– डॉ. रमेश ठाकुर
चीन अपनी चालाकी से बाज नहीं आता, दोस्ती करके पीठ में छुरा घोंपना उसका चरित्र रहा है। आज तक जिस मुल्क से भी उसने दोस्ती की, धोखा ही दिया। कहावत है कि ‘देर आए, दुरूस्त आए’, ये बात पड़ोसी देश नेपाल पर मौजूदा वक्त में सटीक बैठती है। चीन नेपाल पर क्यों डोरे डालता था, ये बात नेपाल बहुत कुछ खोकर समझ पाया, लेकिन अच्छी बात ये है समय रहते समझ गया। बीते काफी समय से नेपाल में चीन की जारी अंदरूनी खुराफात की तस्वीरें धीरे-धीरे बाहर आ गई हैं। कई जगहों पर चीन अवैध अतिक्रमण करते रंगे हाथों पकड़ा गया है।
नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रों में कई जगह पर अतिक्रमण बड़े गुपचुप तरीके से कर रहा था। बता दें कि दोनों देशों के बीच सरहद की सीमाएं तो जुड़ती ही हैं, हिमालय पर्वत का क़रीब 1400 किमी क्षेत्रफल भी दोनों देश आपस में साझा करते हैं। चीन सीमा से सटे नेपाल के कुछ जिले दोलखा, धारचुला, हुम्ला, सिंधु पाल, गोरखा, जलचौक, संखुवासभा और रसुवा में चीन ने अवैध अतिक्रमण किया है। कई मंजिला भवन भी बना रखे हैं, सेनाओं के रहने के लिए अस्थायी घरों को भी बनाया हुआ है। चीन की इन हरकतों की खबरें बीते सितंबर में सबसे पहले बाहर आईं। इसको लेकर नेपाल की विपक्षी पार्टियों ने शोर मचाना शुरू किया, सरकार पर दबाव डाला।
नेपाल में जब विरोध तेज हुआ, तब सरकार ने चीन से पूरी हकीकत पूछी तो वह मुकर गया। उनके उच्चायुक्त को भी पूछा तो वह भी कुछ नहीं बोले। लेकिन भारत इस बात से वाकिफ था कि एक न एक दिन चीन नेपाल में ऐसी हरकत करेगा। भारत नेपाल को ज्ञान न दे इसे लेकर चीन दोनों मुल्कों के रिश्तों में पहले ही खटास पैदा करवा दी। हालांकि भारत ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया और उसकी सहानुभूति हमेशा से नेपाल के प्रति रही। चीन के अवैध अतिक्रमण को लेकर नेपाल सरकार ने पहली बार आधिकारिक रूप से माना है कि चीन उसके इलाक़ों में अवैध अतिक्रमण कर रहा है। भारत काफी समय से आगाह करता आया है, लेकिन नेपाल मानने को राजी नहीं था। चीन नेपाल के जरिए भारत में भी घुसपैठ की फिराक में था, जिसे हमारी सेना ने पहले ही खदेड़ दिया था।
बहरहाल, नेपाल के कई पहाड़ी ज़िलों पर चीन क़ब्ज़ा कर चुका। नेपाल में करीब नौ-दस बड़ी सैन्य इमारतें बना चुका है। कब्जे की सूचनाएं बाहर आने के बाद से ही राजधानी काठमांडू में चीन के दूतावास पर बड़े पैमाने पर स्थानीय लोग विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। चीन के राष्ट्रपति के पुतले फूंके जा रहे हैं, उनसे हर तरह के व्यापारिक संबंधों को खत्म करने का दबाव भी अपनी सरकार पर बना रहे हैं। बीते महीने नेपाल सरकार ने चीन की बनाई इमारतों का सर्वे करवाया था जिसके बाद भेद खुला। इसके अलावा दोलखा, गोरखा, धारचुला, हुमला व संखुवासभा जिलों में भी चीन की नापाक हरकतें पकड़ी गई हैं। वहां भी कई जगहों पर अतिक्रमण होता दिखा है।
गौरतलब है कि चीन-नेपाल के बीच मौजूदा सीमा विवाद की प्रकृति को समझने के लिए हमें दोनों देशों के बीच हुए सीमा समझौते के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी समझना होगा। कुछ समझौते ऐसे हैं जिनमें चीन ने चालाकी दिखाई थी, नेपाल को धोखे में रखा। वे समझौते आज के नहीं, बल्कि सदियों पुराने हैं जिनका मौजूदा समय में कोई लेना-देना नहीं। चीन उन्हीं पुराने समझौतों की दलीलें देने में लगा। नेपाल-तिब्बत ने पांच सितंबर 1775 को सीमा पर संबंधों को मज़बूत करने के लिए व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे जिनमें जिक्र था कि दोनों देशों के बीच सीमा में कोई बदलाव नहीं होगा। चीन की मंशा नेपाल के अधिकांश पहाड़ी क्षेत्र को हड़पने की है, पर शायद ही कोई आम नेपाली ऐसा होने दे।
चीन को डर सिर्फ भारत से है, उसे लगता है कि कहीं भारत नेपाल के पक्ष में न खड़ा हो जाए। खैर, नेपाल स्वयं भी सशक्त है किसी भी समस्या से निपटने के लिए। उसकी सेना भी चीन को मुंहतोड़ जवाब दे सकती है। पर, इस विवाद के बाद एक लकीर ऐसी खिंच गई है जिससे दोनों देशों में खटास पैदा होना निश्चित है। भारत ने अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है क्योंकि नेपाल अपने किए की ही सजा भुगत रहा है। नेपाल अब एक बात और ठीक से समझ गया कि वह भारत के खिलाफ इस्तेमाल हो रहा था। अवैध अतिक्रमण की खबरों के बाद नेपालियों ने भी चीन निर्मित सामानों का बहिष्कार शुरू कर दिया। नेपाल में चीन के खिलाफ भड़की चिंगारी जल्द बुझने वाली नहीं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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