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    एक देश एक चुनाव पर जल्द सहमति बने

  • March 22, 2021

    – लालजी जायसवाल

    पिछले दिनों एक संसदीय समिति की संसद के दोनों सदनों में पेश रिपोर्ट में कहा गया कि अगर देश में एक चुनाव होता है, तो न केवल इससे सरकारी खजाने पर बोझ कम पड़ेगा बल्कि राजनीतिक दलों का खर्च कम होने के साथ मानव संसाधन का अधिकतम उपयोग किया जा सकेगा। साथ ही मतदान के प्रति मतदाताओं की जो उदासीनता बढ़ रही है, वह भी कम हो सकेगी। प्रधानमंत्री मोदी भी कई बार कह चुके हैं कि एक देश एक चुनाव अब सिर्फ एक चर्चा का विषय नहीं है, बल्कि ये भारत की जरूरत है। क्योंकि देश में हर महीने कहीं न कहीं बड़े चुनाव हो रहे होते हैं, इससे विकास कार्यों पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे देश भली-भांति वाकिफ हैं। उनका कहना था कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासनिक काम पर भी असर पड़ता है। अगर देश में सभी चुनाव एक साथ होते हैं, तो पार्टियां भी देश और राज्य के विकास कार्यों पर ज्यादा समय दे पाएंगी।

    एक देश एक चुनाव की बात कोई नई नहीं है, क्योंकि वर्ष 1952,1957,1962 और 1967 में लोकसभा और राज्य विधानसभा दोनों के चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं। लेकिन वर्ष 1967 के बाद कई बार ऐसी घटनाएं सामने आई, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा अलग-अलग समय पर भंग होती रही है। इसका विशेष कारण अपना विश्वास मत खो देना और गठबंधन का टूट जाना था। लेकिन वन नेशन, वन इलेक्शन आज अपरिहार्य है। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था। लेकिन इसके लिए संविधान में संशोधन करने की जरूरत होगी। क्योंकि यह देखा गया है कि पूर्व में विधानसभाएं समय रहते ही भंग होती रही हैं। जाहिर है कि कई राज्य विधानसभाओं का समय सीमा भी कम करना होगा और कई का समय सीमा बढ़ाना भी पड़ेगा। यही समस्या लोकसभा में भी हो सकता है। अतः इन तमाम मुश्किलों से निदान पाने के लिए अनुच्छेद 83, 85, 172 और अनुच्छेद 174 के साथ अनुच्छेद 356 में भी संशोधन करना होगा। साथ में लोक प्रतिनिधि कानून में भी बदलाव की जरूरत होगी।

    एक देश एक चुनाव के अनेक फायदे हैं, जो देश की प्रगति को नई दिशा प्रदान करेंगे, क्योंकि बार-बार चुनावों में खर्च होने वाली धनराशि बचेगी, जिसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य और जल संकट निवारण आदि ऐसे कार्यों में खर्च कर सकेंगे। लोगों के आर्थिक जीवन के साथ सामाजिक जीवन में सुधार सुनिश्चित हो सकेगा। कई देशों ने विकास को गति देने के लिए एक देश एक चुनाव का फार्मूला अपनाया। जैसे-स्वीडन में पिछले साल आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एकसाथ कराए गए थे। इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम भी एक बार चुनाव कराने की परंपरा है।

    एक साथ चुनाव से आर्थिक बोझ कम होगा, क्योंकि वर्ष 2009 लोकसभा चुनाव में ग्यारह सौ करोड़ वर्ष 2014 में चार हजार करोड़ और वर्ष 2019 में प्रति व्यक्ति बहत्तर रुपये खर्च हुआ था। इसी प्रकार, विधानसभाओं के चुनाव में भी यही स्थिति नजर आती रही है। बार-बार चुनाव के कारण आचार संहिताओं से राज्यों को दो चार होना पड़ता है, जिससे सभी विकास कार्य बाधित होते हैं। इससे शिक्षा क्षेत्र भी अत्यधिक प्रभावित होता है और अलग-अलग चुनाव से काले धन का अत्यधिक प्रवाह भी होता है। यदि एकसाथ चुनाव होगा तो काले धन के प्रवाह पर निश्चित रोक लगेगी। साथ ही लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ होने से आपसी सौहार्द बढ़ेगा, क्योंकि चुनाव में बार-बार जाति-धर्म के मुद्दे नहीं उठेंगे और आम आदमियों को भी तमाम परेशानियों से मुक्ति मिल सकेगी।

    नतीजतन, एक साथ चुनाव देश के हित में विकास को परिलक्षित करता है। निश्चित ही एक साथ चुनाव से कुछ समस्याओं का सामना भी करना होगा लेकिन सदैव के लिए इससे मुक्ति पाने के बाबत एक देश एक चुनाव जरूरी है। इससे क्षेत्रीय पार्टियों पर संकट आ सकता है और उनके क्षेत्रीय संसाधन सीमित हो सकते हैं, क्षेत्रीय मुद्दे भी खत्म हो सकते हैं और चुनाव परिणाम में देरी भी हो सकती है। साथ ही अतिरिक्त केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की आवश्यकता भी होगी। अतः इनकी भारी संख्या मे नियुक्ति की जरूरत पड़ेगी। एक साथ चुनाव कराने के लिए ईवीएम की पर्याप्त आवश्यकता पड़ेगी, क्योंकि आज वर्तमान समय में बारह से पंद्रह लाख ईवीएम का उपयोग किया जाता है। लेकिन जब एक साथ चुनाव होंगे तो उसके लिए तीस से बत्तीस लाख ईवीएम की जरूरत होगी। इसके साथ वीवीपैट भी लगाने होंगे। इन सब को पूरा करने के लिए चार से पांच हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त आवश्यकता होगी। निश्चित ही पूंजीगत खर्च तो बढ़ेगा ही, क्योंकि एक साथ तीस से बत्तीस लाख ईवीएम की जरूरत को पूरा करना होगा और प्रति तीन बार चुनाव अर्थात् पंद्रह साल में इनको बदलना भी होगा, क्योंकि इनका जीवनकाल पंद्रह साल तक ही होता है। लेकिन एक साथ चुनाव से अनेक फायदे भी होंगे। एक देश-एक चुनाव’ से सार्वजनिक धन की बचत तो होगी ही वही दूसरी ओर प्रशासनिक सेटअप और सुरक्षा बलों पर भार भी कम होगा तथा सरकार की नीतियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित हो सकेगा और यह भी सुनिश्चित होगा कि प्रशासनिक मशीनरी चुनावी गतिविधियों में संलग्न रहने के बजाय विकासात्मक गतिविधियों में लगी रहे।

    रिपोर्ट के अनुसार, आम चुनाव में राजनीतिक दल साठ हजार करोड़ रुपए खर्च करते हैं और राज्य विधानसभा चुनाव में भी इतना ही खर्च होता है तो दोनों को मिलाकर 1.20 लाख करोड़ रुपए राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किए जाते हैं। अब जब एक चुनाव से प्रचार भी एक ही बार करना होगा इसलिए खर्च घटकर आधा रह जाएगा। निश्चित ही पर्याप्त धन की बचत होगी जो देश कि दशा और दिशा का निर्धारण कर सकेगा।

    एक देश, एक चुनाव की अवधारणा में कोई बड़ी खामी नहीं दिखती है, किन्तु राजनीतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से इसका विरोध किया जाता रहा है, उससे लगता है कि इसे निकट भविष्य लागू कर पाना संभव नहीं हो सकेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत हर समय चुनावी चक्रव्यूह में घिरा हुआ नजर आता है। चुनावों के इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिये एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री लम्बे समय से लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने पर ज़ोर देते रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की राय बँटी हुई रही है। पिछले साल जब लॉ कमीशन ने इस मसले पर राजनीतिक पार्टियों से सलाह ली थी, तब समाजवादी पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, शिरोमणि अकाली दल जैसी पार्टियों ने ‘एक देश, एक चुनाव’ की सोच का समर्थन किया था। अतः अब समय आ गया है कि देश के सभी राजनीतिक दलों को एकजुटता के साथ सरकार के एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर चर्चा कर इसे लागू कराने पर अपनी सहमति देनी चाहिए। यह राजनीतिक नहीं अपितु विकास का मुद्दा है।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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