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बिहार में मुस्लिम सियासत का गणित, जिसके भरोसे ओवैसी-प्रशांत किशोर कर रहे राजनीति

July 12, 2024

नई दिल्ली: बिहार विधानसभा चुनाव में अभी एक साल से ज्यादा का वक्त बचा है, लेकिन सियासी बिसात अभी से ही बिछाई जाने लगी है. लोकसभा चुनाव से बाद से ही बीजेपी से लेकर आरजेडी और अन्य दल अपने-अपने समीकरण को दुरुस्त करने में जुट गई हैं. वहीं, चुनावी रणनीतिकार से सियासी पिच पर उतरने वाले प्रशांत किशोर ने भी अपने पत्ते खोल दिए हैं. पीके गांधी जयंती पर अपनी पार्टी की घोषणा करेंगे. प्रशांत किशोर ने साथ सूबे की सियासत में असदुद्दीन ओवैसी के तर्ज पर मुस्लिम राजनीति करने का फैसला किया है.

प्रशांत किशोर ने कहा है कि वह अगले साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर अपने कैंडिडेट उतारेंगे. बिहार की कुल 243 सीटों में से 75 विधानसभा सीट पर मुस्लिम समुदाय से उम्मीदवार देने का ऐलान किया है. पीके ने मुसलमानों को उनकी आबादी के लिहाज से विधानसभा चुनाव में टिकट देने की बात कही है. एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की राजनीति का एजेंडा भी मुस्लिम प्रतिनिधित्व रहा है, जिसे लेकर बिहार में अपनी सियासी जड़े जमाने की कोशिश नौ सालों से कर रहे हैं.

2020 में सीमांचल के इलाके में ओवैसी को जरूर सफलता मिली, लेकिन आरजेडी और कांग्रेस गठजोड़ के चलते उसे सियासी बुलंदी नहीं दे सके. अब मुस्लिम वोटों को लेकर प्रशांत किशोर भी सियासी बाजी आजमाना चाहते हैं तो सीएम नीतीश कुमार भी उन्हें जेडीयू के साथ जोड़े रखने के लिए हर दांव चल रहे हैं. 2025 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोटों को लेकर सियासी दलों के बीच शह-मात का खेल छिड़ सकता है. इस तरह से बिहार में मुस्लिम सियासत अभी तक कैसी रही है और कितनी प्रभाव रखती है?

बिहार में करीब 17.7 फीसदी मुस्लिम आबादी है, जो सियासी रूप से किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते है. सूबे में आजादी के बाद मु्स्लिम कांग्रेस का परंपरागत वोटर रहा है. बिहार में 1970 तक मुसलमान कांग्रेस के साथ रहे हैं. कांग्रेस ने मुस्लिम-ब्राह्मण-दलित वोटरों का वोट बैंक तैयार किया था. 1971 में बांग्लादेश की आजादी के बाद बिहार में मुसलमानों की राजनीति में बदलाव का दौर शुरू हुआ. उन दिनों उर्दू भाषी बिहारी प्रवासियों की कई जगह हत्याएं हुई थीं. उन दिनों गुलाम सरवर, तकी रहीम, जफर इमाम और शाह मुश्ताक जैसे मुस्लिम नेताओं ने इस मुद्दे को उठाया था और मुसलमानों के बीच कांग्रेस विरोधी भावनाओं को जगाया.


जेपी आंदोलन के दौरान मुस्लिम मानस पर भी अपना प्रभाव डाला, जिसके कारण 1977 में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में जनता सरकार बनी. बिहार में यह पहली बार था, जब मुसलमानों ने कांग्रेस से खिलाफ वोट किया था. हालांकि, 1980 में मुस्लिमों ने कांग्रेस में फिर से वापसी किया था, लेकिन 90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन और लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक उद्भव के बाद आरजेडी के साथ जुड़ गया. लालू यादव के साथ मुस्लिमों के जुड़ने की एक बड़ी वजह 1989 में हुए भागलपुर का सांप्रदायिक दंगा रहा. इसने मुसलमानों को फिर एक बार कांग्रेस से दूर कर दिया.

लालू यादव ने मुस्लिम-यादव का समीकरण बनाकर लंबे समय तक राज किया, लेकिन साल 2005 में नीतीश कुमार के बिहार की सत्ता में आने के बाद सियासी तस्वीर बदली. नीतीश कुमार ने मुस्लिम वोटों में अपना सियासी आधार बढ़ाने के लिए पसमांदा मुस्लिम का दांव चला. इसके चलते मुसलमानों का एक तबका नीतीश के पक्ष में जुड़ा और 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में 40 फीसदी मुस्लिम वोट जेडीयू को बीजेपी के साथ रहने के बाद भी मिला था.

2015 के चुनाव में मुस्लिमों ने एकमुश्त वोट आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस गठबंधन को दिया था, लेकिन 2017 में नीतीश के महागठबंधन से नाता तोड़कर बीजेपी के साथ जाने के बाद मुस्लिमों का नीतीश से मोहभंग हो गया. नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद ओवैसी ने बिहार में मुस्लिम सियासत के जरिए अपनी जमीन तलाशना शुरू किया, लेकिन पहली सफलता 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली जब किशनगंज सीट पर ढाई लाख के करीब वोट उनके प्रत्याशी को मिला. यहीं से ओवैसी को बिहार में सियासी उम्मीद जागी और उन्होंने एक साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में बेहतर सफलता हासिल करने में कामयाब रही.

बिहार में विधानसभा सीटों की संख्या 243 है. इसमें से 47 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में हैं. इन इलाकों में मुस्लिम आबादी 20 से 40 प्रतिशत या इससे भी अधिक है. बिहार की 11 सीटें ऐसी हैं, जहां 40 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम मतदाता है और 7 सीटों पर 30 फीसदी से ज्यादा हैं. इसके अलावा 29 विधानसभा सीटों पर 20 से 30 फीसदी के बीच मुस्लिम मतदाता हैं.

2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार की कुल 243 सीटों में से 24 मुस्लिम विधायक जीतकर आए थे. इनमें से 11 विधायक आरजेडी, 6 कांग्रेस, 5 जेडीयू,1 बीजेपी और 1 सीपीआई से जीत दर्ज किए थे. बीजेपी ने दो मुस्लिम कैंडिडेट को उतारा था, जिनमें से एक जीत दर्ज की थी. साल 2000 के बाद सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक जीते थे. 2020 के विधानसभा चुनाव में 19 मुस्लिम विधायक चुनकर आए, जो 2015 के चुनाव से कम हो गए थे.

ओवैसी से लेकर प्रशांत किशोर तक मुस्लिम वोटों को अपने साथ जोड़ने की स्ट्रैटेजी पर काम कर रहे हैं, लेकिन जिस तरह से यह दिख रहा है बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस के अगुवाई वाले इंडिया गठबंधन के बीच सीधा मुकाबला है, वैसे में मुस्लिम को वोटिंग पैटर्न बदल दाता है. बीजेपी को हराने के मद्देनजर मुस्लिमों का झुकाव आरजेडी-कांग्रेस-लेफ्ट के साथ हो जाता है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि ओवैसी और पीके दोनों के लिए मुस्लिमों को टिकट देने और उनके वोटों को साधने की बड़ी चुनौती होगी?

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