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    जिस पृथ्वीराज चौहान से थर्राता था मोहम्मद गोरी, बुंदेलखंड की माटी में जन्में इस योद्धा ने उसको भी बना लिया था बंदी, जानें कहानी

  • February 04, 2024

    बुंदेलखंड: इतिहास के झरोखे (windows of history) से झांक कर देखे तो बुंदेलखंड की माटी में ऐसे कई राजाओं और रानियों का जिक्र (mention of kings and queens) है जिनकी वीरता के चर्चे आज भी जुबां पर है. प्राचीन काल के सम्राट अशोक (ancient emperor ashoka) से लेकर मध्य में पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप (Prithviraj Chauhan, Maharana Pratap) और आधुनिक इतिहास में रानी लक्ष्मी बाई जैसे वीर पराक्रमी नायकों का इतिहास में सुनहरे अक्षरों में नाम दर्ज है. बुंदेलखंड की जमीं ऐसे ही दो वीरों की गवाही देती है. ये वीर थे आल्हा और ऊदल. दोनों भाइयों आल्हा और ऊदल का जन्म 12 विक्रमी शताब्दी में बुंदेलखंड के महोबा के दशरजपूरवा गांव हुआ था.

    बचपन से ही शास्त्र ज्ञान और युद्ध कौशल की प्रतिभा दोनो भाइयों में नजर आने लगी थी. इनके ज्ञान और बल को देखते हुए इन्हें युधिष्ठिर और भीम के अवतार के रुप में भी मान्यता दी जाती है. इन दोनों का सम्बंध चंद्रवंशी क्षत्रिय बनाफर वंश से जोड़ा जाता है. आल्हा-ऊदल की गाथा में दोनों को दसराज और दिवला का पुत्र बताया गया हैं. दसराज चंदेल वंश के राजा परमल के सेनापति थे. ऊदल आल्हा से बारह साल छोटे थे. बताया जाता है कि आल्हा के पिता की हत्या के बाद ऊदल का जन्म हुआ था.

    आल्हा बचपन से ही देवी माँ के परम भक्त थे. एक बार उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर माँ ने उन्हें पराक्रम और अमर होने का वरदान दिया. आल्हा और ऊदल की गाथा में इन दोनों भाइयों के स्नेह और एकता के का जिक्र किया गया है. दोनों के बीच इतना प्यार और स्नेह था कि जब भी एक भाई मुसीबत में पड़ता था तो दूसरा भाई उसकी ढाल बनकर खड़ा हो जाता था. बाद में आल्हा भी चंदेल वंश के शासनकाल में सेनापति बने. आल्हा का छोटा भाई ऊदल वीरता के मामले में अपने भाई से एक कदम आगे था । उस दौर के एक कवी जागनिक की एक कविता आल्हा खण्ड में इनकी वीरता की सारे किस्से और उनकी उनकी लड़ी 52 लड़ाइयों का जिक्र किया गया है.

    आल्हा और ऊदल की आखिरी लड़ाई दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान से हुई थी. पृथ्वीराज चौहान भी बहादुर और निडर योद्धा थे. पृथ्वीराज ने बुंदेलखंड को जीतने के उद्देश्य से ग्यारहवीं सदी के बुंदेलखंड के तत्कालीन चंदेल राजा परमर्दिदेव पर चढ़ाई की थी. उस समय चन्देलों की राजधानी महोबा थी. आल्हा-उदल राजा परमाल के मंत्री थे. इतिहास में पता चलता है कि पृथ्वीराज और दोनों भाई आल्हा ऊदल के बीच में बैरागढ़ मे बहुत भयानक युद्ध हुआ. इस युद्ध मे आल्हा का भाई ऊदल मारा गया.

    आल्हा अपने छोटे भाई ऊदल की वीरगति की खबर सुनकर आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े. बताया जाता है कि उस वक्त आल्हा के सामने जो आया मारा गया. लगभग 1 घंटे के भीषण युद्ध के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने सामने आ गए. दोनों में युद्ध हुआ और पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हो गए. आल्हा ने अपने भाई ऊदल की मौत का बदला पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके लिया. हालांकि माना जाता है कि आल्हा ने अपने गुरु गोरखनाथ के कहने पर पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दे दिया था. यह युद्ध आल्हा के जीवन का आखरी युद्ध था. इसके बाद आल्हा ने संन्यास ले लिया और शारदा मां की भक्ति में लीन हो गए.

    राजा परमाल के ऊपर पृथ्वीराज चौहान की सेना ने जब हमला किया तो आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान से युद्ध के लिए बैरागढ़ में ही डेरा डाल लिया था और यहीं माँ शारदा के मंदिर में जाकर उन्होंने पूजा की. माना जाता है कि आल्हा को मां ने साक्षात दर्शन देकर उन्हें युद्ध के लिए सांग दी थी. पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद आल्हा ने मंदिर पर सांग चढ़ाकर उसकी नोक टेढ़ी कर वैराग्य धारण कर लिया था. इस सांग को आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है.

    यहां के लोग बताते है कि आज भी रात 8 बजे मंदिर की आरती के बाद साफ-सफाई होती है और फिर मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं. इसके बावजूद जब सुबह मंदिर को खोला जाता है तो मंदिर में मां की आरती और पूजा किए जाने के सबूत मिलते हैं. आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और ऊदल ही करते हैं. क्योंकि उन्हें अमर होने का वरदान था इसलिए बुंदेलखंड के कुछ लोग आज भी मानते हैं की आल्हा जिंदा हैं.

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