कौन है जो कलियुग में भी शिव को विषपान करा रहा है… टूटती आशाएं… बिखरा हुआ विश्वास… पीड़ाओं का एहसास और आभास मिटाने का दावा कर खुद शिव बना जा रहा है…जो भाग्य भगवान ने लिखा… जो जीवन भक्तों को मिला… वो उसे बदलने के लिए मजमा जुटा रहा है… वो टूटे हुए लोग हैं… वो बिखरे हुए लोग हैं… वो कष्ट से विचलित हैं… उनकी वेदनाएं भगवान तक को झकझोर देती हैं, लेकिन वो ईश्वर भी बेबस है… क्योंकि यह कर्मों का बंधन है… जब इंसान धरा पर आता है तो अपने साथ हाथ की रेखाएं लाता है… उसका भाग्य ही उसके जीवन का चक्र बनाता है… लेकिन ईश्वर की भक्ति उसके दुखों को सहन करने की शक्ति बनती है… और सुख में सद्कार्य करने की प्रेरणा देती है… यही जीवन का चक्र है… लेकिन इस चक्र को भेदने का जो दावा करते हैं… भाग्य को बदलने का भ्रम रखते हैं… वो खुद ही अपने कर्म के बंधन में बंधते हैं, लेकिन उनका यह कर्म… उनका यह भ्रम… तब दुष्कर्म बन जाता है, जब कोई उन पर विश्वास कर दौड़ा चला आता है… उस भीड़ में शामिल हो जाता है, जो बेकाबू हो जाती है… उसके शरीर को रौंद कर दौड़ी चली जाती है… उसकी मानसिक पीड़ा शारीरिक पीड़ा में बदल जाती है… और मौत तक उसके प्राण हरने आ जाती है… तब शिव कलियुग में विषपान करने को विवश हो जाते हैं… अपने भक्तों की मौत देखकर विचलित हो जाते हैं… जगत का रचियता पाखंड की इस रचना पर सिहर उठता है… शिव को तो दयालु कहा जाता है… भोला भंडारी यह सब कैसे सह पाता है… नीलकंठ का कंठ भी अपने दबे-कुचले लोगों को देखकर करुणा से भर जाता है… फिर वह भी उन लोगों के अगले जीवन के कर्मबंधन तय करने में जुट जाता है, जिन्होंने उनके भक्तों को इस कष्ट में डाला… पीड़ाओं से मारा… भाग्य से उनके लडऩे की क्षमताओं को कमजोर किया और जिंदगी तक को मौत में बदलने का दुस्साहस किया… मौत पर प्रवचन देना बड़ा आसान होता है… आज तेरी है कल मेरी बारी है… कहकर मौत को स्वीकारने की पंक्तियां तो वैसे भी स्वीकारी जाती है… हर शख्स मौत को मानता भी है और जीवन के अंत को जानता भी है… इसीलिए मौत कठिन नहीं होती… कठिन होता है जीवन…जब जिंदगी डराती है, खुद को झोंकने पर भी कामयाबी नहीं मिल पाती है… हर कोशिशें नाकाम हो जाती हैं… आशाएं टूटने लग जाती हैं, दिलासाएं दिल को नहीं समझा पाती हैं… चाहतें पूरी नहीं हो पाती हैं… परिवार भूखे मरने लगता है… बच्चों की परवरिश दम तोडऩे लग जाती है… शरीर साथ नहीं देता है… जब जीवन खुद को ताने देने लगता है, तब इंसान टूट जाता है और ऐसे टूटे लोगों को जब झूठी दिलासा की किरण नजर आती है तो वह दौड़ लगाते हैं… हजारों नहीं लाखों जुट जाते हैं… यह तक नहीं समझ पाते हैं कि दो लाख रुद्राक्ष अभिमंत्रित तो दूर असली तक मिलना मुश्किल है, फिर भी लूटने, झपटने, पाने की चाहत में मौत को गले लगाते हैं तो यह मौत नहीं हत्या कहलाती है… यह हत्या उन लोगों के सिर होती है, जो यह समझ नहीं पाते हैं कि वह पीड़ा हरने नहीं पीड़ा बढ़ाने वाले भी बन रहे हैं… और जिस शिव के नाम पर मजमा जमा रहे हैं… खुद को तारणहार बता रहे हैं, उस शिव का क्रोध जिस दिन चरम पर पहुंचेगा, तब तांडव का वह नजारा दिखेगा कि धरती कांप जाएगी और जिंदगी मौत से ज्यादा बेबस नजर आएगी… मौत की कथा से पहले जिंदगी जीवन को समझाएगी… इसलिए भाग्य को बदलने और खुद शिव बनने की कोशिश के बजाय भाग्य को समझने की कोशिश कीजिए… कर्म भोगने का साहस भरने की शक्ति बनिए… जीवन के सुख को सद्कार्य में बदलने और दुखी लोगों की मदद करने की प्रेरणा दीजिए… कोई यंत्र जीवन का तंत्र नहीं बन सकता… केवल शिव के साहस और सदाचार के मंत्र से जो जहां है, वो वहां रहकर भी भक्ति की शक्ति हासिल कर सकता है….
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