30(1) भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को उनकी पसंद के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इन्हें यह साबित करना होगा कि उन्होंने अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान होने के लिए संस्थान की स्थापना की है।

 

जस्टिस दत्ता : पक्ष में ऐतिहासिक कानूनी या तार्किक आधार नहीं
बहुमत के फैसले से असहमत जस्टिस दीपांकर दत्ता ने संस्थान को अल्पसंख्यक होने के अयोग्य बताया। यही नहीं, जस्टिस दत्ता ने बहुमत की राय को खतरनाक करार दिया। जस्टिस दत्ता ने कहा, संस्थान को संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत संरक्षण प्राप्त नहीं है और अपीलकर्ताओं के तर्क का कोई ऐतिहासिक, कानूनी, तथ्यात्मक या तार्किक आधार नहीं है। मेरा दृढ़ मत है कि न केवल संदर्भों के लिए उत्तर की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह भी घोषित किया जाता है कि एएमयू अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं है और इसके लिए अल्पसंख्यक का दर्जा मांगने वाली अपीलें विफल होनी चाहिए।

इस मामले में पांच जजों की पीठ के फैसले पर दो जजों की ओर से सवाल उठाने और मामले को सीधे सात जजों की पीठ को संदर्भित करने को उन्होंने गलत ठहराया और कहा, कल को क्या दो जजों की पीठ केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित ‘मूल संरचना सिद्धांत’ पर संदेह कर सकती है और इसे सीधे 15 जजों की पीठ को भेज सकती है। जस्टिस दत्ता ने कहा, इस मामले में बहुमत का फैसला बहुत खतरनाक राय तय करेगा।

अपने फैसले में जस्टिस दीपांकर दत्ता ने इस मामले में आम सहमति बनाने के लिए व्यावहारिक और रचनात्मक चर्चा के अभाव और सच्ची लोकतांत्रिक भावना से विचारों के आदान-प्रदान पर भी गहरा असंतोष व्यक्त किया।

जस्टिस दीपांकर दत्ता ने अपने फैसले में इस मामले में आम सहमति बनाने के लिए व्यावहारिक और रचनात्मक चर्चा के अभाव और सच्ची लोकतांत्रिक भावना से विचारों के आदान-प्रदान पर भी गहरा असंतोष व्यक्त किया। मामले में बहुमत के फैसले का मसौदा देर से मिलने, उसके बाद फैसले पर चर्चा के लिए सार्थक बैठकों की कमी पर उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि सीजेआई के फैसले का मसौदा उनके पास 17 अक्तूबर को पहुंचा, जो कि सीजेआई चंद्रचूड़ की सेवानिवृत्ति से लगभग तीन सप्ताह पहले था। उन्होंने कहा, अफसोस की बात है कि सात न्यायाधीशों की इस पीठ में शामिल सभी सदस्यों की उपस्थिति में प्रतिद्वंद्वी विवादों पर किसी व्यावहारिक और रचनात्मक चर्चा के बिना, यह केवल चार न्यायाधीशों की व्यक्तिगत राय है, जिसे तैयार करने के बाद अवलोकन और अनुमोदन के लिए प्रसारित किया गया है।

88 पन्नों के अपने फैसले में न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा, इस मामले में फैसला 1 फरवरी, 2024 को सुरक्षित रखा गया था, जबकि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की मसौदा राय 17 अक्तूबर को मेरे पास आई। मुझे अपने विचारों को उस तरीके से व्यक्त करने के लिए बहुत कम समय मिलने से कोई शिकायत नहीं है जिस तरह से मैं व्यक्त करना चाहता था। अगर 6 नवंबर, 2024 तक मुझे अपनी राय देने के लिए समय की कमी नहीं होती, तो मैंने अपने लिए जो सीमा निर्धारित की थी और सीजेआई को मैंने जो आश्वासन दिया था, मेरी राय ज्यादा बेहतर ढंग से व्यक्त और अधिक संक्षिप्त हो सकती थी।

जस्टिस दीपांकर दत्ता ने अपने फैसले में इस मामले में आम सहमति बनाने के लिए व्यावहारिक और रचनात्मक चर्चा के अभाव और सच्ची लोकतांत्रिक भावना से विचारों के आदान-प्रदान पर भी गहरा असंतोष व्यक्त किया। मामले में बहुमत के फैसले का मसौदा देर से मिलने, उसके बाद फैसले पर चर्चा के लिए सार्थक बैठकों की कमी पर उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि सीजेआई के फैसले का मसौदा उनके पास 17 अक्तूबर को पहुंचा, जो कि सीजेआई चंद्रचूड़ की सेवानिवृत्ति से लगभग तीन सप्ताह पहले था। उन्होंने कहा, अफसोस की बात है कि सात न्यायाधीशों की इस पीठ में शामिल सभी सदस्यों की उपस्थिति में प्रतिद्वंद्वी विवादों पर किसी व्यावहारिक और रचनात्मक चर्चा के बिना, यह केवल चार न्यायाधीशों की व्यक्तिगत राय है, जिसे तैयार करने के बाद अवलोकन और अनुमोदन के लिए प्रसारित किया गया है।

88 पन्नों के अपने फैसले में न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा, इस मामले में फैसला 1 फरवरी, 2024 को सुरक्षित रखा गया था, जबकि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की मसौदा राय 17 अक्तूबर को मेरे पास आई। मुझे अपने विचारों को उस तरीके से व्यक्त करने के लिए बहुत कम समय मिलने से कोई शिकायत नहीं है जिस तरह से मैं व्यक्त करना चाहता था। अगर 6 नवंबर, 2024 तक मुझे अपनी राय देने के लिए समय की कमी नहीं होती, तो मैंने अपने लिए जो सीमा निर्धारित की थी और सीजेआई को मैंने जो आश्वासन दिया था, मेरी राय ज्यादा बेहतर ढंग से व्यक्त और अधिक संक्षिप्त हो सकती थी।

जस्टिस सूर्यकांत : दो जजों की पीठ ने किया विशेष शक्ति का हनन
बहुमत की राय के उलट जस्टिस सूर्यकांत ने अपने अलग फैसले में कहा, पांच जजों की पीठ के फैसले की सत्यता पर संदेह जताते हुए दो जजों की पीठ की आेर से मामले का सात जजों की पीठ को भेजा जाना अवैध है। इसमें कई न्यायिक अनियमितताएं भी हैं। दो जजों की पीठ का रेफरेंस कानून की दृष्टि से गलत, अस्वीकार्य है। इसे खारिज किया जाना चाहिए।

जस्टिस सूर्यकांत ने दाऊदी बोहरा मामले में संविधान पीठ के कथन का उल्लेख करते हुए कहा, दो जजों की पीठ को बड़ी पीठ के फैसले पर संदेह करने या असहमत होने का कोई अधिकार नहीं है और वह मामले को सीधे उससे बड़ी पीठ को संदर्भित नहीं कर सकती है। उन्होंने कहा, अंजुमन के मामले में सात जजों की पीठ को संदर्भित किया गया मामला, मुख्य न्यायाधीश के मास्टर रोस्टर होने के अधिकार को चुनौती देने के अलावा और कुछ नहीं है। यह संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत प्राप्त विशेष शक्ति का हनन है।

हालांकि जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, अजीज बाशा मामले में संविधान पीठ का कहना कि चूंकि एएमयू अधिनियम, 1920 की धारा 6 में यह प्रावधान है कि एएमयू द्वारा प्रदान की गई डिग्री को सरकार द्वारा मान्यता दी जाएगी, इसलिए इसे किसी निजी व्यक्ति या निकाय द्वारा अस्तित्व में नहीं लाया जा सकता, गलत प्रतीत होता है। संविधान-पूर्व युग में स्थापित अल्पसंख्यक संस्थान भी अनुच्छेद 30 द्वारा प्रदत्त संरक्षण के हकदार हैं।

अल्पसंख्यक समुदाय को बाहरी मदद के बिना संस्थान के प्रशासन को नियंत्रित करना चाहिए- जस्टिस शर्मा
जस्टिस एससी शर्मा ने कहा, अल्पसंख्यक दर्जे के लिए संबंधित समुदाय को बाहरी ताकतों की मदद के बिना संस्थान के प्रशासन को नियंत्रित करना चाहिए। उन्होंने कहा, अल्पसंख्यक संस्थान को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विकल्प भी देना चाहिए। स्थापित और प्रशासित शब्दों का प्रयोग एक साथ किया जाना चाहिए। इसे उत्पत्ति या स्थापना के क्षणों जैसी स्थितियों के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। स्थापना का दावा करने के लिए, उन्हें इसे अस्तित्व में लाना होगा, उन्हें दूसरों को छोड़कर पूरी भूमिका निभानी चाहिए। कर्मचारियों को नियुक्त करने और निकालने का अधिकार अल्पसंख्यक के पास होना चाहिए और कार्यात्मक और आधिकारिक नियंत्रण अल्पसंख्यक के पास होना चाहिए।

जस्टिस शर्मा ने कहा कि अनुच्छेद 30 का सार अल्पसंख्यकों के लिए किसी भी तरह के तरजीही व्यवहार को रोकना और सभी के लिए समान व्यवहार करना है। यह मान लेना कि अल्पसंख्यकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए सुरक्षित आश्रय की आवश्यकता है, गलत है। अल्पसंख्यक अब मुख्यधारा का हिस्सा हैं और उन्हें समान अवसर मिल रहे हैं।

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