श्रीनगर । जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir)में कट्टरपंथियों के बढ़ते प्रभाव (The growing influence of fundamentalists)से विधानसभा चुनावों (Assembly Elections)में पेचीदा समीकरण(A tricky equation) बन सकते हैं। राज्य के मुख्यधारा (The mainstream of the state)में शामिल दलों में इसे लेकर बेचैनी है। लोकसभा चुनाव में बारामूला सीट पर राशिद शेख उर्फ इंजीनियर की जीत के बाद से सूबे में नए समीकरण को लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। अब विधानसभा चुनाव के दौरान भी इस तरह की चुनौती को लेकर राजनीतिक दल चौकन्ना हैं।
माना जा रहा है, मुख्यधारा के दलों के प्रति कथित निराशा और इसकी वजह से बने स्पेस को भरने के लिए गुपचुप रणनीति बन रही है। जम्मू-कश्मीर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गुल मोहम्मद वानी मानते हैं, दस साल बाद हो रहा राज्य का विधानसभा चुनाव पहले जैसा नहीं होगा। इस बार कई तरह के बदलाव अनुच्छेद-370 समाप्त होने के बाद बने समीकरण की वजह से देखने को मिलेंगे। दस साल बाद हो रहे चुनाव में मुख्यधारा के दलों का पहले जैसा दबदबा शायद न हो। पहले अलगावादी तत्वों के प्रभाव की वजह से एक तबका चुनावों के बहिष्कार की बात करता था, पर अब लोग बहिष्कार के बजाय अपनी आवाज का प्रतिनिधित्व चाहते हैं। इसका असर भी जमीन पर दिखेगा।
जानकार लोकसभा में बारामूला सीट पर दमदार जीत हासिल करने वाले राशिद शेख को एक प्रतीक मानकर नई राजनीतिक संभावना पर भी चर्चा कर रहे हैं। कई सीटों पर कट्टररपंथ समर्थित उम्मीदवारों के निर्दलीय चुनाव लड़ने की संभावना है। इंजीनियर राशीद ने बारामूला सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ा था। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी उमर अबदुल्ला को बड़े अंतर से हराया था। शेख ने तिहाड़ जेल में बंद रहते हुए चुनाव लड़ा और जीता। राशिद पर टेरर फंडिंग लेने का आरोप है। उन पर यूएपीए एक्ट के तहत गंभीर आरोप हैं। जानकार कहते हैं, तमाम विपरीत परिस्थतियों के बावजूद उन्हें मिली जीत से लोगों के मूड का पता चला। लिहाजा, विधानसभा चुनाव में कट्टरपंथी अपना दबदबा बनाने का प्रयास करेंगे।
भाजपा घाटी में अपनी एंट्री का तलाश रही रास्ता
दरअसल, राज्य की संवैधानिक स्थिति में तब्दीली का ज्यादा असर क्षेत्रीय दलों और नेताओं पर पड़ा है। आईएएस टॉपर शाह फैसल ने राजनीतिक पार्टी बनाई थी, वे उसे छोड़ फिर से प्रशासनिक सेवा में लौट गए। फैसल के साथ पार्टी की संस्थापक रहीं जेएनयू छात्रसंघ की पूर्व उपाध्यक्ष शेहला रशीद ने भी अलग रास्ता चुन लिया। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री व नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला सूबे की बहाली होने तक चुनाव न लड़ने का ऐलान कर चुके हैं। चुनाव में उनका रुख देखना होगा। पीडीपी की हालत भी बहुत मजबूत नहीं है। भाजपा अलग-अलग समुदायों को प्रतिनिधत्व देने के बाद और परिसीमन की आड़ में घाटी में अपनी एंट्री का रास्ता तलाश रही है। कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव कठिनाइयों से भरा हुआ है।
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