भोपाल। नगर निगम की निर्माण परियोजनाओं में हमेशा आरोप लगते हैं कि इनकी गुणवत्ता मानक स्तर से कमजोर होती है। इसका कारण ठेकेदारों के साथ निगम अधिकारियों का गठजोड़ माना जाता है। इसके कारण कार्य की गुणवत्ता कमजोर या मानक स्तर पर नहीं होने के बावजूद अधिकारी इसे नजरअंदाज कर ठेकेदारों के बिलों का भुगतान कर देते हैं। अब इस मनमानी को रोकने के लिए मानीटरिंग की जिम्मेदारी पार्षदों को सौंपी गई है। अब बिना स्थानीय पार्षद की अनुमति ठेकेदार को भुगतान नहीं किया जाएगा। साथ ही ठेकेदार को पार्षद के लेटर हेड पर कंप्लीशन सर्टिफिकेट भी दिखाना होगा।
बता दें कि वार्डों में नाली-सड़क सहित अन्य छोटे-छोटे विकास कार्यों को जोन स्तर पर इंजीनियर की निगरानी में कांट्रेक्टर्स द्वारा कराया जाता है। इंजीनियर भौतिक सत्यापन के बाद गुणवत्ता नियंत्रण और कंप्लीशन रिपोर्ट देते हैं, जिसके बाद निर्माण कार्य के बिल का भुगतान होता है। लेकिन, लगातार आरोप लगते हैं इंजीनियर और कांट्रेक्टर के गठजोड़ के चलते शहर में न सिर्फ गुणवत्ताहीन बल्कि अधूरे कामों के बिल का भुगतान किया जा रहा है। यही नहीं, कई मामले ऐसे भी हैं जहां जमीनी तौर पर काम हुआ ही नहीं। लेकिन इंजीनियर की रिपोर्ट पर भुगतान कर दिया गया। इसको लेकर हाल ही में नगर निगम परिषद की बैठक में हंगामा हुआ और नगरीय प्रशासन आयुक्त भरत यादव ने निगम आयुक्त को तलब कर पूरे मामले की जांच कराने को कहा है। लिहाजा अब वार्डों में होने वाले विकास कार्यों का भुगतान पार्षदों की अनुसंशा पर करने की तैयारी की जा रही है।
पार्षदों पर कमीशनखोरी के आरोप के बाद लगी थी रोक
हालांकि विकास कार्यों के बिल का भुगतान पहले भी पार्षद की अनुशंसा के बाद ही किया जाता था लेकिन करीब पांच वर्ष पहले निगम परिषद की बैठक के दौरान पार्षदों की तरफदारी करते हुए पूर्व महापौर आलोक शर्मा ने निगम इंजीनियरों पर कमीशनखोरी का आरोप लगाया था। इसके बाद निगम इंजीनियरों ने भी कहा था कि पार्षद दूध के धुले नहीं हैं। वह उनके वार्डों में होने वाले विकास कार्य का गुणवत्ता का सर्टिफिकेट जारी करने के एवज में ठेकेदारों से पांच से दस प्रतिशत कमीशन लेते हैं। इस आरोपों के बाद महापौर ने पार्षदों द्वारा गुणवत्ता सार्टिफिकेट जारी करने की प्रथा पर रोक लगा दी थी।
नगर निगम में साझेदारी से चलता है कमीशन का खेल
कर्मचारी नेताओं का कहना है कि कमीशनबाजी के खेल में सिर्फ अधिकारी अकेले शामिल नहीं हैं। ये पूरा खेल अफसरों और पार्षद की साझेदारी से चलता है। पार्षद निधि से होने वाला काम उसी ठेकेदार को मिलता है, जिसे पार्षद चाहता है। कांट्रेक्टर और पार्षद की मिलीभगत पहले से है, तो कोई बात नहीं। लेकिन अगर ऐसा नहीं है, तो अधिकारी कांट्रेक्टर का भुगतान तब तक नहीं करते, जब तक वह पार्षद से क्वालिटी का सर्टिफिकेट न लाए।
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