– आर.के. सिन्हा
टोक्यो ओलंपिक खेलों में भारतीय खेमे से पूर्वोत्तर राज्य की महिलाओं के अभूतपूर्व प्रदर्शन की गूंज को सारा देश गर्व से देख-सुन रहा है। वेटलिफ्टिंग में मीराबाई चानू के शानदार प्रदर्शन से खेलों के पहले ही दिन भारत की बोहनी भी हो गई थी। उन्होंने देश की झोली में सिल्वर मेडल डाला। भारत को दूसरा पदक मिलना भी तय हो गया है। असम से संबंध रखने वाली भारतीय महिला मुक्केबाज लवलीना बोरेहेन ने 64 किलो ग्राम भारवर्ग में एक पदक पक्का कर लिया है। उसके मुक्कों की बौछार के आगे क्वार्टर फाइनल में चीनी ताइपे की खिलाड़ी ह्यूलियन ने हाथ खड़े कर दिए। अगर लवलीना बोरेहेन अगले दो मुकाबले जीत जाती हैं तो भारत को गोल्ड भी मिल सकता है। पहले राउंड के ब्रेक के बाद लवलीना जब अपने कोच के पास गईं तो कोच ने कहा- “पूरा भारत तुम्हें देख रहा है। तुम इतिहास बनाने जा रही हो।” यह सुनते ही वह पुनः अपनी विरोधी खिलाड़ी पर टूट पड़ी।
यह ठीक है कि ओलंपिक प्री क्वार्टर फाइनल में हार के कारण मैरी कॉम देश को कोई पदक नहीं दिलवा पाईं। पर उनसे देश को कोई शिकायत नहीं है। उन्हें रेफरी के गलत फैसले का नुकसान झेलना पड़ा। मैरी कॉम बहुत कसकर लड़ीं। आखिरी राउंड देखकर ऐसा लग रहा था कि रेफरी मैरी कॉम को विजयी घोषित करेंगे। उनकी प्रतिद्वंदी ने मेरी कॉम का हाथ ऊँचा कर अपनी हार मान भी ली थी। लेकिन, रेफरी के निर्णय से वह छोटे से अंतर से हार गईं। आप मैरी कॉम को दादा ध्यानचंद या सचिन तेंदुलकर के कद का खिलाड़ी ही मान सकते हैं। वह छह बार विश्व चैंपियन रहीं और एकबार भारत को ओलंपिक पदक भी जितवा चुकी हैं। इन उपलब्धियों पर मैरी कॉम जितना चाहे फख्र कर सकती हैं। वे अत्यंत विनम्र विधुषी हैं। मेरी कॉम और सचिन तेंदुलकर दोनों ही राज्य सभा में मेरे साथी रहे हैं और दोनों मेरे पास अक्सर आते भी रहते थे।
बेशक, इन तीनों महिला खिलाड़ियों की अभूतपूर्व उपलब्धियों पर जहां सारे देश को गर्व है, वहीं ये ठोस गवाही भी है कि पूर्वोत्तर भारत नारी सशक्तिकरण के मामले में बहुत आगे बढ़ चुका है। वहां पर बहुत कम संसाधनों के बाद भी अभिभावक अपनी बेटियों को खेलों की दुनिया में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं। अगर बात हिन्दी भाषी राज्यों की हो तो यहां हरियाणा और झारखण्ड को छोड़कर बाकी राज्यों की बेटियां खेल की दुनिया में अबतक खास मुकाम हासिल नहीं कर सकी हैं।
आप उत्तर प्रदेश या बिहार की बात मत करें। आप दिल्ली की ही बात कर लें। टोक्यो ओलंपिक खेलों में भारत की चुनौती देने के लिए गई टोली में सिर्फ पांच खिलाड़ी दिल्ली से थे। उनमें सिर्फ मनिका बत्रा महिला थीं। अफसोस कि जिस दिल्ली में 1951 से ही खेलों के विकास के लिए जरूरी सुविधाओं पर फोकस दिया गया वहां से सिर्फ पांच नौजवान ही ओलंपिक में भाग ले रहे हैं। उनमें महिलाओं की भागीदारी मात्र मनिका बत्रा कर रही थीं। करीब दो करोड़ से अधिक की आबादी वाली दिल्ली को इस सवाल पर विचार करना होगा।
अगर पीछे मुड़कर देखें तो अपनी दिल्ली में पहले एशियाई खेल लगभग 70 साल पहले 4 से 11 मार्च, 1951 के बीच नेशनल स्टेडियम में आयोजित किए गए थे। तब तक इसे आजकल की तरह मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम नहीं कहा जाता था। पहले एशियाई खेलों में 11 देशों के 489 खिलाड़ियों ने आठ खेलों की विभिन्न स्पर्धाओं में भाग लिया था। दरअसल दिल्ली में एशियाई खेल 1950 में होने तय हुए थे। पर विभिन्न कारणों के चलते उन्हें 1951 में आयोजित किया गया। राजधानी दिल्ली में फिर 1982 में एशियाई खेल हुए। उन्हें नाम दिया गया एशियाड 82 । इसके बाद कॉमनवेल्थ खेल 2010 में हुए।
एशियाड 82 के सफल आयोजन के लिए जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, इंदिरा गांधी स्टेडियम, करणी सिंह शूटिंग रेंज वगैरह का निर्माण हुआ था। साउथ दिल्ली में एशियन गेम्स विलेज बना। दिल्ली का चौतरफा विकास हुआ। कॉमनवेल्थ खेलों के समय पहले से बने स्टेडियमों को नए सिरे से विकसित किया गया। एक खेल गांव नया भी बना। इन सब निर्माण कार्यों पर हजारों करोड़ रुपए खर्च हुए। पर इतने भव्य आयोजनों के बाद भी दिल्ली से विभिन्न खेलों में श्रेष्ठ महिला-पुरुष खिलाड़ी नहीं निकल पाए। साफ है कि दिल्ली, जहां आबादी का बहुमत उत्तर भारतीयों का है, वहां अभी तक खेलों का कल्चर कायदे से विकसित नहीं हो सका। यह बात सारे उत्तर भारत के लिए भी कहने में संकोच नहीं किया जा सकता।
दरअसल अब मैरी कॉम, मीराबाई चानू और लवलीना बोरेहेन जैसी महिला खिलाड़ी सारे देश की आधी आबादी के लिए प्रेरणा बननी चाहिए। इन सबने कठिन और विपरीत हालातों में भी अपने देश का नाम रोशन किया है। इन्होंने देश को कितने गौरव और आनंद के लम्हे दिए इसका अंदाजा इन्हें भी नहीं होगा। ओलंपिक जैसे मंच पर अपनी श्रेष्ठता को साबित करना कोई सामान्य उपलब्धि नहीं है। आप अपने करियर की रेस में सफल होते हैं, तो आप एक तरह से अपना और अपने परिवार का ही भला करते हैं। पर मैरी कॉम, मीराबाई चानू और लवलीना बोरेहेन की कामयाबियों से सारा देश अपने को गौरवान्वित महसूस करता है। इन और इनके जैसी अन्य महिला खिलाड़ियों के रास्ते पर देश की लाखों-करोड़ों बेटियां भी चलें तो अच्छा रहेगा। मीराबाई चानू के टोक्यो से पदक वापस लेकर आने के बाद जिस तरह का स्वागत हुआ और हो रहा है, वह अभूतपूर्व है। उन्हें मणिपुर सरकार ने पुलिस महकमे में उच्च पद पर नियुक्त कर दिया है। मैरी कॉम को भारत सरकार ने राज्य सभा के लिए पहले से ही नामित किया हुआ है। किसी भी खिलाड़ी के लिए इससे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है। मैरी कॉम से पहले यह सम्मान सचिन तेंदुलकर को भी मिल चुका है। मतलब साफ है कि देश अपने सफल खिलाड़ियों को अपना नायक मानेगा। उन्हें पलकों पर बिठाता रहेगा।
भारत के खेल प्रेमियों को क्रिकेट के सितारों से भी आगे बढ़कर खेल के बारे में सोचना होगा। यह सही बात है कि हमारे यहां बाकी खेलों के खिलाड़ियों को उस तरह से सम्मान और पुरस्कृत नहीं किया जाता जैसे क्रिकेट के खिलाड़ियों को किया जाता है। यह भेदभाव अवश्य मिटना चाहिए। आप सोशल मीडिया की कुछ बिन्दुओं पर लाख बुराई कर सकते हैं पर यह तो मानना होगा कि इसके चलते ही सारे देश को पूर्वोत्तर भारत के खिलाड़ियों के जुझारूपन के बारे में पता चल सका है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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