– ऋतुपर्ण दवे
निश्चित रूप से विधानसभा चुनाव के नतीजों से अगर सबसे ज्यादा किसी में उत्साह होगा तो वह है भाजपा। उसमें भी मध्य प्रदेश के नतीजों ने तो जैसे भाजपा के उत्साह में सुनामी ला दी। बहरहाल यह मोदी मैजिक ही है जिसने हिन्दी पट्टी वाले राज्यों में विपक्ष या कहें कि नवगठित इंडिया गठबंधन के सपने धराशायी कर दिए। माना कि मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना योजना ने कमल के लिए कमाल का काम किया, लेकिन छत्तीसगढ़ में आखिर ऐसा क्या हुआ जो गाय, गोबर, गोठान, महतारी योजना, आत्मानन्द स्कूलों के बाद भी नतीजे एकदम उम्मीद से इतर आए? जबकि राजस्थान में जादूगर अशोक गहलोत का चलते दिख रहे जादू पर भाजपा का जादू भारी पड़ गया। तेलंगाना में जरूर कांग्रेस को झोली में उम्मीद से ज्यादा हासिल मिला। शायद भारत की यही विविधता है।
विश्लेषण के लिहाज से इन नतीजों के मायने काफी गहरे हैं। इन्हें 2024 के आम चुनाव से जोड़ा जाएगा। चारों नतीजों में सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश की ही चर्चा होगी जिसे संघ की प्रयोगशाला भी कहा जाता है। जहां बढ़े मतदान के बाद तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे थे। चुनावी घोषणा और चुनावों के दौरान जिस तरह से एन्टी इनकम्बेंसी की बात फैली उसको लेकर उत्साही कांग्रेसियों के बाग-बाग चेहरे देखकर ऐसे नतीजों की उम्मीद तो हरगिज नहीं थी। लेकिन एक सच्चाई है जिसे स्वीकारना होगा कि मध्य प्रदेश में जिस शिवराज सिंह को लेकर शुरुआत में एक तरह से ऊहापोह की स्थिति बनी और कई तरह के संदेश फैलाए गए, उसे शिवराज ने अपने जादू से ऐसा धोया कि आज वो एक बार फिर अजेय बनकर भाजपा के सबसे अहम चेहरा बन गए। समूचे मध्य प्रदेश में अपराधियों खासकर महिलाओं, आदिवासियों और दलितों के उत्पीड़न करने वालों को तुरंत सजा देने का बुलडोजर वाला तरीका भी लोगों को खूब भाया। प्रदेश में मामा बनकर उन्होंने आम और खास सभी से जो कनेक्ट किया उसका नतीजा आज सामने है।
बेशक लाड़ली बहना योजना ने मध्य प्रदेश में एक अंडर करंट पैदा किया जिसे समूचा विपक्ष भी नहीं समझ पाया। अस्तित्व में आने के बाद से प्रदेश के अब तक के सारे के सारे मुख्यमंत्रियों से अलग उनकी मेहनतकश छवि और हर दौरे ने उन्हें मजबूत किया जिसे कोई भांप नहीं पाया। यह भी सही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता मध्य प्रदेश में भाजपा के लिए बड़ा टॉनिक साबित हुई। लेकिन इस बात को स्वीकारना ही पड़ेगा यदि मोदी मध्य प्रदेश के इस चुनाव में भाजपा के लिए खरा सोना रहे तो शिवराज सुहागा से कम नहीं रहे।
निश्चित रूप से भाजपा छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की आपसी कलह और संगठन में बिखराव व दुराव का भरपूर फायदा ले गई और नतीजे अप्रत्याशित आए। इसके साथ ही सांसदों और केन्द्रीय मंत्रियों को उतारने से भाजपा ने एक तीर से कई निशाने भी साधे। मध्य प्रदेश के नतीजों के बाद शिवराज सिंह का वह बयान बार-बार याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि टाइगर अभी जिंदा है। लेकिन सच तो ये है कि टाइगर बहुत फुर्तीला है। कहने की जरूरत नहीं कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह फिर मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में सम्मानजनक स्थिति के बाद फैसला केन्द्रीय नेतृत्व के हाथों होगा। कमोबेश यही स्थिति राजस्थान में होगी। वहां वसुन्धरा या कोई और का सवाल अभी कई दिनों तक रहेगा। एक अकेले तेलंगाना में कांग्रेस को मुख्यमंत्री तय करने में कैसी चुनौती आएगी नहीं पता लेकिन इतना तो है कि गिरे मनोबल से वहां इस बार पुरानी चूक नहीं दोहराई जाएगी।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने भी सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने के लिए कोशिश नहीं कीं। परन्तु सच्चाई यही है कि कांग्रेस संगठनात्मक तौर पर भाजपा के मुकाबले 19 नहीं बल्कि 8-10 ही रह गई है। बरसों पुराने कार्यकर्ता, नई टीम का अभाव, लोगों से जुड़ाव पर ध्यान नहीं देना, हर गांव, शहर के छोटे से छोटे कार्यकर्ता का भोपाल कनेक्ट दिखाना और प्रदेश के कई नेताओं के अनजान कस्बों में लगे होर्डिंग से कांग्रेस वैसा कनेक्ट नहीं कर पाई जो स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता नगर, वार्ड, बूथ और पन्ना प्रमुख कर सके। बस यही वह तमाम कारण थे जिस कारण कांग्रेस जनता से कनेक्ट नहीं कर पाई। उल्टा सरकार विरोधी लहर के जुमले के सहारे मनगढ़ंत और झूठे सपने देख बड़े-बड़े ख्वाब देखना तथा प्रदेश चुनाव संचालन को दिल्ली की टीम के हवाले करना भी कांग्रेस को इतना महंगा पड़ गया कि 2018 के आंकड़ों से भी पिछड़ गई और भाजपा 2003 जैसे सम्मानजनक स्थिति में पहुंच गई। लेकिन एक बात तो है कि हिन्दी पट्टी वाले राज्य जहां भाजपा पर भरोसा जताते हैं तो दक्षिण कांग्रेस व अन्य पर। ऐसे में देश में उत्तर-दक्षिण की नई बात जरूर होगी।
फिलहाल इंडिया गठबंधन की 6 दिसंबर की बैठक पर निगाहें हैं। बहरहाल अभी इस गठबंधन का बिखराव का नतीजा सामने है। आगे बहुत कुछ और दिखेगा। किन-किन राज्यों में सपा, बसपा और आम आदमी पार्टी ने किस-किस को कितना नुकसान पहुंचाया और किसकी जीत-हार का अंतर कम किया। किसको जीतने से रोका तथा किसने अनजाने या जानबूझकर भाजपा-कांग्रेस को जीत या हार दिलाई जैसी चर्चाएं और डिबेट आगे बहुत दिखेंगे। बहरहाल अभी तो भाजपा ही सिवाय तेलंगाना के अजेय दिखती है और हिन्दी पट्टी में ऐसी जीत के बहुत बड़े मायने हैं।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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