भोपाल। साहित्य और धार्मिक ग्रंथों में की गई सेवा के चलते आप सदियों तक अमर रहेंगे। मानव जीवन का अपने भले ही तन छोड़ दिया हो, लेकिन आपके कर हमेशा आपको याद कराते रहेंगे। तीन दिन पूर्व ही आपको दिल्ली से साहित्य अकादमी सम्मान देने के लिए टीम टीकमगढ़ आई थी। अपना पूरा जीवन साहित्य और धर्म को समर्पित कर दिया था और हजारों वर्ष पूर्व संस्कृत में लिखे गए ग्रंथों को उन्होंने हिंदी में रूपांतरण ही नहीं, बल्कि एक-एक श्लोक का उच्चारण कर आने वाली पीढ़ी को अवगत कराने के लिए कई पुस्तक लिख डाली।
उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में छह नवंबर 1930 को इनका जन्म हुआ था। 1955 में शिक्षक की नौकरी उन्नाव बालाजी में शुरू कर दी। इसके बाद वह 1959 में टीकमगढ़ आ गए, लेकिन इसके पहले ही 1955 में वह पीतांबरा पीठ के स्वामी जी के संपर्क में आ गए। उनके सानिध्य मिलते ही साइंस का स्टूडेंट अब आध्यात्मिकता की ओर मुड़ चुका था। इसके लिए उन्होंने संस्कृत से MA और M.Ed के साथ आचार्य की उपाधि ली, वेदों की पढ़ाई शुरू कर दी। सबसे पहले 1960 में उनकी पहली पुस्तक भाषा में वैज्ञानिक का अध्ययन प्रकाशित हुई। इसके साथ उनका बुंदेली में लेखन चलता रहा। 1990 में नौकरी से सेवानिवृत होने के बाद उनका लेखन जारी रहा। महिला ऋषि का यंत्र हिंदुस्तान में पहली बार प्रकाशित हुई।
भारत में पहली बार वेदों पर मिलने वाला पुरस्कार हिंदी में लिखने पर इन्हें दिया गया। 2014 में यह सम्मान दिया गया था, जिसका नाम था महर्षि अगस्त अलंकरण। इसके बाद 2015 में संस्कृत सम्मान दिया गया और 2016 में भारत सरकार द्वारा संस्कृत का सबसे बड़ा सम्मान स्वामी विष्णु तीर्थ आध्यात्मिक सम्मान से नवाजा गया और वर्ष 2024 में भारत सरकार द्वारा इन्हें हिंदी साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया। इसके साथ ही इन्होंने कई पुस्तकों का लेखन किया और इन्हें सम्मान लगातार मिलते रहे। आज से तीन दिन पहले भारत सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल टीकमगढ़ पहुंचा था, जिसमें उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया। क्योंकि उनकी शारीरिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं थी कि वह लेने के लिए दिल्ली जा सके।
इसके बाद भारत सरकार की टीम द्वारा निर्णय लिया गया कि यह सम्मान उनको घर पर जाकर दिया जाएगा, जिसमें तीन दिन पूर्व टीम टीकमगढ़ पहुंची थी और उन्हें सम्मान दिया था। लेकिन बुधवार की सुबह 10 बजे उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांस ली। टीकमगढ़ के रहने वाले समाजसेवी मनोज चौबे कहते हैं कि निश्चित ही इतिहास के सल पन्नों में हमेशा आचार्य दुर्गा चरण शुक्ला को याद किया जाएगा। क्योंकि उन्होंने संस्कृत में लिखी हुई वेदों का हिंदी में रूपांतरण ही नहीं, बल्कि एक-एक श्लोक का उन्होंने हिंदी और बुंदेली में वर्णन किया है। जो आने वाली पीढ़ी को बहुत कुछ देगा।
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