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    तेल बना समुद्र के लिए पर्यावरणीय संकट

  • August 22, 2020

    – प्रमोद भार्गव

    मॉरीशस के समुद्री तट ब्लू बे मरीन पर खड़े जापानी स्वामित्व के जहाज के दो टुकड़े हो जाने से उसमें भरा कच्चा तेल जल सतह पर फैलता जा रहा है। हिंद महासागर में फंसे इस जहाज की टंकियों में करीब चार हजार टन तेल भरा था, जो अब तेजी से समुद्र में फैल रहा है। एमवी वाकाशिओ नामक यह जहाज 25 जुलाई से समुद्र में फंसे होने के साथ धीरे-धीरे डूब रहा है। स्थानीय लोगों और पर्यावरण व पर्यटन प्रेमियों ने तेल रिसाव रोकने की कोशिशें भी की लेकिन तेज हवाओं और खराब मौसम के चलते कामयाबी नहीं मिली। जहाज के निचले हिस्से में आई दरारें चौड़ी होती चली गई, नतीजतन जहाज दो टुकड़ों में विभाजित हो गया। समुद्र में फैले इस कच्चे तेल से आसपास के द्वीपों में मौजूद कछुओं और दुर्लभ समुद्री पौधों को खतरा उत्पन्न हो गया है। इन्हें सुरक्षित निकालने के प्रयास जारी हैं।

    मॉरीशस के प्रधानमंत्री प्रविंद जगन्नाथ ने पर्यावरणीय आपातकाल की घोषणा करते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद मांगते हुए कहा है, ‘तेल रिसाव से देश की 13 लाख आबादी के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है। यह देश वैसे भी आजीविका के लिए पर्यटन पर निर्भर है और यहां के समुद्री द्वीप तथा उन पर पाए जाने वाले जीव-जंतु पर्यटकों के लिए प्रमुख आकर्षण के केंद्र बिंदु हैं। कोरोना संकट के चलते पहले से ही पर्यटक नहीं आ रहे हैं। अब इस तेल के रिसाव ने संकट को और बढ़ा दिया है। मॉरीशस की मदद के लिए फ्रांस और भारत ने उपकरण व अन्य सामग्री भेजे हैं।

    कच्चा खाद्य तेल, पेट्रोलियम पदार्थ, कोयला और प्राकृतिक गैसों के लगातार बढ़ते उपयोग से पैदा हो रहा प्रदूषण पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा साबित हो रहा है। यही नहीं वायु में विलोपशील हो जाने वाले इस प्रदूषण से सांस, फेफड़ों, कैंसर, हृदय व त्वचा रोग संबंधी बीमारियों में इजाफा हो रहा है। खाद्य तेल व पेट्रोलियम पद्धाथों का समुद्री जल में रिसाव होने से जल प्रदूषण बढ़ता है। गोया, ये पदार्थ एक साथ मिट्टी, पानी, हवा को दूषित करते हुए मानव जीवन के लिए वरदान की बजाय, अभिशाप साबित हो रहे हैं। मॉरीशस ही नहीं दुनिया के समुद्री तटों पर तैलीय पदार्थों और औद्योगिक कचरे से भयावह पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहे हैं। तेल के रिसाव और तेल टैंकों के टूटने से समुद्र का पर्यावरणीय पारिस्थितिकी-तंत्र (इको सिस्टम) बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। आए दिन समुद्री तल पर 3000 मीट्रिक टन से भी ज्यादा तेल फैलने व आग लगने के समाचार आते रहते हैं।

    यदि राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट पर गौर करें तो केरल के तटीय क्षेत्रों में तेल से उत्पन्न प्रदूषण के कारण झींगा और चिंगट मछलियों का उत्पादन 25 प्रतिशत कम हो गया है। कुछ साल पहले डेनमार्क के बाल्टिक बंदरगाह पर 1900 टन तेल के फैलाव के कारण प्रदूषण संबंधी एक बड़ी चुनौती उत्पन्न हुई थी। इक्वाडोर के गौलापेगोस द्वीप समूह के पास समुद्र के पानी में लगभग साढ़े छह लाख लीटर डीजल और भारी तेल के रिसाव से मिट्टी, समुद्री जीव और टैंक से लगभग 2 हजार मीट्रिक टन हानिकारक रसायन एकोनाइटिल एसीएन फैल जाने से क्षेत्रवासियों का जीवन संकट में पड़ गया था। इसके ठीक पहले कांडला बंदरगाह पर ही समुद्र में फैले लगभग तीन लाख लीटर तेल से जामनगर के पास कच्छ की खाड़ी के उथले पानी में स्थित समुद्री राष्ट्रीय उद्यान में दुर्लभ जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां मारी गईं थीं।

    जापान के टोकियो के पश्चिमी तट पर 317 किमी की पट्टी पर तेल के फैलाव से जापान के तटवर्ती शहरों में हाहाकार मच गया था। रूस में बेलाय नदी के किनारे बिछी तेल पाइप लाइन से 150 मीट्रिक टन के रिसाव ने यूराल पर्वत पर बसे ग्रामवासियों को पेयजल का संकट खड़ा कर दिया था। सैनजुआन जहाज के कोरल चट्टानों से टकरा जाने के कारण अटलांटिक तट पर करीब तीस लाख लीटर तेल का रिसाव होने से समुद्री जीव प्रभावित हुए थे। मुंबई हाई से लगभग 1600 मीट्रिक तेल का रिसाव हुआ। इसी तरह बंगाल की खाड़ी में क्षतिग्रस्त टैंकर से तेल के फैलने से निकोबार द्वीप समूह में तबाही मच गई थी। जिससे यहां रहने वाली जनजातियों और समुद्री जीवों को भारी हानि हुई। लाइबेरिया के एक टैंकर से 85000 मीट्रिक टन रिसे तेल ने स्कॉटलैंड में पक्षी-समूहों को बड़ी तादात में हानि पहुंचाई थी। सबसे भयंकर तेल का फैलाव यूएसए के अलास्का में हुआ था। यह रिसाव प्रिंस विलियम साउंड टेंकर से हुआ था। इस तेल के फैलाव का असर छह माह तक रहा। इस अवधि के दौरान इस क्षेत्र में 35000 पक्षी, 10,000 ओस्टर सेलफिश और 15 व्हेल मरी पाई गई थीं।

    अमेरिका और ईराक के युद्ध में सद्दाम हुसैन ने समुद्र में भारी मात्रा में तेल छोड़ दिया था। यह तेल इसलिए छोड़ा था, जिससे यह अमेरिका के हाथ न लग जाए। अमेरिका द्वारा इराक तेल टैंकरों पर की गई बमबारी से भी लाखों टन तेल समुद्री सतह पर फैला था। एक अनुमान के मुताबिक इस कच्चे तेल की मात्रा 10 लाख बैरल थी। इस तेल के बहाव ने फारस की खाड़ी में घुसकर जीव जगत के लिए भारी हानि पहुंचाई थी। इस प्रदूषण का असर मिट्टी, पानी और हवा तीनों पर रहा था। जानकारों का मानना है कि इराक युद्ध का पर्यावरण पर पड़ा दुष्प्रभाव हिरोशिमा-नागाशाकी पर हुए परमाणु हमले, भोपाल गैस त्रासदी और चेरनोबिल दुर्घटना से भी ज्यादा था। इस कारण इराक का एक क्षेत्र जहरीले रेगिस्तान में तब्दील हो गया और वहां महामारी का प्रकोप भी अर्से तक रहा।

    भारतीय विज्ञान कांग्रेस में गैर परंपरागत ऊर्जा स्त्रोत मंत्रालय के वरिष्ठ सलाहकार रहे डॉ एस.के. चोपड़ा ने चौंकाने वाली जानकारी दी है। उनके मुताबिक 200 खरब रुपए की पर्यावरणीय क्षति अकेले पेट्रोलियम पदार्थों के इस्तेमाल के कारण उठानी पड़ रही है। इस वजह से 42.6 प्रतिशत कोयले से और 37.4 प्रतिशत प्राकृतिक गैसों के प्रयोग से पर्यावरण को हानि हो रही है। तेल के रिसाव से जो मिट्टी का क्षरण होता वह हानि करीब 200 अरब रुपयों की है, जो कुल कृषि उत्पाद का 11 से 26 प्रतिशत है। ईंधन उपयोग में विश्व में भारत का पांचवां स्थान है और 1981 से 2002 के बीच इसमें सालाना 6 प्रतिशत और 2003 से 2016 तक 12 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। पेट्रोलियम पदार्थों से होने वाली पर्यावरणीय हानि इन्हें आयात करने में खर्च होने वाली करोड़ों डॉलर की विदेशी मुद्रा के अलावा है। गौरतलब है कि भारत अपनी कुल पेट्रोलियम जरूरतों की आपूर्ति का 70 प्रतिशत तेल आयात करके करता है। भारत प्रति वर्ष खरीद से आधे मूल्य पर पट्रोल-डीजल उपभोक्ता को उपलब्ध कराकर कई लाख करोड़ का सालाना घाटा उठाता है।

    दुनिया में करीब 64 करोड़ वाहन मार्गों पर गतिशील हैं, इनमें डीजल-पेट्रोल का उपयोग प्रदूषण का मुख्य कारण है। प्रदूषण रोकने के तमाम उपायों के बावजूद 150 लाख टन कार्बन मोनोऑक्साइड 10 लाख टन नाइट्रोजन ऑक्साइड और 15 लाख टन हाइड्रो कार्बन हरेक साल कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होती है, जो ओजोन-परत को खतरा बन रही है। विकसित देश वायुमंडल प्रदूषण के लिए 70 प्रतिशत दोषी हैं, जबकि विकासशील देश 30 प्रतिशत।

    पेट्रोलियम पदार्थों के जलने से उत्पन्न प्रदूषण फेफड़ों का कैंसर, दमा, ब्रोकाइटिस, टीबी, हृदय रोग और अनेक त्वचा संबंधी रोगों का कारक बना हुआ है। कैंसर के मरीजों की संख्या में 80 प्रतिशत रोगी वायुमंडल में फैले विषैले रसायनों के कारण ही होते हैं। दिल्ली में फेफड़ों के मरीजों की संख्या कुल आबादी की 30 प्रतिशत है, जो दूषित वायु के शिकार हैं। दिल्ली में अन्य इलाकों की तुलना में सांस और गले की बीमारियों के रोगियों की संख्या 12 गुना अधिक है।

    इन बीमारियों से निजात पाने के लिए भारत के प्रत्येक नगरीय व्यक्ति को 1500 रुपए खर्च करने होते हैं। विश्व बैंक ने जल प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर की कीमत 110 रुपय प्रति व्यक्ति आंकी है, जो समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहते हैं। समुद्री खाद्य पदार्थो पर पेट्रोलियम अपशिष्टों का असर भी पड़ता है। अनजाने में मांसाहारी लोग, इन्हीं रोगालु जीवों को आहार बना लेते हैं। इस कारण मांसाहारियों में त्वचा संबंधी रोग व अन्य लाइलाज बीमारियां घर कर जाती हैं। बहरहाल समुद्र में फैलते तैलीय पदार्थ वायुमंडल और मानव जीवन को संकट में डालने वाले साबित हो रहे हैं।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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