– डॉ. अजय खेमरिया
मध्य प्रदेश में बीजेपी के कुछ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल के साथ ही मुरझाए हुए हैं। कैबिनेट गठन के बाद तो मामला सन्निपात-सा हो गया है। बड़े सुव्यवस्थित तरीके से पार्टी में एक विमर्श खड़ा किया जा रहा है कि बाहर से आये नेताओं को समायोजित करने से पार्टी का कैडर ठगा महसूस कर रहा है। कैडर के हिस्से की सत्ता दूसरे दलों से आये नेता ले जा रहे हैं। इस विमर्श के अक्स में बीजेपी की विकास यात्रा पर नजर दौड़ाई जाए तो स्पष्ट है कि सिंधिया के आगमन और उनकी धमाकेदार भागीदारी बीजेपी में कोई नया घटनाक्रम नहीं है। आज की अखिल भारतीय भाजपा असल में राजनीतिक रूप से गैर भाजपाईयों के योगदान का भी परिणाम है।
जिन सिंधिया को लेकर बीजेपी का एक वर्ग आज प्रलाप कर रहा है उन्हें याद होना चाहिये कि 1967 में सिंधिया की दादी राजमाता विजयराजे अगर कांग्रेस छोड़कर बारास्ता स्वतन्त्र पार्टी, जनसंघ में न आई होतीं तो क्या मप्र में इतनी जल्दी पार्टी का कैडर खड़ा हुआ होता? एक बहुत ही प्रैक्टिकल सवाल विरोध के स्वर बुलन्द करने वालों से पूछा जा सकता है कि क्या वे जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं उसके आसपास की विधानसभाओं में उनकी भीड़ भरी सभाएं सिंधिया की टक्कर में आयोजित की जा सकती है? क्या देश भर में सिंधिया की उपयोगिता से कोई इनकार कर सकता है? क्या मप्र में सिंधिया के भाजपाई हो जाने से कांग्रेस का अस्तित्व संकट में नहीं आ गया?
रही बात बीजेपी कैडर की तो वह सदैव यह चाहता ही है कि उसकी पार्टी के व्यास का विस्तार हो। यह निर्विवाद तथ्य है कि बीजेपी में उसकी रीति नीति को आत्मसात करने वाले ही आगे बढ़ पाते हैं। ऐसा भी नहीं कि बाहर से आये सभी नेताओं के अनुभव खराब हैं। मप्र में जनसंघ के अध्यक्ष रहे शिवप्रसाद चिनपुरिया मूल कैडर के नहीं थे। इसी तरह ब्रजलाल वर्मा भी बीजेपी में बाहर से आकर प्रदेश अध्यक्ष तक बने। ऐसा लगता है कि बीजेपी ने मप्र में सिंधिया के दबाव में 14 मंत्री बना दिए हैं लेकिन पार्टी ने बहुत करीने से अपने नए कैडर को मप्र की राजनीति में मुख्यधारा में खड़ा कर दिया है। मसलन कमल पटेल, मोहन यादव, इंदर सिंह परमार, अरविंद भदौरिया-को मंत्री बनाकर खांटी संघ कैडर को आगे बढ़ने का अवसर दिया गया है। उषा ठाकुर, भूपेंद्र सिंह, भारत सिह कुशवाहा, प्रेम पटेल, कावरे मीना सिंह जैसे जन्मजात भाजपाईयों को जिस तरह मंत्री बनाया गया है उसे आप पार्टी का सोशल इंजीनियरिंग बेस्ड पीढ़ीगत बदलाव भी कह सकते हैं।
जाहिर है जो मीडिया विमर्श बीजेपी को ज्योतिरादित्य सिंधिया के आगे सरेंडर दिखाता है उसके उलट मप्र में नए नेतृत्व की स्थापना को भी देखने की जरूरत है। मप्र में पार्टी के मुखिया के रूप में बी़डी शर्मा की ताजपोशी क्या किसी ने कल्पना की थी।बीडी शर्मा असल में मप्र की भविष्य की राजनीति का चेहरा भी हैं, वे पीढ़ीगत बदलाव के प्रतीक भी हैं। यानी मप्र में दलबदल के बावजूद वैचारिक अधिष्ठान से निकला कैडर मुख्यधारा में सदैव बना रहा है।
मप्र राजमाता सिंधिया को बीजेपी ने सदैव राजमाता बनाकर रखा, अब ज्योतिरादित्य सिंधिया की बारी है कि वे अगर अपनी दादी के सियासी अक्स को अपने जीवन में 25 फीसदी भी उतार सकें तो वह भी महाराजा की तरह प्रतिष्ठित पायेंगे। बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने तो उनको राजमाता की तरह ही अवसर उपलब्ध करा दिया है। वैसे बीजेपी में बाहर से आये नेताओं को उनकी निष्ठा के अनुसार सदैव प्रतिष्ठा मिली है। मप्र की सियासत के ताकतवर चेहरे डॉ. नरोत्तम मिश्रा का परिवार कभी कांग्रेस में हुआ करता था उनके ताऊ महेश दत्त मिश्र कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे है लेकिन नरोत्तम मिश्रा को बीजेपी ने इस पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद आगे बढ़ाया।
सवाल यह है कि जब बीजेपी का राजनीतिक दर्शन पार्टी को सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी बनाने का है तब मप्र में सिंधिया प्रहसन पर सवाल क्यों उठाये जा रहे हैं? क्या यह तथ्य नहीं है कि सिंधिया के कारण ही मप्र जैसे बड़े राज्य में पार्टी को फिर से सत्ता हासिल हुई। क्या सवाल उठाने वाले चेहरों ने सत्ता बनी रहे, इसके लिए अपने खुद के योगदान का मूल्यांकन ईमानदारी से किया है? क्या इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए कि सिंधिया प्रहसन पर आपत्ति केवल उन लोगों को है जो जीवन भर बीजेपी में रहकर दल से बड़ा देश अपने मन मस्तिष्क में उतार ही नहीं पाए।
तथ्य यह है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में आने से मप्र में कांग्रेस नेतृत्व विहीन होकर रह गई है।आज कमलनाथ और दिग्विजय सिंह 70 पार वाले नेता हैं और दोनों के पुत्रों को मप्र की सियासत में स्थापित होने में लंबा वक्त लगेगा। सिंधिया का आकर्षक व्यक्तित्व और ऊर्जा, बीजेपी के लिए मप्र में अपनी जमीन को फौलादी बनाने में सहायक हो सकती है। सिंधिया के लिए भी बीजेपी एक ऐसा मंच और अवसर है जिसके साथ सामंजस्य बनाकर वह जीवन की हर सियासी महत्वाकांक्षा को साकार कर सकते हैं क्योंकि यहां एक व्यवस्थित संगठन है, अनुशासन है और एक सशक्त आनुषंगिक नेटवर्क है।
आवश्यकता इस बात की है कि बीजेपी संगठन की प्रभावोत्पादकता सत्ता साकेत में कमजोर न हो। संगठन और विचार का महत्व बनाए रखने की जवाबदेही मूल पिंड से उपजे नेताओं की ही होती है। बीजेपी के वैचारिक अधिष्ठान में प्रचारक की तरह आचरण अपेक्षित है। जो नेता इस अधिष्ठान को समझते हैं उनका उत्कर्ष यहां बगैर वकालत के निरन्तर होता रहा है। इसलिए सिंधिया हों या पायलट, सामयिक रूप से जो सियासी उत्कर्ष में सहायक हो उन्हें लेकर कोई भ्रम नहीं होना चाहिये। अगर ऐसे नेताओं के अंदर समन्वय और वैचारिक अबलंबन का माद्दा होगा तो वह मूल विचार के लिए उपयोगी ही होंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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