– विकास सक्सेना
नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान संगठन सड़कों पर उतरे हुए हैं। आंदोलन की शुरुआत में कुछ भाजपा नेताओं ने इस आंदोलन में खालिस्तान समर्थक और दूसरी देश विरोधी ताकतों की घुसपैठ की आशंका जताई थी। इन बयानों के तीखे विरोध के बाद भाजपा नेताओं को चूक का अहसास हुआ। आम किसानों में गलत संदेश जाने के डर से उन्होंने बयानों को संयमित कर लिया। लेकिन अब किसानों के मंच से देशद्रोह के आरोपियों की रिहाई की मांग और खालिस्तान के समर्थन की आवाजें उठने से पूरे आंदोलन के उद्देश्य पर सवाल उठने लगे हैं। अबतक आंदोलन से पूरी तरह नहीं जुड़ने वाला जो किसान इन आंदोलनकारियों से सहानुभूति रखता था, वह भी किसानों के नाम पर राजनैतिक एजेंडा चलाने वालों पर सवाल उठाने लगा है।
किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहे नेता इन तीनों कानूनों को निरस्त करने की मांग पर अड़े हुए हैं। हालांकि वे यह स्पष्ट करने में नाकाम रहे हैं कि इन कानूनों से किसान को क्या नुकसान होने वाले हैं या ये कानून किस तरह किसानों का अहित कर बड़े कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाले हैं। आंदोलन के नेताओं की सबसे बड़ी आपत्ति इस बात को लेकर है कि इन कानूनों को तैयार करते समय किसान प्रतिनिधियों से बात नहीं की गई। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसानों के हित के लिए बनने वाले कानूनों को तैयार करते समय उनके प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श करने से ये कानून किसानों के लिए और अधिक लाभकारी हो सकते थे। लेकिन कानून बनाने से पहले किसान संगठनों से सलाह नहीं ली गई, इस आधार पर कानूनों को निरस्त करने की मांग समझ से परे है। इसके अलावा ये नेता यह बात भी नहीं बताते कि इन कानूनों में जो प्रावधान किए गए हैं, किसान संगठन पिछले दो दशकों से लगातार उसकी मांग कर रहे थे।
एपीएमसी मंडियों में शोषण के विरोध में किसानों को मंडी के चंगुल से मुक्त कराने की लम्बे समय से मांग कर रहे किसान संगठन अब मंडी व्यवस्था को बरकार रखने के नाम पर सड़कों पर हैं। आंकड़ों के मुताबिक मंडी व्यवस्था का लाभ महज छह प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है। इसके अलावा नए कृषि कानूनों के मुताबिक मंडी व्यवस्था बरकरार रखते हुए किसानों को अपनी उपज खुले बाजार में बेचने का नया विकल्प दिया गया। इसके बावजूद किसानों को भविष्य का भय दिखाकर आंदोलन के लिए उकसाया जा रहा है। किसानों को बताया जा रहा है कि नई व्यवस्था लागू होने के बाद भविष्य में मंडियां बंद हो जाएंगी। इसके बाद सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना बंद कर देगी। आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों के शिथिल होने के कारण बड़े पूंजीपति पहले से भंडारण की गई फसलों को नई फसल के समय बाजार में उतार कर दाम गिरा देंगे, जिससे किसान अपनी फसल कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाएंगे। ये इनमें से किसानों की कई शंकाएं विचार करने योग्य हैं और सरकार को उनका समाधान करना चाहिए। लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करके सिर्फ सरकारी खरीद के दम पर किसानों की आर्थिक स्थिति न तो आजादी के सत्तर सालों में सुधरी है और न ही भविष्य में सुधरने की संभावना है।
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में बनी एलके झा समिति की सिफारिशों के आधार पर 1966-67 में पहली बार सिर्फ गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई। बेहतर दाम मिलने के कारण किसानों ने बाकी फसलों की पैदावार कम कर दी इसलिए सरकार को दूसरे अनाजों, तिलहन, दलहन और गन्ना का भी न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना पड़ा। इस समय 20 से अधिक फसलों का सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है लेकिन इस व्यवस्था का लाभ आम किसान को प्राप्त नहीं हो पाता। संसाधनों की कमी से जूझता लघु और सीमांत किसान आज भी अपनी उपज गांव के आसपास लगे फड़ (अस्थाई दुकान) पर बेचकर अपनी जरूरतों को पूरा कर रहा है। गारंटीशुदा समर्थन मूल्य पर बिकने वाली गन्ने की फसल के उत्पादक किसानों की समस्या भी कम नहीं है। एक तरफ भुगतान समय से न होने से किसान परेशान हैं तो दूसरी तरफ समय से गन्ना पर्ची न मिलने से किसान को काफी समय तक फसल को खेत में ही बचाए रखना होता है। चीनी मिलें पहले पेड़ी और बाद में नौलख गन्ने की पर्ची जारी करती हैं, जिससे उसकी उत्पादन लागत काफी बढ़ जाती है।
किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर उपज की खरीद-फरोख्त को दंडनीय अपराध बनाने की मांग कर रहे हैं लेकिन इस तरह का कोई भी कानून छोटे किसानों के उत्पीड़न का एक नया हथियार बनना सुनिश्चित है। खराब फसल को कम कीमत पर बेचकर अपनी जरूरतें पूरी करने वाले किसान को भ्रष्ट सरकारी तंत्र के आर्थिक शोषण का भी शिकार बनना होगा। निजी खरीददारों पर मंडी के समान शुल्क लगाने का भी नुकसान किसानों को ही होगा क्योंकि इस शुल्क की भरपाई भी फसल के दाम से की जाएगी। आंदोलनकारियों की तरफ से मांग की जा रही है कि कांट्रेक्ट फार्मिंग से जुड़े विवादों को उच्च न्यायालयों में ले जाने का प्रावधान किया जाए। ऐसे हालात में छोटे किसानों के लिए बड़ी अदालतों में महंगे वकीलों के सामने अपने मुकदमें की पैरवी कर पाना तक संभव नहीं होगा। इसके स्थान पर बेहतर हो कि स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर तक न्यायाधिकरण का गठन किया जाए और इनमें वाद दर्ज कराने का किसानों से कोई शुल्क न लिया जाए।
किसानों का यह आंदोलन कई मायनों में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ चले आंदोलन से मेल खाता है। किसान आंदोलन में भी देशभर से राजनैतिक कार्यकर्ताओं को दिल्ली के आसपास चल रहे प्रदर्शनों में बुलाया जा रहा है। राजधानी के आसपास होने वाला आंदोलन मीडिया को आसानी से अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है। इसी तरह विदेशों में भी किसान आंदोलन के नाम पर खालिस्तान समर्थक प्रदर्शन हो रहे हैं। इन प्रदर्शनों के आयोजकों की प्राथमिकता जनसमर्थन से ज्यादा पारंपरिक और सोशल मीडिया की सुर्खियां बटोरना रहता है। सीएए के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोग इस कानून को मुस्लिम विरोधी बताते रहे लेकिन वे कभी स्पष्ट नहीं कर सके कि सीएए से भारतीय मुसलमानों को किस प्रकार नुकसान पहुंचा सकता है। इसी तरह आम किसान तो दूर खुद को किसानों का नेता कहने वाले भी इन कानूनों की खामियों को बता पाने में नाकाम हैं। यही वजह है कि बीते दिनों किसान संगठनों की तरफ से बुलाए गए भारत बंद में किसान समर्थकों से ज्यादा भागीदारी सरकार विरोधियों की दिखाई दी।
अब इस आंदोलन के मंच से देशद्रोह और दंगों के आरोपियों के समर्थन की आवाज उठने से लग रहा है कि किसान हित के नाम पर चल रहा यह आंदोलन राह भटक रहा है। संसद से पास कानूनों को निरस्त कराने की जिद पर अड़े इस आंदोलन के नेताओं की मंशा किसानों की समस्याओं को दूर करने से ज्यादा सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करके अपने राजनैतिक हित साधने की है। मीडिया के जरिए आम किसानों तक पहुंच रही इस तरह की खबरों के कारण ही किसान नेताओं के आह्वान पर राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता तो आंदोलन में उतर रहे हैं लेकिन आम किसानों ने अभीतक इससे दूरी बनाए रखी है। आम किसानों का समर्थन हासिल करने के लिए आंदोलन को किसान हितों तक सीमित रखना अनिवार्य है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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