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    भारतीय शिक्षा में नवाचार की जरूरत

  • November 18, 2021

    – गिरीश्वर मिश्र

    आज सूचना और ज्ञान की बढ़ती हुई महत्ता को पहचानते हुए वर्त्तमान युग का नाम ही ‘ज्ञान-युग’ रख दिया गया है। जीवन के हर क्षेत्र में डिजिटल प्रक्रिया और कृत्रिम बुद्धि (आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस) का ही बोलबाला हो रहा है (घर में एलेक्सा आपके काम की मदद को हाजिर है!)। रोबोट बहुत सारे काम यहाँ तक कि जटिल सर्जरी आदि करने में बेहद सहायक हो रहा है, कम्प्यूटर और इंटरनेट की सहायता से धरती से चाँद तक बहुत सारा काम हो रहा है। बढ़िया मोबाइल ‘आई फोन’ हो तो मानो दुनिया ही मुट्ठी में आ गई हो। तो ज्ञान का डंका बज रहा है और सुख की तलाश में ज्ञान बड़े पैमाने पर व्यापक और जटिल ढंग से शामिल होता जा रहा है। ज्ञान का यह दूसरा और संभ्रांत छोर है। उसके दूसरे छोर पर ज्ञानहीन अनपढ़ों की दुनिया है।

    भारत में इस किस्म का ‘डिजिटल डिवाइड’ आज सामाजिक-आर्थिक भेदभाव का बड़ा कारण बन रहा है। अंग्रेजों ने शिक्षा की विषय वस्तु और पद्धति सब में बदलाव किया और वर्चस्व के चलते उसे मुख्यधारा में ला खड़ा किया। ज्ञान की दिशा, ज्ञान का सन्दर्भ , ज्ञान की प्रामाणिकता के आधार और संबोध्य सब के सब गैर-भारतीय होते गए। हम सबके लिए एक पश्चिमी साँचा ढाल दिया गया जिसमें अपने को फिट करना ही हमारा काम हो गया। आज आजादी के पचहत्तर साल बीतने को आए ज्ञान की शृंखला की बेड़ियाँ कमजोर होने की जगह और मजबूत हुई हैं।

    शिक्षा का आयोजन कैसे हो इस प्रश्न का उत्तर पश्चिमी शिक्षा और ज्ञान की सैद्धांतिकी और अनुप्रयोग पर ही निर्भर करता है। ऐसा करते हुए हम मानसिक रूप से पश्चिमी होते चले गए। पश्चिमीकरण की यह प्रक्रिया इस छद्म ढंग से हुई कि पश्चिमी ज्ञान वैश्विक या सार्व भौमिक सत्य के रूप में प्रस्तुत हुआ और उसी तरह से अंगीकृत किया गया। इस प्रक्रिया में जो कुछ पश्चिम के अनुकूल था उसे स्वीकार किया गया और जो उसके अनुरूप नहीं रहा उसे त्याग दिया गया। हमारे सोच विचार की कोटियाँ, व्याख्याएं और सिद्धांत सभी आयातित होती रहीं। ऐसे में यहाँ पर विकसित हो रहा ज्ञान मौलिक न हो कर एक तरह की छायाप्रति ही बना रहा जिसकी प्रामाणिकता मूल के साथ उसकी अनुरूपता के आधार पर निश्चित की जाती है। नएपन की जगह पुनराख्यान को महत्त्व दिया जाने लगा। ऐसे बहुत कम क्षण ही देखने को मिले जब ज्ञान की दृष्टि से नवोन्मेष के दर्शन होते हों अन्यथा पश्चिम की ज्ञान यात्रा का अनुगमन करने में ही समय बीत जाता है। ज्ञान का खेल और खेल के नियम सभी उन्हीं के। राजनैतिक स्वाधीनता के बावजूद ज्ञान के और शक्ति के शिकंजे से निकलना सरल नहीं है क्योंकि हम एक ऐसी व्यवस्था से बंधे रहे जो सृजन के बदले यथास्थिति के पक्ष में थी इसलिए नवाचार इस मानसिक जकड़न से उबरने के लिए जरूरी है।

    वैश्विक स्तर पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए ज्ञान की व्यवस्था सभी देशों में वरीयता प्राप्त कर रही है। इसके लिए संसाधन जुटाए जा रहे हैं और उसकी गुणवत्ता की निगरानी और जांच के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘टाइम्स हायर एजूकेशन’ जैसी आकलन व्यवस्था द्वारा उच्च शिक्षा की संस्थाओं की रैंकिंग की जा रही है और विश्व के सभी सचेत देश अपनी शिक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने में लगे हुए हैं। भारत में भी ‘नैक’ की संस्था का गठन हुआ है और भारत में भी राष्ट्रीय स्तर पर भी संस्थाओं की रैंकिंग (एनआईआरऍफ़) की जा रही है। उसके निश्चित पैमाने बने हुए हैं जिन पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार मूल्यांकन किया जाता है और उसके परिणाम सार्वजनिक किए जाते हैं। संस्थाओं में प्रवेश के लिए विद्यार्थियों का आकर्षण बहुत हद तक इन मूल्यांकनों पर निर्भर करता है। साथ ही इस संस्थाओं को व्यवस्थित करने में भी इनकी सहायता ली जाती है।

    यह एक स्वागतयोग्य पहल है। विश्वविद्यालय के स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता संबर्धित करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से निर्देश भी जारी हुए हैं। प्रक्रिया की दृष्टि से निश्चय ही यह सराहनीय कदम है फिर भी वास्तविकता पर गौर करने पर अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं जिनके समाधान के लिए शैक्षिक नवाचार आवश्यक हैं। बदलते समय में शिक्षा का परिवेश और शिक्षा से जुड़ी आशाएं और आकांक्षाएं भी बदली हैं। उदारीकरण और वैश्वीकरण की तीव्र प्रक्रिया के प्रभाव के बीच शिक्षा का अंतरराष्ट्रीय आयाम विशेष रूप से महत्वपूर्ण हुआ है। साथ ही ताजा सन्दर्भ में देखने पर शिक्षा-अर्जन का तकनीकी आयाम विशेष रूप से महत्वपूर्ण बन गया है।

    लगभग दो साल लम्बी चली कोविड की संक्रामक महामारी के दौर में शिक्षा और तकनीक का रिश्ता तब नई ऊँचाइयों पर जा पहुंचा जब प्राइमरी से उच्च शिक्षा की सारी व्यवस्था ‘आन लाइन’ शिक्षा के अधीन हो गई थी। अध्यापन हो या परीक्षा मजबूरी में ही सही सारा का सारा काम आनलाइन ही होता रहा। इसके नफ़ा-नुकसान तो अपनी जगह हैं पर शिक्षा के प्रसार और दूरस्थ क्षेत्रों में शिक्षा तक लाभार्थियों की पहुँच को सुरक्षित रखने की दृष्टि से यह निश्चित रूप से एक प्रभावशाली कदम था। यहाँ पर यह स्मरणीय है कि शिक्षा की सुविधा मुहैया कराने की दृष्टि से जीवन के आरंभिक दो दशकों तक का समय विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। जनसंख्या के बढ़ते आंकड़ों को देखते हुए सभी स्तरों पर शिक्षा संस्थाओं की संख्या अपर्याप्त है। साथ ही शिक्षा संस्थाओं में पर्याप्त वर्ग भेद है।

    इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की दस्तक के साथ कई तरह की भौतिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक घटनाओं की अनुगूँज देश में और वैश्विक स्तर पर फैलती नजर आ रही हैं उनके बीच यह सवाल अहम होता जा रहा है कि जिस तरह के आदमी को रचा-गढ़ा जा रहा है वह इस अर्थ में स्वायत्त रूप से कितना सक्षम और समर्थ है ताकि वह सर्जनात्मक रूप से खुद को, अपने परिवेश को और परिवेश के समस्त जड़ चेतन रहवासियों को स्वस्थ और सुरक्षित रख सके। शिक्षा का जो ढांचा अंग्रेज छोड़कर गए और जिसे ज्यों का त्यों अपना लिया गया उसे देख कर यही लगता है कि सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण हुआ, साहब बहादुर बदल गए बाकी सारी चीजें वही वही रहीं। शिक्षा नीति के नाम पर कवायद होती रही और थोड़े बहुत हेरफेर होते रहे पर उनका भी उत्स विदेश में ही था।

    इस बार 2020 में एक शिक्षा नीति का मसौदा आया जिसे ‘भारतकेन्द्रित’ कहा गया। इसमें संरचना, प्रक्रिया और विषय वस्तु को लेकर बड़े गंभीर परिवर्तन के संकल्प प्रस्तुत किए गए जिनको देख कर एक लचीली और प्रतिभा को अवसर देने वाली एक उत्साहवर्धक व्यवस्था दी गई। इसमें मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम रखने पर भी बल दिया गया है। उस मसौदे के क्रियान्वयन की प्रक्रिया प्रगति में है। विभिन्न संस्थाएं इस हेतु तैयारी कर रही हैं। आशा की जाती है कि भविष्य में शीघ्र ही शिक्षा नीति के क्रियान्वयन की रूप रेखा सामने आयेगी।

    यह हमें याद रखना होगा कि शिक्षा एक व्यवस्था है जो अन्य व्यवस्थाओं से प्रभावित होती है और प्रभावित करती है क्योंकि शिक्षा का आयोजन और नियोजन स्वायत्त या निरपेक्ष न होकर अन्य व्यवस्थाओं के सापेक्ष है और उन पर निर्भर है। शिक्षा की स्वायत्तता स्वयं शिक्षा के लिए वांछित है पर शिक्षा का नियोजन कर रहे राजनैतिक दल या सरकार की मंशा यदि कुछ और है तो शिक्षा परतंत्र रहेगी और एक उपकरण के रूप में ही प्रयुक्त होती रहेगी। पर शिक्षा बेहतर समाज बनाने का अवसर जरूर है। हम जैसा समाज बनाना चाहते हैं वैसी ही शिक्षा भी देनी होगी। शिक्षा के लिए ऊंचे लक्ष्यों की बात हमेशा की जाती है पर जब उसके लिए निवेश की बात आती है तो मुकर जाते हैं। नवाचार लाने के लिए भी साहस, उत्साह और संलग्नता के साथ निवेश की जरूरत होगी।

    शिक्षा चर्या का परिवेश तकनीकी प्रगति के दौर में बहुत बदल गया है। बच्चों के संज्ञानात्मक अनुभव तेजी से बदल रहे हैं और कौशलों को भी नए सिरे से पहचानने की जरूरत है। स्वामी विवेकानंद, गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर और महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों शिक्षा के मार्ग का अपने जीवन और कर्म द्वारा सोदाहरण निदर्शन दिया था और अभी भी उनका जिया जीवन शिक्षा के पराक्रम का उत्कृष्ट उदाहरण है। आज भी प्रयोग हो रहे हैं और वैकल्पिक शिक्षा के अनेक प्रयास जारी हैं। शिक्षा के अभिप्राय के प्रति जागरूकता लाना जरूरी है। तभी शिक्षा की प्रक्रिया को स्वाभाविक विकास और सृजन की ओर उन्मुख बनाना संभव हो सकेगा।

    (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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