– प्रणय विक्रम सिंह
ग्रामोदय से राष्ट्रोदय के राजमार्ग के शिल्पकार युगदृष्टा नानाजी देशमुख ने कहा था “हम अपने लिए नहीं, अपनों के लिए हैं, अपने वे हैं जो सदियों से पीड़ित एवं उपेक्षित हैं।” शायद तभी जब उन्होंने ग्रामोदय से राष्ट्रोदय के अभिनव प्रयोग के लिए 1996 में स्नातक युवा दम्पत्तियों से पांच वर्ष का समय देने का आह्वान किया तो इस आह्वान पर दूर-दूर के प्रदेशों से प्रतिवर्ष ऐसे दम्पत्ति चित्रकूट पहुंचने लगे थे। चयनित दम्पत्तियों को 15-20 दिन का प्रशिक्षण दिया जाता था। नानाजी उनसे कहते थे- राजा की बेटी सीता उस समय की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में 11 वर्षों तक रह सकती है, तो आज इतने प्रकार के संसाधनों के सहारे तुम पांच वर्ष क्यों नहीं रह सकतीं ? ये शब्द सुनकर नवदाम्पत्य में बंधी युवतियों में सेवाभाव और गहरा होता था तो उनके कदम अपने शहर एवं घर की तरफ नहीं, सीता की तरह अपने पति के साथ जंगलों- पहाड़ों बीच बसे गांवों की ओर बढ़ते थे।
स्वावलंबी और स्वाभिमानी भारत के निर्माण के लिए नानाजी देशमुख ने जीवन भर अहर्निश कार्य किया। ग्राम-विकास की अभिनव रूपरेखा प्रस्तुत कर आदर्श ग्राम खड़े किए। चित्रकूट समेत देश के अनेक जनपदों में चल रहीं समग्र ग्राम विकास योजनाएं आज उनकी राष्ट्र साधना की जीवंत साक्षी हैं।
नानाजी किसी बात को केवल कहते ही नहीं थे वरन उसे कार्यरूप में परिवर्तित भी करते थे। आधुनिक युग के इस दधीचि का पूरा जीवन ही एक प्रेरक कथा है। नानाजी उन लोगों में थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में अर्पित करने के लिये संघ को दे दिया। नानाजी का जन्म 11 अक्टूबर सन 1916 को बुधवार के दिन महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में हुआ था। नानाजी जब छोटे थे तभी इनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन गरीबी एवं अभाव में बीता। नानाजी प्रयोगवादी थे। उनके प्रयोगवादी रचनात्मक कार्यों का ही एक उदाहरण है सरस्वती शिशु मंदिर। सरस्वती शिशु मंदिर आज भारत की सबसे बड़ी स्कूलों की श्रृंखला बन चुकी है। इसकी नींव नानाजी ने ही 1950 में गोरखपुर में रखी थी। इतना ही नहीं संस्कार भारती के संस्थापक सदस्यों में एक रहे हैं नानाजी।
1951 में उन्हें पंडित दीनदयाल के साथ भारतीय जनसंघ का कार्य करने को कहा गया। राजनीति में ‘संघर्ष नहीं समन्वय’, ‘सत्ता नहीं, अन्तिम व्यक्ति की सेवा’ आदि वाक्यों को नानाजी ने स्थापित करने की कोशिश की। वह नानाजी ही थे, जो चौधरी चरण सिंह जी और उनके सहयोगियों को कांग्रेस से विरक्त कर सके और उत्तर प्रदेश में पहली साझा सरकार बन सकी। इससे नानाजी की अनुशासन प्रियता और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता प्रदर्शित हुई।
वह भारतीय जनसंघ में दीनदयाल उपाध्याय के समकक्ष थे और दोनों में अतीव घनिष्टता थी। नाना जी देशमुख का मानना था जब कोई नेता 60 साल का हो जाए तो उसे राजनीति छोड़कर समाज का काम करना चाहिए। नानाजी जनता पार्टी की मोरारजी के मंत्रिमंडल में कोई बड़ा मंत्रालय मांग सकते थे और चर्चा थी कि वह गृहमंत्री बनेंगे। लेकिन अपनी सोच के अनुसार जैसे ही वह 60 साल के हुए राजनीति छोड़ दी और चित्रकूट में एकात्म मानववाद की कल्पना लेकर ग्रामीण विकास के काम में लग गए। इसी काम में जीवन पर्यन्त लगे रहे।
जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने राजनीतिक दल की स्थापना की तो उसके महासचिव बने नानाजी देशमुख और भारतीय जनसंघ ने तेजी से उत्तर प्रदेश की राजनीति में विस्तार किया। दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी ने उन दिनों राष्ट्रधर्म और पांचजन्य नामक पत्रिकाओं के माध्यम से खूब काम किया। चन्द्रभानु गुप्त जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे उन्होंने कहा था यह नाना देशमुख नहीं नाना फड़नवीस हैं। उनका घनिष्ट सम्बन्ध डाॅक्टर लोहिया और जयप्रकाश नारायण से रहा था। जब 1967 में उत्तर प्रदेश में संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी तो नानाजी देशमुख उसके प्रमुख सूत्रधारों में से एक थे।
नानाजी का मुख्य योगदान राजनीति में नहीं ग्रामोदय में रहा। उनके द्वारा स्थापित चित्रकूट का विश्वविद्यालय ग्रामीण विकास का माॅडल है। 11 फरवरी 1968 को पं. दीनदयाल के अकाल निधन के बाद नानाजी ने दीनदयाल स्मारक समिति का पंजीयन कराकर एक नए अध्याय की शुरुआत की। 20 अगस्त 1972 से विधिवत ‘एकात्म मानव दर्शन’ के सिद्धांत को व्यवहारिक धरातल पर उतारने हेतु ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ कार्यालय नई दिल्ली में नानाजी के नेतृत्व में कार्य करने लगा। 1991 में भगवानन्दजी महाराज के आग्रह पर नानाजी चित्रकूट आये। चित्रकूट में करीब 500 गांवों में नैतिक मूल्यों के साथ व्यापक सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए वहीं जम गए। चित्रकूट परियोजना संस्थागत विकास और ग्रामीण विकास के एक मॉडल के रूप में अनोखा प्रयास है। इसमें ऐसे विकास पर जोर दिया गया है, जो भारत के लिए सबसे उपयुक्त है। वह जनता की शक्ति पर आश्रित है। उन्होंने सिखाया कि शोषितों और उपेक्षितों के साथ एक रूप होकर ही प्रशासन और राजकाज का गुर सीखा जा सकता है। यह भी कि युवा पीढ़ी में सामाज निर्माण की चेतना जगाना अनिवार्य है।
चित्रकूट परियोजना आत्मनिर्भरता की मिसाल है। दरअसल चित्रकूट परियोजना चित्रकूट के आसपास के पांच गांवों के समूह बनाकर सौ गांव समूहों को विकसित करने के लिए तैयार की गई। इसके तहत गांव के हर व्यक्ति, परिवार और समाज के जीवन के हर पहलू पर गौर किया जाता है। इस मुहिम की कुंजी है समाज शिल्पी दंपती। ये दंपती गांव के ही होते हैं और पांच गांवों के समूह में प्रेरणा देने की जिम्मेदारी निभाते हैं। सबसे पहले इनकी आय वृद्धि पर विचार किया जाता है। इसके लिए जरूरत के मुताबिक जल संचयन और मृदा प्रबंधन की तकनीक अपनाई जाती है। साथ-साथ उद्यम कौशल और स्व-सहायता समूह के जरिए आय बढ़ाने के उपाय अलग होते हैं और ये सभी उपक्रम जुड़े होते हैं। (1) कोई बेकार न रहे (2) कोई गरीब न रहे (3) कोई बीमार न रहे (4) कोई अशिक्षित न रहे (5) हरा-भरा और विवादमुक्त गांव हो। ग्राम विकास की इस नवरचना का आधार है समाजशिल्पी दम्पत्ति, जो पांच वर्ष तक गांव में रहकर इस पांच सूत्रीय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए काम करते हैं।
देश के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की और नाम रखा चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय। सन् 1991 से 1994 तक नानाजी ग्रामोदय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलाधिपति रहे। लेकिन सरकार की नीति से तंग आकर 1995 में कुलाधिपति पद से त्यागपत्र दिया और विश्वविद्यालय का काम सरकार के जिम्मे छोड़ दिया।
महात्मा गांधी सम्मान, एकात्मता पुरस्कार, श्रेष्ठ नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण, वरिष्ठ नागरिक सम्मान, मानस हंस, जीवन गौरव, संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार आदि पुरस्कारों से नानाजी को सम्मानित किया गया है। उन्हें अजमेर, मेरठ, झांसी, पूना एवं चित्रकूट विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट की मानद उपाधि दी गयी। कर्मयोगी नानाजी महामहिम राष्ट्रपति द्वारा 1999 में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। नानाजी का जीवन असंख्य लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
हम सबको ‘सर्व भूत हिते रता:’ का पाठ पढ़ाते हुए 27 फरवरी 2010 को उन्होंने इस लोक से विदा ली। अपने जीवन में ही उन्होंने तय कर दिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शरीर को जलाया नहीं जाएगा बल्कि शोध के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली को सौंप दिया जाएगा। जीवन के हर क्षेत्र में उन्होंने अद्भुत आदर्श स्थापित किया। नश्वर संसार से विदा लेने के उपरांत अपने शरीर का अंग-अंग राष्ट्र को दान कर दिया। इस प्रकार जीवन भर तो उन्होंने समाज सेवा की ही जीवन त्यागने के बाद भी वो समाज सेवा में ही लीन हो गए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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