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    MP हाईकोर्ट का मुस्लिम महिला के मामले में फैसला, कहा- ससुर से गुजारा-भत्ता नहीं मांग सकती विधवा बहू

  • November 15, 2024

    जबलपुर । मध्य प्रदेश हाई कोर्ट (Madhya Pradesh High Court) ने हाल ही में एक फैसला देते हुए कहा कि ससुर (Father-in-law) को अपनी विधवा बहू (Widowed daughter-in-law) को भरण-पोषण (Maintenance) देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। अदालत ने यह फैसला देते हुए घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 या मुस्लिम पर्सनल लॉ (बशीर खान बनाम इशरत बानो) का हवाला दिया।

    बार एंड बेंच की एक रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस हृदेश ने यह टिप्पणी उस शख्स की याचिका को स्वीकार करते हुए की, जिसे ट्रायल व सेशन कोर्ट ने अपनी विधवा बहू को 3,000 रुपए मासिक भरण-पोषण देने का निर्देश दिया था। शख्स ने इसी फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की थी।

    याचिकाकर्ता के वकील ने कोर्ट को बताया कि याचिकाकर्ता एक बुजुर्ग व्यक्ति है और चूंकि वह मुस्लिम समुदाय से है, इसलिए मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत उस पर अपनी विधवा बहू को भरण-पोषण देने का कोई दायित्व नहीं बनता है। साथ ही वकील ने बताया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भी ऐसा कोई दायित्व नहीं है। जिसके बाद कोर्ट ने याचिकाकर्ता के हक में फैसला सुनाया।

    24 अक्टूबर को दिए अपने फैसले में अदालत ने कहा, ‘मुस्लिम कानून और घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, वर्तमान याचिकाकर्ता जो कि प्रतिवादी का ससुर है, उसे प्रतिवादी को भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।’


    रिपोर्ट के अनुसार याचिकाकर्ता के बेटे की शादी साल 2011 में हुई थी। लेकिन चार साल बाद ही साल 2015 में उनके बेटे का निधन हो गया, और वह अपने पीछे अपनी पत्नी यानि याचिकाकर्ता की बहू को छोड़ गया।

    इसके बाद विधवा बहू ने अपने ससुराल वालों के खिलाफ घरेलू हिंसा का मामला दर्ज करा दिया और अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने ससुर से 40,000 रुपए महीना भरण-पोषण की मांग करते हुए कोर्ट में एक आवेदन दायर कर दिया।

    महिला के ससुर यानी याचिकाकर्ता ने बहू की याचिका का विरोध किया। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने महिला के हक में फैसला देते हुए ससुर को अपनी विधवा बहू को हर महीने 3,000 रुपए देने का आदेश दे दिया।

    ट्रायल कोर्ट के इस आदेश को चुनौती देते हुए ससुर ने सत्र न्यायालय में अपील की। लेकिन वहां भी उसकी अपील खारिज हो गई, जिसके बाद उसने (याचिकाकर्ता) भरण-पोषण आदेश की सत्यता पर सवाल उठाने के लिए एक पुनरीक्षण याचिका दायर करके हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    उच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता एक बुजुर्ग व्यक्ति है और चूंकि वह मुस्लिम समुदाय से है, इसलिए मुस्लिम कानून (मुस्लिम पर्सनल लॉ) के तहत उस पर अपनी विधवा बहू को भरण-पोषण देने का कोई दायित्व नहीं बनता है।

    याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत को बताया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भी ऐसा कोई दायित्व नहीं है। इस संबंध में शबनम परवीन विरुद्ध पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य के केस में कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसले सहित कुछ अन्य उच्च न्यायालयों के फैसलों का हवाला भी दिया गया।

    याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि जब याचिकाकर्ता का बेटा जीवित था, तब भी बहू अलग रह रही थी। ऐसे में याचिकाकर्ता ने दावा किया कि वह अपनी विधवा बहू को भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं है।

    उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता के तर्कों को सही पाया और कहा कि निचली अदालत ने याचिकाकर्ता को उसकी बहू को भरण-पोषण देने का आदेश देकर गलती की थी। इसलिए याचिकाकर्ता की याचिका को अनुमति दी गई और भरण-पोषण आदेश को रद्द कर दिया गया।

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