नई दिल्ली (New Delhi)। मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) में इन दिनों चुनावी सरगर्मी (Election excitement) तेज है। कांग्रेस और भाजपा (Congress and BJP) दोनों ने ही 230 सीटों पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। 17 नवबंर को प्रदेश में विधानसभा चुनाव (Assembly Election 2023) के लिए मतदान होगा। चुनाव से पहले चुनावी रथ प्रदेशभर के मतदाताओं का मन टटोलने निकला है। मुरैना जिले से शुरू हुआ चुनावी रथ आज मालवा निमाड़ में आने वाले खरगोन पहुंचा है।
जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां मध्य प्रदेश एकलौता राज्य है, जहां भाजपा की सरकार है। मतदान के लिए अंतिम दिनों में भाजपा आक्रामक प्रचार कर ही है। पीएम मोदी लगातार प्रदेश में चुनावी कार्यक्रम कर रहे हैं। इन सबके बीच राज्य की सियासी स्थिति के बारे में विस्तार से जानना जरूरी है। मध्यप्रदेश बीते पांच साल में दो सरकारें देख चुका है। 2018 में आए चुनाव नतीजों के बाद राज्य में 15 साल बाद कांग्रेस ने सरकार बनाई। कमलनाथ राज्य के मुख्यमंत्री बने। हालांकि, राज्य की कमलनाथ सरकार 15 महीने तक ही चल सकी। 15 महीने बाद एक बार फिर राज्य में भाजपा की सत्ता में वापसी हुई।
मध्य प्रदेश की 230 सदस्यीय विधानसभा के आगामी चुनाव के लिए अधिसूचना 21 अक्तूबर को जारी हुई।
नामांकन की आखिरी तारीख 30 अक्तूबर रही।
नामांकन पत्रों की जांच 31 अक्तूबर तक की गई।
नाम वापस लेने की अंतिम तारीख दो नवंबर रही।
आगामी चुनाव के लिए 17 नवंबर को मतदान होगा।
मतों की गिनती तीन दिसंबर को होगी।
मध्यप्रदेश में पिछला विधानसभा चुनाव कई मायनों में बेहद रोमांचक रहा था। 230 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत से दो कम 114 सीटें मिलीं थीं। वहीं, भाजपा 109 सीटों पर आ गई। हालांकि, यह भी दिलचस्प था कि भाजपा को 41% वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 40.9% वोट मिला था। बसपा को दो जबकि अन्य को पांच सीटें मिलीं। नतीजों के बाद कांग्रेस ने बसपा, सपा और अन्य के साथ मिलकर सरकार बनाई। इस तरह से राज्य में 15 साल बाद कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी और कमलनाथ मुख्यमंत्री बने।
चुनाव के दो साल बाद हुआ बड़ा सियासी ड्रामा
दिसंबर 2018 से मार्च 2020 तक कांग्रेस ने सरकार चलाई। इस दौरान कई मौके आए जब पार्टी के नेताओं ने अपनी सरकार पर वादे पूरे करने के लिए दबाव बनाया। 15 महीने पूरे होते-होते कमलनाथ सरकार की सत्ता से विदाई की पटकथा तैयार हो चुकी थी। दो-तीन मार्च की रात अचानक मध्य प्रदेश के कई विधायक गुरुग्राम के एक होटल में जमा हुए। इन विधायकों में सपा विधायक राजेश शुक्ला (बबलू), बसपा के संजीव सिंह कुशवाह और रामबाई, कांग्रेस के ऐंदल सिंह कंसाना, रणवीर जाटव, कमलेश जाटव, रघुराज कंसाना, हरदीप सिंह, बिसाहूलाल सिंह और निर्दलीय सुरेंद्र सिंह शेरा शामिल थे। इसी होटल में भाजपा के नरोत्तम मिश्रा, रामपाल सिंह और अरविंद भदौरिया भी नजर आए।
मामला बिगड़ता देख दिग्विजय सिंह उनके मंत्री बेटे जयवर्धन सिंह, जीतू पटवारी डैमेज कंट्रोल में जुट जाते हैं। पटवारी और जयवर्धन भी उसी होटल में पहुंच जाते हैं जहां, बागी विधायक जमा हुए थे। करीब दो घंटे के ड्रामे के बाद दोनों रामबाई और तीन कांग्रेस विधायक ऐंदल सिंह कंसाना, रणवीर जाटव, कमलेश जाटव को लेकर लौटे। वहीं, रघुराज कंसाना, हरदीप सिंह डंग, बिसाहूलाल सिंह, राजेश शुक्ला, संजीव सिंह कुशवाह और सुरेंद्र सिंह बेंगलुरु पहुंच गए।
दो हफ्ते चला ड्रामा, सिंधिया ने हाथ छोड़ थामा कमल
पांच मार्च 2020 को मध्य प्रदेश के सियासी ड्रामे का केंद्र बंगलूरू हो गया। दो हफ्ते के भीतर यहां बागी विधायकों की संख्या बढ़ते-बढ़ते 22 पहुंच गई। इस बीच 10 मार्च 2020 को कांग्रेस के दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलने दिल्ली आए। इस मुलाकात के बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया। अगले दिन यानी 11 मार्च को सिंधिया ने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की उपस्थिति में भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया।
राज्य में सियासी उठापटक यहीं नहीं रुकी आगे यह मामला देश की सर्वोच्च अदालत पहुंच गया। मध्य प्रदेश में फ्लोर टेस्ट के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 19 मार्च को कोर्ट ने आदेश दिया कि मध्य प्रदेश विधान सभा में फ्लोर टेस्ट 20 मार्च 2020 की शाम 5:00 बजे तक किया जाना चाहिए।
फ्लोर टेस्ट से पहले कमलनाथ ने दिया इस्तीफा
हालांकि, कांग्रेस ने यहीं से अपनी हार मान ली और 20 मार्च को दोपहर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अपना इस्तीफा सौंप दिया। अगले दिन 21 मार्च को दिल्ली में जेपी नड्डा की उपस्थिति में विधायकी से इस्तीफा दे चुके सभी 22 बागी भाजपा में शामिल हो गए। इसके बाद 23 मार्च 2020 को शिवराज सिंह चौहान ने नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली।
सरकार गिरने के बाद भी कांग्रेस में इस्तीफे का दौर नहीं थमा। 23 जुलाई 2020 को पार्टी के अन्य तीन विधायकों ने कांग्रेस को अलविदा कह भाजपा का दामन थाम लिया। इसके अलावा तीन सीटें (जौरा, आगर और ब्यावरा) अपने संबंधित मौजूदा विधायकों के निधन के कारण खाली हो गईं। तीन नवंबर 2020 को सभी 28 खाली सीटों को भरने के लिए उपचुनाव कराया गया। इस उपचुनाव में 28 में से भाजपा को 19 और कांग्रेस को नौ सीटें मिलीं। यहां दिलचस्प था कि कांग्रेस से बगावत करने वाले 25 विधायकों में से 18 नेता भाजपा की टिकट पर दोबारा चुनाव जीत गए जबकि सात को हार का सामना करना पड़ा।
2022 में राष्ट्रपति चुनाव से पहले तीन और विधायकों ने थामा भाजपा का दामन
पिछले साल जून में राष्ट्रपति चुनाव से पहले मध्य प्रदेश में तीन विधायक भाजपा में शामिल हो गए। इनमें बसपा विधायक संजीव सिंह, सपा विधायक बबलू शुक्ला और निर्दलीय विधायक विक्रम राणा ने भाजपा की सदस्यता ले ली। इसे राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी की वोट वैल्यू बढ़ाने के प्रयास के तौर पर देखा गया। हालांकि, संजीव सिंह और बबलू शुक्ला 2020 में हुई बगावत के वक्त भी भाजपा के साथ थे।
राज्य की मौजूदा राजनीतिक स्थिति क्या है?
वर्तमान में मध्यप्रदेश के सियासी समीकरण की बात करें तो 230 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा के 127, कांग्रेस के 96, निर्दलीय चार, दो बसपा और एक समाजवादी पार्टी के विधायक हैं।
इस चुनाव में कौन से मुद्दे हावी होंगे, किसकी तैयारी कैसी है?
2018 में मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजे 11 दिसंबर को आए थे। इस चुनाव में भाजपा के सामने अपना किला बचाने की चुनौती होगी। वहीं, कांग्रेस 2020 में सत्ता से बेदखल होने का कसक दूर करना चाहेगी।
युवाओं की नारजागी दूर करने की कोशिश: राज्य में रोजगार जैसा मुद्दा भाजपा की परेशानी का सबब बन सकता है। यहां पिछले चुनाव के बाद लगभग तीन साल तक भर्तियां आरक्षण के मुद्दे पर अदालतों में रुकती रहीं। इसके कारण राज्य के में आए दिन बेरोजगार धरना-प्रदर्शन करते रहे। हालांकि, दोबारा भर्तियां शुरू करके सरकार युवाओं के गुस्से को शांत करने की कोशिश में है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने एलान किया था कि एक लाख युवाओं को सरकारी नौकरियां दे दी जाएंगी।
आदिवासी और महिला मतदाताओ पर भाजपा की नजर: दूसरी ओर आदिवासी और महिला वोटरों को अपनी ओर लाने की कोशिश भी भाजपा कर रही है। इसी कड़ी में जनजातीय गौरव दिवस के पर प्रदेश सरकार ने पेसा नियम अधिसूचित किए। यह ग्राम सभाओं को वन क्षेत्रों में सभी प्राकृतिक संसाधनों के संबंध में नियमों और विनियमों पर निर्णय लेने का अधिकार देगा।
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