– हृदयनारायण दीक्षित
भारत का मन उल्लास से भरा पूरा है। 28 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नए संसद भवन का लोकार्पण करेंगे। यह इतिहास का स्वर्णिम अध्याय होगा। लेकिन भारतीय स्वाभिमान के इस अवसर पर भी लगभग डेढ़ दर्जन राजनीतिक दल कार्यक्रम का बहिष्कार कर रहे हैं। वे राष्ट्रीय महत्व के इस अवसर पर भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। गृहमंत्री अमित शाह ने इसे ओछी राजनीति बताया और कहा है कि, ‘नया संसद भवन देश की सांस्कृतिक विरासत परंपरा व सभ्यता को आधुनिकता से जोड़ने का सुन्दर प्रयास है। इस ऐतिहासिक समारोह के साक्षी बनने के लिए सबको निमंत्रित किया गया है कि इस कार्यक्रम में सब लोग हिस्सा लें।’
उन्होंने कहा है कि इस कार्यक्रम को राजनीति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। यह भारतीय परम्पराओं व आधुनिकता से जुड़ने का महान क्षण है। इस स्थान का इतिहास भी महत्वपूर्ण है। दिल्ली कई सदियों से सत्ता का प्रमुख केन्द्र रही है। ब्रिटिश सत्ता ने प्रारम्भ में अपनी राजधानी कलकत्ता में स्थापित की थी और बाद में दिल्ली। तत्कालीन शासक किंग जार्ज प्रथम ने 12 दिसंबर 1911 में इसकी आधारशिला रखी थी। ब्रिटिश वास्तुकार एडविन लुटियंस और अलबर्ट बेकर ने इस नए नगर की योजना बनाई थी। लगभग बीस वर्ष बाद योजना पूरी हुई। 13 फरवरी 1931 को दिल्ली को राजधानी घोषित किया गया था। नए भवन की अनेक विशिष्टताएं हैं।
नवनिर्मित संसद भवन में लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास ‘सेंगोल’ की स्थापना की जाएगी। यह पांच फीट लंबा चांदी से बना दण्ड है। इस पर सोने की पालिश है। आठवीं सदी के बाद से लगभग आठ सौ वर्ष तक चोल साम्राज्य था। चोल साम्राज्य में सत्ता का हस्तांतरण इसी ‘सेंगोल’ से होता था। विद्वान राजनेता सी. राजगोपालाचारी के सुझाव पर तमिलनाडु के तिरुवदुथुराई मठ ने इसे तैयार कराया था। इसके शीर्ष पर न्याय के रक्षक और प्रतीक नंदी अटल दृष्टि के साथ मौजूद हैं।
चोल शिव उपासक थे। सेंगोल तमिल भाषा के शब्द सेम्मई से निकला है। इसका अर्थ धर्म निष्ठा और सच्चाई होता है। सेंगोल राजदण्ड भारतीय शासक की शक्ति और अधिकार का प्रतीक था। 14 अगस्त 1947 को पं. जवाहर लाल नेहरू ने तमिलनाडु की जनता से सेंगोल को स्वीकार किया था। ब्रिटिशों से सत्ता हस्तांतरण के लिए राजाजी ने चोल वंश के सत्ता हस्तांतरण से प्रेरणा लेने का सुझाव दिया। चोल वंश में एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता सौंपते समय पुजारियों का आशीर्वाद लिया जाता था। सेंगोल का प्रतीकात्मक हस्तांतरण भी होता था। चोल राजवंश वास्तुकला और संस्कृति के संरक्षण में असाधारण योगदान के लिए प्रसिद्ध था। सी. राजगोपालाचारी के सुझाव के बाद तमिलनाडु के तिरुवदुथुराई मठ ने सेंगोल तैयार कराया था।
पूरा भारत नए संसद भवन की खूबसूरती के साथ चोल साम्राज्य की प्राचीन परंपरा से भी जुड़ रहा है। संसद भारतीय संवैधानिक व्यवस्था की जीवमान सत्ता है। संसद के पास विधायी और संविधायी अधिकार हैं। भारत में ऋग्वेद के रचनाकाल के पहले से ही लोकतंत्र की धारा प्रवाहमान रही है। यहां देवताओं के सम्बंध में भी तर्क प्रतितर्क का वातावरण रहा है। यूरोपीय विद्वान ब्रिटिश संसद को विश्व लोकतंत्र की जननी बताते हैं। वस्तुतः भारत में ही लोकतंत्र और संसदीय संस्थाओं का जन्म और विकास वैदिक काल में ही हो चुका था। सभा और समितियां ऋग्वेद में हैं। महाभारत 18 पर्वों में विभाजित है। एक पर्व का नाम सभा पर्व है। सभा समिति में वैदिक काल में ही सामाजिक महत्व के विषयों पर विचार विमर्श होते थे। गायों को प्रणाम करते हुए ऋग्वेद के एक ऋषि कहते हैं कि, ‘हे गौ माता आपकी चर्चा सभा में होती है।’
भारतीय परंपरा में परस्पर विचार विमर्श का विशेष महत्व रहा है। अथर्ववेद (7.1.63) के एक मंत्र में ऋषि कहते हैं, ‘सभा और समिति प्रजापति की दुहिताएं हैं। वे मेरी रक्षा करें। मुझे उत्तम शिक्षा दें। सदन में एकत्र हुए वरिष्ठ समुचित भाषण करें।’ सभा और समिति के उल्लेख से वैदिक साहित्य भरा पूरा है। अथर्ववेद के एक मंत्र में कहा गया है, ‘सभा हमारी रक्षा करे। उसके सभ्य सभासद मेरी रक्षा करें।’ (15.9.2) ऋग्वेद के एक मंत्र में कहते हैं कि, ‘तुम अपने घर को भद्र बनाओ। तुम्हारी वाणी भद्र हो और तुम चिरकाल तक सभा में रहो।’ (6.28.6) सभा में लम्बे समय तक रहना प्रतिष्ठा का विषय था। ऋग्वेद के एक अन्य मंत्र में सभा में जाने वाले की प्रशंसा है। कहते हैं कि, ‘वह हमेशा सभा में जाता है।’ सभा और समितियां सामान्य एकत्रीकरण नहीं थीं। सभा एक सुसंगठित संस्था थी। इसके सदस्य सभ्य या सभेय कहे जाते थे।
सभा वैदिक काल में ही राष्ट्र व जनपदों में सक्रिय और जीवंत थी। मधुर बोलना, सुन्दर तर्क देना, विपक्षी के तर्क सुनना जैसे सभी लोकतांत्रिक तत्व वैदिक काल में विकसित हो चुके थे। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संसदीय प्रणाली अपनायी। भारत के लिए इसे स्वीकार करने में सुविधा थी। भारत की प्रज्ञा पहले से ही लोकतांत्रिक थी। भारत के लोगों को संसदीय प्रणाली अपनाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। हमारी संसद ने जटिल से जटिल विषयों पर धीर गंभीर होकर कानून बनाए हैं। बेशक संवैधानिक आपातकाल के समय सम्पूर्ण विपक्ष जेल में था। संसदीय प्रणाली पर ऐतिहासिक संकट था। अनेक महत्वपूर्ण संविधान संशोधन भी विपक्ष की गैरहाजिरी में ही पारित हुए। लेकिन संसद ने आपातकाल के बाद जरूरी संशोधन किए। संसद भारतीय बुद्धि और विवेक का मन दर्पण है। अभी भी कभी-कभी संसद में गतिरोध हो जाता है। संसद की कार्यवाही ठप हो जाती है। भारत का मन दुखी होता है। लेकिन संसदीय प्रणाली अपनी कठिनाइयों व चुनौतियों का समाधान स्वयं कर लेती है।
नया संसद भवन लोकार्पण के समय से ही विश्व का आकर्षण बन चुका है। हम दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र हैं। दुनिया की सभी संसदीय संस्थाएं भारत की और देखती हैं और प्रेरित होती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद प्रवेश के पहले दिन सीढ़ियों में माथा टेक कर संसद के प्रति अपना श्रद्धा भाव व्यक्त किया था। यह एक ऐतिहासिक भाव प्रवण क्षण था। प्रधानमंत्री के मन में संविधान और उसकी संस्थाओं के प्रति गहन आदर भाव है। विधायिका व न्यायपालिका के प्रति कार्यपालिका का आदर ध्यान देने योग्य है। हजारों वर्ष पहले वैदिककाल की संसदीय संस्थाओं से लेकर आधुनिक काल तक संसदीय संस्कृति का लंबा इतिहास है। यहां सांस्कृतिक निरंतरता है। कायदे से नए संसद भवन के लोकार्पण के अवसर पर सभी दलों, नेताओं और संसद सदस्यों को एक साथ लोकार्पण का साक्षी बनना चाहिए। संसद भवन सामान्य निर्मिति नहीं है। इस भवन के प्रत्येक अंश और कण-कण में राष्ट्र के लोकमंगल का प्रवाह है। जैसे मंदिर सामान्य भवन नहीं होते, मंदिरों के भीतर एक विशेष प्रकार की विद्युत चुम्बकीय धारा बहती है। वैसे ही संसद भवन के भी प्रत्येक अंग में लोकतांत्रिक चेतना की प्राणवान सत्ता है। इसलिए इस अवसर पर सबको एक साथ समवेत होना चाहिए। कुछ राजनीतिक दल इस अवसर को भी मोदी विरोध के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। यह अनुचित है। संसद भवन को श्रद्धा और आदरपूर्वक ही देखना चाहिए।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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