वाशिंगटन। मोबाइल फोन से लेकर लैपटॉप और टैब तक, अलग अलग उपकरणों की स्क्रीन पर अत्यधिक समय देने से मोटापा और मनोवैज्ञानिक से जुड़ी परेशानियों के मामले बढ़ रहे हैं। इन उपकरणों से निकलने वाली नीली रोशनी हमारे बुनियादी जैविक कार्यों पर प्रभाव डाल सकती हैं।
यह निष्कर्ष फ्रंटियर्स इन एजिंग मेडिकल जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में सामने आए हैं। हालांकि यह अध्ययन मक्खियों पर किया गया है लेकिन इसके चौंकाने वाले परिणाम हैं कि इंसानों पर भी इसी तरह का प्रभाव दिखाई दे सकता है।
अध्ययन के अनुसार टीवी, लैपटॉप और फोन जैसे रोजमर्रा के उपकरणों की स्क्रीन से निकल रही नीली रोशनी के अत्यधिक संपर्क में रहने से त्वचा और न्यूरॉन्स पर असर पड़ सकता है। साथ ही कोशिकाओं पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है। अत्यधिक नीली रोशनी के संपर्क में आने से बचना एक अच्छी एंटी-एजिंग रणनीति हो सकती है। शोधकर्ताओं ने दिखाया कि इस नीली रोशनी में आने वाली मक्खियों की तुलना में अंधेरे में रहने वाली अधिक समय तक जीवित रहती हैं।
नीली रोशनी पहुंचा रही नुकसान
ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी में इंटीग्रेटिव बायोलॉजी विभाग में प्रोफेसर डॉ. जादविगा गिबुल्टोविक्ज ने बताया कि शायद यह पहली बार देखा गया है कि विशिष्ट मेटाबोलाइट्स कोशिकाओं के सही ढंग से कार्य करने के लिए आवश्यक हैं लेकिन ये नीली रोशनी के संपर्क में आने से प्रभावित होते हैं।
इस तरह निकला निष्कर्ष
डॉ. गिबुल्टोविक्ज ने समझाया कि हमने दो सप्ताह तक नीली रोशनी के संपर्क में आने वाली मक्खियों में मेटाबोलाइट्स के स्तर की तुलना पूर्ण अंधेरे में रखी गईं मक्खियों से जब की तो पता चला कि इस एक्सपोजर ने मक्खियों की कोशिकाओं में मेटाबोलाइट्स के स्तर में महत्वपूर्ण अंतर पैदा किया। मेटाबोलाइट सक्सेनेट के स्तर में वृद्धि हुई थी, लेकिन ग्लूटामेट का स्तर कम था।
ग्लूटामेट जैसे न्यूरॉन्स के बीच संचार के लिए जिम्मेदार अणु नीली रोशनी में सबसे कमजोर होते हैं जिससे कोशिकाएं उप-स्तर पर काम करने लगती हैं और कम आयु में ही जान का जोखिम बन जाता है। दरअसल एलईडी डिस्प्ले स्क्रीन जैसे फोन, डेस्कटॉप और टीवी से हम नीली रोशनी के संपर्क में आते हैं। अब चूंकि मक्खियों और मनुष्यों की कोशिकाओं में संकेत देने वाले रसायन समान होते हैं। इसलिए मनुष्यों पर नीली रोशनी के नकारात्मक प्रभावों की संभावना होती है।
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