– गिरीश्वर मिश्र
आयुर्वेद के अनुसार यदि आत्मा, मन और इंद्रियां प्रसन्न रहें तो आदमी को स्वस्थ कहते हैं । ऐसा स्वस्थ आदमी ही सक्रिय हो कर उत्पादक कार्यों को पूरा करते हुए न केवल अपने लक्ष्यों की पूर्ति कर पाता है बल्कि समाज और देश की उन्नति में योगदान भी कर पाता है । निश्चय ही यह एक आदर्श स्थिति होती है परंतु यह स्थिति किसी भी तरह निरपेक्ष नहीं कही जा सकती। जीवन का आरम्भ और जीने की पूरी प्रक्रिया परिस्थितियों के बीच उन्हीं के विभिन्न अवयवों से बनते-बिगड़ते एक गतिशील परिवेश के बीच आयोजित होती है । उदाहरण के लिए देखें तो पाएंगे सांस लेना भी परिवेश से मिलने वाले आक्सीजन पर निर्भर करता है जो नितांत स्वाभाविक और प्राकृतिक लगता है पर प्रदूषण होने पर या फेफड़े में संक्रमण हो तो मुश्किल हो जाती है । कोविड महामारी में यह सबने बखूबी देखा और पाया था ।
वस्तुतः हमारा परिवेश भौतिक, सामाजिक और मानसिक हर स्तर पर सक्रिय होता है और ये सभी एक दूसरे से सघनता से गुंथे होते हैं । इन परिवेशों को भी आदमी अपने हस्तक्षेप से रचता-गढ़ता रहता है। मनुष्य की अब तक की संस्कृति-यात्रा इसका ज्वलंत प्रमाण प्रस्तुत करती है। वस्त्र,आवास,आहार, अलंकरण और तमाम सामाजिक संस्थाएं इत्यादि-सभी कुछ मनुष्य रचता रहा है और अपनी इन रचनाओं के सम्पर्क में आकर खुद भी बदलता रहा है। इस तरह स्वयं और परिवेश पर दुतरफा प्रभाव डालने वाली अंत: प्रक्रिया विभिन्न स्तरों पर अनवरत चलती चली आ रही है । मनुष्य निजी और सामाजिक स्मृति धारण करता है जिससे सब कुछ संचित होता हुआ आगे के लिए भी उपलब्ध रहता है । इस सब के बीच हम अपने अल्पकालिक ( जैसे -क्षणिक और दैनिक )और दीर्घकालिक लक्ष्य और उपक्रम चलाते रहते हैं । मनुष्य के रूप में हमारा शरीर नित्य क्षण-क्षण की योजना के साथ निरंतर कार्य करता है । हमारा पाचन तंत्र , श्वसन तंत्र , ज्ञान और कर्म की इंद्रियां , हृदय, मस्तिष्क आदि सभी निरंतर कार्यरत रहते हैं और हमें इसका पता भी चलता रहता है कि उनकी गतिविधि किस तरह की है। इनको लेकर हम खासतौर पर तब सचेत हो जाते हैं जब इनमें कोई विशेष उतार-चढ़ाव मालूम पड़ता होता है ।
जब इनके बीच संतुलन बना रहता है तो जीवन की गति और लय हमारे अनुकूल रहती है और हम अपने को स्वस्थ कहते हैं पर जब यही लय रुकने-टूटने लगती है तो हम अस्वस्थ महसूस करते हैं जीवन व्यापार में व्यवधान आने लगता है । थोड़ी गहराई और ब्योरे में जाएं तो पता चलेगा कि इन व्यवधानों के मूल में मुख्यतः भौतिक, शारीरिक और मानसिक परिस्थितियां होती हैं । हम अपने साथ इच्छाओं , आशाओं , प्रेरणाओं , रुचियों, मनोवृत्तियों, क्षमताओं का भंडार भी रखते हैं जो घटता बढ़ता रहता है । ये स्वतंत्र तो होते हैं परंतु इनका साबका भौतिक और शारीरिक दुनिया से भी रहता है । इसलिए शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बीच दीवार खींचना बेमानी है। बहुतेरे शारीरिक रोग मानसिक कारण से और मानसिक रोग शारीरिक कारण से पैदा होते हैं । इसलिए ‘मानसिक’ और ‘शारीरिक’ के बीच भेद करना एक स्तर के बाद व्यर्थ हो जाता है । सत्य यही है कि दोनों एकीकृत और संघटित हो कर संयुक्त रूप से कार्य करते हैं । मन शरीर को और शरीर मन को निरंतर प्रभावित करता रहता है। प्रसिद्ध कहावत ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा‘ यही भाव व्यक्त करती है कि स्वस्थ और प्रसन्न मन हो तो सब कुछ अच्छा लगता है। दूसरी ओर शरीर को सभी कार्यों का साधन भी कहा गया है : ‘शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम् । इसलिए शरीर और मन को परस्परनिर्भर मानना ही उचित है और दोनों की समुचित सेवा-सुश्रूषा होनी चाहिए ।
हमारी मनोवृत्तियां अपरिमित होती हैं और मन में संकल्प-विकल्प के ज़रिए कोई भी विचार प्रबल या दुर्बल हो सकता है । चूंकि इनके स्रोत बाह्य जगत या स्मृति कहीं भी हो सकते हैं इसलिए ये निर्बंध होते हैं। इन चित्तवृत्तियों को यदि बेलगाम छोड़ दें तो वे कुछ भी कर सकती हैं। स्मृति और कल्पना के योग से विचारों और भावनाओं का ताना-बाना बुना जाता रहता है जो आदमी को उलझाने के लिए काफ़ी होता है । व्यक्ति का उन्नयन और अधःपतन कुछ भी हो सकता है । इनको नियमित करना ही योग है और पूरा योग शास्त्र इसी के उपाय में संलग्न है । स्वास्थ्य के लिए युक्ताहार विहार बड़ा आवश्यक है। अतः नियमित व्यायाम , संतुलित आहार और पर्याप्त नींद को सामान्य जीवन का अंग बनाना जहां आवश्यक है वहीं स्वास्थ्य के लिए नुक़सानदेह व्यवहारों जैसे तम्बाकू सेवन और मद्यपान से बचना भी ज़रूरी है । रोगों के लिए अपने में प्रतिरोध की क्षमता बनाए रखने के लिए तैयारी होनी भी आवश्यक है । आज जिस तरह की परिस्थितियां बन रही हैं सजगता के साथ निगरानी, जांच पड़ताल और देखरेख भी आवश्यक है होती है कि कोई रोग तो विकसित नहीं हो रहा है।
आज के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का सत्य चिंताजनक दिशा का संकेत दे रहा है। यथार्थ को रचती आज की मीडिया चाहतों, जरूरतों और आवश्यकताओं के बीच अंतर को धूमिल करती जा रही है। उसके प्रभाव में आदमी यह विवेक खोता जा रहा है कि क्या करणीय है और क्या वरणीय है। आवश्यकताओं की सूची निरंतर बढ़ती जा रही है और बाजार इसी में अपनी सफलता मानती है । नई-नई प्रौद्योगिकी के हस्तक्षेप के चलते ये सवाल और जटिल होते जा रहे हैं । कुंठा, चिंता , अवसाद , तनाव और अकेलापन के साथ अनेक मानसिक रोग व्याप्त होते जा रहे हैं । आज व्यक्ति केंद्रित जीवन में जीवन के लक्ष्यों का प्रश्न नए ढंग से देखे जाने लगे हैं। इनके फलस्वरूप वास्तविकता के स्तर पर प्रतिस्पर्धा और हिंसा का दायरा बढ़ता जा रहा है । साथ में भौतिक जगत को ही सत्य की सीमा मान कर उपभोग पर अतिरिक्त बल देती आज की जीवन-शैली धरती की धारण क्षमताओं की सीमा को चुनौती दे रही है जिनको अनसुना करना जीवन और मानवतावादी के प्रति अपराध सा है । व्यक्ति और सामाजिक जीवन के स्तर पर स्वास्थ्य की रक्षा और उसके विपरीत रोग से बचाव तथा उसे दूर करना स्वाभाविक लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है। आज संतुलित दृष्टि के साथ जीवन के लिए सार्थक पहल की जरूरत है । इसके लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों को मिल कर पहल करनी होगी ताकि मानसिक स्वास्थ्य की सुविधाओं को जन- जन तक पहुंचाया जा सके ।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved