नई दिल्ली। भारतीय वैज्ञानिक (Indian scientists) माइक्रोप्लास्टिक (destroy microplastics) को नष्ट करने का रास्ता खोजेंगे। केंद्र सरकार (central government) के बायोटेक्नोलॉजी विभाग (डीबीटी) (Department of Biotechnology (DBT)) ने देश के अलग-अलग अनुसंधान केंद्रों के साथ मिलकर अध्ययन की योजना बनाई है। इसके लिए निजी अनुसंधान केंद्र और कंपनियों को भी जुड़ने का न्योता दिया गया है।
डीबीटी के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने बताया कि जैविक प्रक्रियाओं के जरिए माइक्रोप्लास्टिक की समस्या से भारत सहित पूरी दुनिया को छुटकारा दिलाया जा सकता है। प्लास्टिक की तरह उसके छोटे टुकड़े भी वर्षों तक नष्ट नहीं होते हैं। इस योजना पर काफी समय से काम चल रहा है। हाल ही में इस प्रोजेक्ट का समय भी बढ़ाया गया। इससे अधिक से अधिक शोधार्थियों के साथ अध्ययन आगे बढ़ाया जा सकेगा।
जानकारी के अनुसार महाराष्ट्र और कर्नाटक के खेतों में माइक्रोप्लास्टिक पाया गया है। महाराष्ट्र के बड़गांव में मिट्टी के अंदर 15 सेंटीमीटर तक माइक्रोप्लास्टिक अधिक मात्रा में मिला है। वहीं कर्नाटक के खानपुर गांव में जमीन के अंदर 30 सेंटीमीटर तक प्रति एक किलोग्राम मिट्टी में आठ टुकड़ों की दर से माइक्रोप्लास्टिक कण मिले हैं।
वरिष्ठ वैज्ञानिक ने बताया कि ऑस्ट्रेलिया के रॉयल मेलबर्न इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी विश्वविद्यालय और चीन के हेनान विश्वविद्यालय ने संयुक्त रूप से अध्ययन किया है। इसमें बताया गया है, माइक्रोप्लास्टिक और उसके साथ घातक रसायन समुद्र में मौजूद मछलियों तक पहुंचते हैं और उनके आहार बनते हैं। ये उन्हें काफी नुकसान पहुंचाते हैं। यहां तक मछलियां मर भी जाती हैं।
क्या है माइक्रोप्लास्टिक
माइक्रोप्लास्टिक, प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़े होते हैं। ये बीते कुछ वर्षों में भारत सहित पूरी दुनिया के लिए नए संकट के रूप में सामने आए हैं। प्लास्टिक के अलावा ये कपड़ों और अन्य वस्तुओं के माइक्रोफाइबर के टूटने पर भी बनते हैं। इनका आकार एक माइक्रोमीटर से पांच मिलीमीटर तक होता है। सामान्य तौर पर कहें तो ये एक तरह से तिल के बीज के लगभग बराबर होते हैं।
…तो समुद्र में मछलियों से ज्यादा होगा प्लास्टिक
एलन मैकआर्थर फाउंडेशन की रिपोर्ट बताती है कि प्लास्टिक को लेकर वैश्विक स्तर पर अगर तुरंत कुछ नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक होगा।
स्वीडन की उप्साला विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के अनुसार प्लास्टिक खाने से मछलियों की वृद्धि होती है और वे जल्दी मरने लगती हैं। कुछ मछलियों को इन्हें खाने की लत लग जाती है।
एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि दुनिया भर में लोग हर साल 39 से 52 हजार माइक्रोप्लास्टिक के कणों को निगल जाते हैं।
मांस के सेवन से माइक्रोप्लास्टिक इंसानों तक पहुंचता है। उनके दिल व फेफड़ों से जुड़ी गंभीर बीमारियों का कारण बनता है।
अलग-अलग अनुसंधान केंद्रों के साथ मिलकर अध्ययन शुरू
– 94 लाख प्लास्टिक कचरा निकलता है भारत में प्रति वर्ष
– 40 फीसदी प्लास्टिक कचरा इकट्ठा ही नहीं हो पाता भारत में
…तो होगा बड़ा बदलाव
इस समस्या के समाधान के लिए सिंगल यूज प्लास्टिक को बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन जागरूकता की कमी के साथ माइक्रोप्लास्टिक कचरे पर अभी तक सही शोध भी नहीं हुआ है। ऐसे में अगर वैज्ञानिक इस खोज में सफल होते हैं तो पर्यावरण के लिहाज से एक बड़ा बदलाव लाया जा सकता है।
चिंताः टूथपेस्ट और स्क्रब में भी
डीबीटी के अनुसार हमें रोजाना माइक्रोप्लास्टिक दिखाई देता है, पर हमें उसके बारे में पता नहीं होता। टूथपेस्ट और फेस स्क्रब में उपयुक्त माइक्रोबायड्स नामक कॉस्मेटिक में माइक्रोप्लास्टिक होता है। नायलॉन, पॉलिएस्टर, रेयान आदि कपड़ों को जब धोते हैं, तो वाशिंग मशीन में ये रेशे छोड़ते हैं। यही रेशे पानी में बह जाते हैं और बाद में सूक्ष्म कणों में टूटकर माइक्रोप्लास्टिक के कण बनते हैं।
कर्नाटक, महाराष्ट्र के सभी सैंपल में मिला
कर्नाटक और महाराष्ट्र के गांवों से लिए मिट्टी के सैंपल में माइक्रोप्लास्टिक कणों की पुष्टि हुई। कण प्लास्टिक मल्च शीट से जुड़े थे। इस तरह के प्लास्टिक का खेती में बड़े पैमाने पर उपयोग हो रहा है। महाराष्ट्र के सैंपल में प्रति किलोग्राम मिट्टी में 87.57 टुकड़े माइक्रोप्लास्टिक युक्त मिले हैं।
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