– डॉ. राकेश राणा
आधुनिक समाज में सोशल मीडिया प्रभावी भूमिका के साथ उभर रहा है। लोग ऑडियो, वीडियो, कॉल, संदेश, फोटो, प्रतीक सब जब चाहे क्षण भर में इधर से उधर दुनिया भर में भेज रहे हैं। इसके जरिये कम खर्च, कम समय और कम उर्जा लगाकर पूरी दुनिया को दूहने में लगे हैं। सोशल मीडिया आज के जीवन का जरूरी हिस्सा हो गया है। इसके बिना जीवन चर्या अस्त-व्यस्त-सी लगने लगती है। समाज इसका आदी हो रहा है और अभ्यस्त भी। समाज का हर तबका इस प्लेटफॉर्म पर जोर-शोर से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।
नयी-नयी पहचान के ढेरों क्षेत्र, समाज के सामने इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी ने खोल दिए है। परिणामतः समाज में आत्म पहचान का विस्फोट-सा आ गया है। युवा-पीढ़ी अपनी छवि को लेकर सचेत हो उठी है। सोशल मीडिया का माध्यम उन्हें अपनी इस तृप्ति के नये-नये विकल्प देने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। समाज सोशल मीडिया का इस्तेमाल जीवन-शैली से लेकर अपने आचार-विचार, व्यवहार तथा शक्ति-प्रदर्शन तक करने में जुटा है। व्हाट्सअप ग्रुप्स और फेसबुक पर भारतीय युवा भारी-भरकम तादाद में मौजूद हैं। बहुत कुछ सकारात्मक, अच्छा और सृजनात्मक लिखा भी जा रहा है तो बहुत कुछ ऐसा भी हो रहा है जिसकी कतई जरूरत नहीं। बल्कि नकारात्मक और अनुत्पादक ही कहा जाय तो ठीक रहेगा। फेसबुकिया लेखन में हालांकि धार और आक्रामकता भी है। पर सोशल मीडिया कंटेंट का अधिकांश हिस्सा बताता है कि व्हाट्सअप समूहों में चक्कलस के साथ बेवकूफियां ज्यादा फॉरवर्ड हो रही हैं।
सोशल मीडिया विचार-विमर्श का गंभीर माध्यम है। उसने लुभावनी अवधारणा के रूप में अवतार जरूर लिया है, स्वयं को सोशल मीडिया बताकर। पर उसमें सामाजिकता का अवतरण अभी बाकी है। हां इस नए माध्यम का उपयोग सामाजिक विकास के लिए किया जा सकता है, इसकी पर्याप्त संभावनाएं है। ज्ञान के सृजन, संरक्षण और संवर्द्धन में यह महती भूमिका निभा सकता है। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के निर्माण में भी यह अहम होकर उभर सकता है। परन्तु अभीतक का अनुभव सोशल मीडिया के सभी प्लेटफॉर्म्स पर इसके ठीक उलट दिख रहा है। ज्ञान के बजाए सूचनाएं ही सोशल मीडिया पर सैलाब लाए हुए है। सामाजिक-राजनीतिक चेतना के बजाए तनाव पैदा करने में ज्यादा मशगूल दिख रहा है। अधिकांश सामाजिक समूहों का अनुत्पादक वर्चुअल व्यवहार नजर आ रहा है। हालाकि व्हाट्सअप व्यवहार की सही-सही शिनाख्त कर पाना आसान नहीं है। क्योंकि सोशल मीडिया कंटेंटस में बड़ा हिस्सा बिना सोचे-समझे और अक्सर बिना पढ़े अग्रसारित किया जा रहा है।
हिन्दी पट्टी का युवा-वर्ग प्रतिदिन दो जीबी डाटा खर्च देता है एक मूर्छा जैसी मनोदशा में। स्टीरियो टाइप स्टाइल में अंधाधुंध अपने सांस्कृतिक पिछड़ेपन का प्रदर्शन करता दिख रहा है। निजी भावों और अपने हावभावों की सेल्फी से आगे उनकी अभिव्यक्ति सोशल मीडिया पर नजर नहीं आती है। न ही सोशल मीडिया को लेकर उनमें किसी तरह की गंभीरता दिखती है। इस प्लेटफॉर्म पर अपनी उपस्थिति को ही वे सबकुछ समझ लेने की गलतफहमी में हैं। अधिकांश तो इसका इस्तेमाल करने के मुगालते में अपना इस्तेमाल करा रहे हैं।
अगर व्हाट्सअप या फेसबुक पर लिखने की आजादी है तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप इसकी आड़ में कुछ भी लिखा जाय। इस गाल-बजायी से न समाज का कोई भला हो रहा है न ही सोशल मीडिया का। कुछ भी लिखने से अभिव्यक्ति की शक्ति का विकास नहीं होता है। यह आपके क्षणिक आनन्द अथवा आत्ममुग्ध होने का अवसर भर है। जो शनैः शनैः आपको आत्मश्लाघा का शिकार बना देता है।
सोशल मीडिया का समाज हित में सदुपयोग तब संभव है जब उसपर कोई तार्किक विचार-विमर्श आगे बढ़ रहा हो। अगर यह अनुत्पादक और अकारण होने वाला आदान-प्रदान ही है, तो यह टाइम-पास भर है। यही वजह है कि अभी सोशल मीडिया सिर्फ नए-पन तक ही अपनी परिधि का विस्तार खोज पा रहा है, इससे आगे नहीं बढ़ पा रहा है। जबतक सोशल मीडिया सामाजिक सरोकारों, संघर्षों और समस्याओं को सम्बोधित करने में अपनी शक्ति नहीं दिखायेगा, तबतक सोशल मीडिया सार्थकता के अभाव में सामाजिक बदलाव का माध्यम नहीं बन पायेगा।
सोशल मीडिया एक शक्तिशाली मंच है, इसकी समग्र शक्ति का सदुपयोग इतना आसान नहीं है। किसी माध्यम का राजनीतिक परिपक्वता के साथ उपयोग ही उसका सदुपयोग करा सकता है और उपयोगकर्ता को शक्ति सम्पन्न बना सकता है। अन्यथा सोशल मीडिया पर हर समय ढेरों मानसिक श्रमिक सिर फुटौव्वल कराने में लगे हुए हैं। किसी माध्यम का सर्वांगीण विकास भी राजनीतिक उपयोगों के जरिए ही संभव है। कथा, कहानी, कविता और गपशप सब चलना जरूरी है पर वह अपने समय के सरोकारों और सवालों के संदर्भ में रचा और समझा जाय तभी उसका कोई मायने है।
सोशल मीडिया कंटेंट को गंभीरता से समझने की जरूरत है। नयी सदी की नयी संचार शक्तियों के उपयोग की सही पहचान करने की आवश्यकता है। सोशल मीडिया पर यूजर के वर्चुअल व्यवहार को गहराई से समझने की जरूरत है कि वह किन बातों में संलिप्त है। उसकी रुचियां कैसे बन-बिगड़ रही हैं। अपने समय और उर्जा को किस तरह की अंतःक्रियाओं में खर्च कर रहा है। वह किन बातों और विषयों के संचार के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहा है? ये सभी सवाल गंभीर अनुसंधान चाहते हैं।
सोशल मडिया का नया समाजशास्त्र गढ़ना होगा। व्यक्ति-केन्द्रित उपयोग से आगे बढ़कर इसे सामूहिक कल्याण का माध्यम बनाना होगा। सोशल मीडिया यूजर्स को अपनी सामाजिक भूमिका का भान करना होगा। लाइक, शेयर, कमेंट, रिप्लाई, फोटो और नयी-नयी तस्वीरें तथा दूसरों के रेस्पॉन्स और सेल्फी के क्षणिक स्वाद से आगे बढ़कर संवाद की संस्कृति का आधार तैयार करना होगा। सोशल मीडिया का सामाजिक चरित्र सबकी भागीदारी और सामाजिक जिम्मेदारी से ही निर्मित होगा। तभी स्वयं को सोशल कहलाने का यह सच्चा हकदार भी बन पायेगा। इसी में इस माध्यम का भी कल्याण छिपा है और समाज का भी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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