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    सियासी तापमान बढ़ा रहा मायावती का ब्राह्मण राग

  • July 20, 2021

    – सियाराम पांडेय ‘शांत’

    उत्तर प्रदेश में चुनाव भले अगले साल होने हैं लेकिन उसकी तैयारियां अभी से आरंभ हो गई हैं। भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस अपने-अपने स्तर पर अभी से चुनावी शतरंज की बिसात पर गोटियां फिट करने लगी हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में इस बार असदुद्दीन ओवैसी अगर ओमप्रकाश राजभर के साथ मिलकर ताल ठोक रहे हैं तो आम आदमी पार्टी भी उत्तर प्रदेश में सिक्का जमाने की भरपूर कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया काशी दौर के बाद जहां भाजपा का चुनावी एजेंडा लगभग सेट हो गया है कि वह विकास के मुद्दे पर ही चुनाव मैदान में उतरेगी, वहीं यह भी सुसपष्ट हो गया है कि भाजपा का उत्तर प्रदेश में चुनावी चेहरा योगी आदित्यनाथ ही होंगे।

    संघ परिवार की चित्रकूट में हुई बैठक और संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले और अरुण कुमार द्वारा सरकार के कामकाज की समीक्षा जैसी खबरें यह बताती हैं कि भाजपा और संघ परिवार 2022 के चुनावी समर में चूक की जरा भी गुंजाइश छोड़ने के मूड में नहीं है। केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार क्रम में जिस तरह भाजपा ने ब्राह्मणों, अति पिछड़ों और अति दलितों को साधने का प्रयास किया है। भूपेंद्र यादव को मंत्री बनाकर यादवों पर डोरे डालने की कोशिश की है, उसे देखते हुए विपक्ष को अपनी रणनीति पर विचार करना पड़ रहा है।

    भाजपा और विपक्ष को यह पता है कि इसबार भी सत्ता की चाभी ब्राह्मणों के ही हाथ में रहेगी। बसपा प्रमुख मायावती ने अगर 23 जुलाई से उत्तर प्रदेश के सभी 18 मंडलों में ब्राह्मण सम्मेलन की मुनादी की है तो उसकी यह भी एक वजह है। बसपा को इस बात की बेहतर जानकारी है कि इन 18 में से 12 मंडलों की लोकसभा सीटें ब्राह्मण बहुल हैं। इसलिए भी सभी दलों की नजर ब्राह्मणों को रिझाने की है। बसपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में वर्ष 2007 की पुनरावृत्ति चाहती है। बसपा ने 2007 में यूपी के चुनाव में 403 में से 206 सीटें जीती थीं और कुल 30 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। उस साल बसपा से 41 ब्राह्मण विधायक चुने गए थे।

    बसपा प्रमुख मायावती ने कहा है कि भाजपा को अपना मत देकर ब्राह्मण समाज पछता रहा है, इसबार वह बसपा का साथ देगा। बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्र पर ब्राह्मणों को एकजुट करने का दायित्व सौंपा गया है। ब्राह्मण सम्मेलन का शुभारंभ भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या से होना है। इसका मतलब अयोध्या एकबार फिर विधानसभा चुनाव के नाभिमूल में रहने वाली है।

    कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा लखनऊ में हैं जरूर लेकिन महात्मा गांधी की प्रतिमा पर माल्यार्पण और डॉ. भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा की उपेक्षा को लेकर वे सुर्खियों में हैं। अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों में इस बात को लेकर बेहद आक्रोश है। कांग्रेस पर डॉ. भीमराव आंबेडकर की उपेक्षा के आरोप लगने लगे हैं। आंबेडकर दलितों के लिए किसी भगवान से कम नहीं हैं।

    यह सच है कि कभी ब्राह्मण और दलित कांग्रेस के साथ हुआ करते थे। इनके और न उनके ठौर वाले उस समय के हालात थे। कांग्रेस के दौर में आजादी के बाद छह मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायणदत्त तिवारी यूपी के मुख्यमंत्री बनाए गए। नारायणदत्त तिवारी तो तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन मंडल-कमंडल आंदोलन के बाद 1989 से आजतक एक भी ब्राह्मण नेता उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बन सका।

    कभी बसपा ने नारा दिया था कि ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा। इससे ब्राह्मण समाज का मायावती और उनके दल को समर्थन मिला भी लेकिन मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में ब्राह्मण मंत्रियों को जिस कदर अपमानित करके निकाला गया था, एससी/एसटी एक्ट का सर्वाधिक कहर ब्राह्मण समाज को ही झेलना पड़ा था। उस पीड़ा से उत्तर प्रदेश का विप्र समाज अभीतक उबर नहीं पाया है। यही मायावती हैं, जिनकी जीभ ब्राह्मणों को मनुवादी, दलित विरोधी बताते हुए कभी सटती नहीं थी। उन्होंने तो विप्रों को अपमानित करने वाला नारा ही दे रखा था- ‘तिलक, तारजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।’

    मायावती के अपमानजनक व्यवहार को विप्र समाज भूला नहीं है। बसपा बहुत पहले जातीय सम्मेलन और भाईचारा रैलियां किया करती थी, लेकिन 2009 में मायावती ने खुद भाईचारा समितियां भंग कर दी थीं। जिस तरह उत्तर प्रदेश में मायावती का जनाधार घट रहा है। उनके परंपरागत मतदाताओं में भी हाल के चुनावों और खासकर उनके कार्यकाल में विपक्ष ने जिस तरह का संदेश दिया कि मायावती दलित की नहीं, दौलत की बेटी हैं, इससे उनकी छवि पर विपरीत असर पड़ा है। मायावती को पता है कि वे अपने खुद के बूते चुनाव जीत पाने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए उनकी नजर अन्य राजनीतिक दलों पर है।

    मायावती को लगने लगा है कि यूपी में ब्राह्मणों का अगर उन्हें साथ मिल गया तो उत्तर प्रदेश में अपना वजूद बनाने में उन्हें बहुत हद तक मदद मिल जाएगी। इसलिए बसपा अपने ब्राह्मण सम्मेलन को 2007 के चुनावी अभियान की तरह ही आयोजित करना चाहती है। लखनऊ में पूरे प्रदेश से 200 से ज्यादा ब्राह्मण नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ मंथन कर मायावती दलित-ब्राह्मण-ओबीसी एकता को परवान चढ़ाना चाहती हैं।

    ब्राह्मणों को साधना तो अखिलेश भी चाहते हैं। ब्राह्मण सम्मेलन तो उन्होंने भी आरंभ किया था। उनकी पार्टी ने हर जिले में महर्षि परशुराम की प्रतिमा लगाने की घोषणा भी कर रखी है। वह परशुराम जयंती के भी आयोजन करती है लेकिन ब्राह्मणों की मूलभूत जरूरतों को कोई समझ नहीं पा रहा है। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में 31 प्रतिशत ब्राह्मणों ने वोट किया था जबकि 2014 में उसके पक्ष में सिर्फ 11 प्रतिशत ने। वर्ष 2009 में भाजपा को 53 प्रतिशत ब्राह्मणों का समर्थन मिला था जबकि 2014 में 72 प्रतिशत ब्राह्मण मतदाताओं ने भाजपा का साथ दिया। बसपा को वर्ष 2009 में 9 प्रतिशत वोट मिले थे 2014 में ब्राह्मण मतदाताओं की उसके पक्ष में संख्या घटकर केवल पांच प्रतिशत रह गई थी।समाजवादी पार्टी को 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में पांच-पांच प्रतिशत ही ब्राह्मण मत प्राप्त हो सके थे। बलरामपुर, बस्ती, संत कबीर नगर, महाराजगंज, गोरखपुर, देवरिया, जौनपुर, अमेठी, वाराणसी, चंदौली, कानपुर और प्रयागराज में विप्र मतदाताओं का प्रतिशत 15 से भी अधिक है।

    वैसे पूरी यूपी में 10 प्रतिशत ब्राह्मण मत होने का राजनीतिक दलों का दावा है। ब्राह्मणों को लुभाने के लिए वर्ष 2018 में राहुल गांधी ने अपने कुर्ते के ऊपर जनेऊ धारण कर लिया था। इससे राजनीति में विप्रों की अहमियत का पता चलता है। वर्ष 1984 में जहां लोकसभा 19.91 ब्राह्मण सांसद थे लेकिन 2014 में 8.27 प्रशित ब्राह्मण सांसद ही रह गए थे। वर्ष 1995 के गेस्ट हाउस कांडके बाद सपा-बसपा की तनातनी का लाभ ब्राह्मण वोट बैंक को हुआ जो कांग्रेस के राजनीतिक पराभव के बाद भाजपा में अपने लिए संभावनाएं तलाश रहा था लेकिन भाजपा में उन दिनों ठाकुर-बनिया की राजनीति हावी थी और लगातार विपक्ष में रहना या तीसरे नंबर की पार्टी के साथ रहना ब्राह्मणों के सवभाव में नहीं था। इस नाते 2007 के विधानसभा चुनाव में यूपी में केवल 17 प्रतिशत ब्राह्मणों ने ही मायावती को वोट दिया था और इसमें से भी अधिकतर वोट बसपा को वहां मिले थे जहां उसने ब्राह्मण उम्मीदवार खड़ा किया था। बसपा के टिकट पर 1993 में एक भी ब्राह्मण विधायक नहीं चुना गया। यह और बात है कि वर्ष 1996 में 2, वर्ष 2002 चुनाव में 4, वर्ष 2007 में 41 और वर्ष 2012 में 10 ब्राह्मण बसपा के टिकट पर चुनाव जीते। 2017 में भी बसपा ने 66 ब्राह्मणों को टिकट दिया था लेकिन उनमें से एक भी विजयश्री का वरण न कर सका।

    इसके विपरीत वर्ष 1993 में 17, वर्ष 1996 में 14, वर्ष 2002 में 8, वर्ष 2007 में 3 और वर्ष 2012 में 6 ब्राह्मण प्रत्याशी चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। 2017 में भी 17 प्रतिशत से ज्यादा ब्राह्मण प्रत्याशी भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतकर विधायक बने जबकि सपा से 1993 में 2 विधायक, 1996 में 3, 2002 में 10, 2007 में 11 और 2012 में 21 ब्राह्मण विधायक चुने गए थे। 2017 में भी सपा ने 10 प्रतिशत ब्राह्मणों को टिकट दिया था। इसके विपरीत कांग्रेस से वर्ष 1993 में 5, वर्ष 1996 में 4, वर्ष 2002 में 1, वर्ष 2007 में 2 और वर्ष 2012 में 3 ब्राह्मण विधायक जीते थे। वर्ष 2017 में कांग्रेस ने 15 प्रतिशत ब्राह्मण उम्मीदवारों को कांग्रेस ने टिकट दिया था।

    इससे पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों का महत्व क्या है? यूं तो ब्राह्मण सभी दल में हैं लेकिन ब्राह्मण अपने समाज ही नहीं, अन्य जातियों को प्रभावित करने की अपनी बौद्धिक क्षमता की बदौलत ही सभी राजनीतिक दलों के आकर्षण के केंद्र में है। मायावती का ब्राह्मण सम्मेलन विप्र समुदाय को कितना रिझा पाएगा, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उसने भाजपा, कांग्रेस और सपा की पेशानियों पर बल जरूर ला दिया है। योगी मंत्रिमंडल के संभावित विस्तार में इसकी काट या उताजोग दिख भी सकती है। रामायण में भी कहा गया है कि तप बल विप्र सदा बरियारा लेकिन वर्ष 2022 के चुनाव में भी उनके वर्चस्व को कमतर आंकने की भूल करने की जुर्रत कोई भी दल करेगा, इसके फिलहाल संकेत दिख नहीं रहे हैं।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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