रायपुर। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज 125वीं जयंती है। एक वो दौर था जब आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी के एक नारे, तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, ने पूरे देश में आजादी के दीवानों को जोश से भर दिया था, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इस नारे ने आजादी के करीब 70 साल बाद छत्तीसगढ़ में बालोद के दूध उत्पादकों को गरीबी की बेड़ियों से आजाद कराने में भी अहम भूमिका निभाई है।
इसके लिए बालोद के जिला प्रशासन ने इस नारे में थोड़ा बदलाव किया था। दूध उत्पादकों को गरीबी से निजात दिलाने और उन्हें सम्मान से जीने के लिए इसे बदलकर तुम मुझे दूध दो, मैं तुम्हें आर्थिक आजादी दूंगा कर दिया और फिर इस नारे ने उनकी माली हालत को पूरी तरह बदलकर रख दिया।
इसकी शुरुआत साल 2018 में तब हुई जब बालोद जिला प्रशासन ने किसानों के हितों की सुरक्षा के लिए उन्हें गोलबंद करना शुरू किया। तत्कालीन कलेक्टर सारांश मित्तर ने दुग्ध उत्पादों की आर्थव्यवस्था और मार्केटिंग को ध्यान में रखकर एक कार्य योजना तैयार की। इसके बाद गंगा मइया डेयरी प्रोडक्शन एंड प्रोसेसिंग को-ऑपरेटिव सोसाइटी अस्तित्व में आया जो आज अमूल और देवभोग एवं वचन जैसे स्थापित ब्रांड्स के लिए स्थानीय बाजार में बड़ी चुनौती बन चुका है। शोषित और कमाई के लिए तरसते रहने वाले यहां के दूथ उत्पादक आज दूध गंगा ब्रांड नाम से अपने उत्पाद करीब 9 लाख की आबादी वाले जिले में सप्लाई करते हैं।
कलेक्टर ने जो प्लान तैयार किया था, उसमें दूध उत्पादन से लेकर उसके संग्रहण, प्रोसेसिंग और मार्केटिंग तक का पूरा खाका बनाया गया था। दूध उत्पादकों को मवेशियों की सही देखभाल की ट्रेनिंग दी गई और आधुनिक तकनीकों से लैस दूध की प्रोसेसिंग यूनिट तैयार की गई। सोसाइटी से जुड़े दुग्ध उत्पादक बताते हैं कि पहले कंपनियां उन्हें एक लीटर दूध के लिए केवल 20 से 26 रुपए तक देती थीं जबकि उपभोक्ताओं को यही दूध 40 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से बेचा जाता था। किसान असंगठित थे और कंपनियां आसानी से उनका शोषण कर लेती थीं, लेकिन आज हालात पूरी तरह बदल चुके हैं।
इस सोसाइटी से करीब 300 दुग्ध उत्पादक जुड़े हैं जो 30 रुपए प्रति लीटर की दर से सोसाइटी को दूध बेचते हैं। हर सदस्य को दूध की मात्रा के साथ उसे मिलने वाली रकम की एक रसीद दी जाती है। सोसाइटी प्रशिक्षित युवाओं की मदद से प्रोसेसिंग प्लांट का संचालन करती है और प्रति लीटर दूध के बदले उसे 8 रुपए का मुनाफा होता है।
दुग्ध उत्पादक बताते हैं कि पहले की हालत में नियमित आमदनी तो दूर की बात है, उन्हें खाने के लाले पड़ जाते थे। आमदनी कम थी और पैसे कब मिलेंगे, इसका भी कोई ठिकाना नहीं होता था। अब 10 दिनों के अंदर उनके खाते में खुद ही पैसे आ जाते हैं। उपभोक्ता भी खुश हैं, क्योंकि उन्हें अच्छी क्वालिटी के दूध उत्पाद कम कीमत में मिलते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि किसानों को होने वाली आय से स्थानीय अर्थव्यवस्था भी बेहतर हो रही है। इसका कारण यह है कि किसानों को मिलने वाला पैसा यहां से बाहर नहीं जाता, बल्कि इलाके में ही खर्च भी होता है।
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