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    बाढ़ की गिरफ्त में बिहार, असम समेत कई राज्य

  • July 24, 2020

    – सियाराम पांडेय ‘शांत’

    असम और बिहार के साथ देश के कई राज्य बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे हैं। बाढ़ से लाखों लोग प्रभावित हुए हैं। बाढ़ पर जिस तरह की ओछी राजनीति हो रही है, वह बाढ़ से भी ज्यादा दुखद है। सत्ता पक्ष पर बाढ़ को नियंत्रित न कर पाने के आरोप लग रहे हैं। बांधों की सुरक्षा न कर पाने के आरोप लग रहे हैं। विपक्षी दल सरकार पर निशाना साध रहे हैं। यह उनका लोकतांत्रिक हक भी है। आज जो सत्ता में हैं, कल विपक्ष में थे तब वे भी वही भाषा बोलते थे जो आज प्रतिपक्ष बोल रहा है। राजनीति में तंज कसना बुरा नहीं है लेकिन स्तरहीन तंज दुख देता है।

    राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा है कि बिहार बाढ़ में डूब गया है और नीतीश कुमार के आंख के आंसू सूख गए हैं। तेजस्वी शायद यह कहना चाहते हैं कि बिहार में आई बाढ़ की तबाही से मुख्यमंत्री दुखी नहीं हैं लेकिन उनके कथन से ऐसा ध्वनित नहीं होता। वे आगे कहते हैं कि नीतीश जी की इंसानियत मर रही है, अंतरात्मा बंगाल की खाड़ी में डूब रही है। मतलब वे इतना तो मानते हैं कि आलोच्य नेता के पास आत्मा भी है और अंतरात्मा भी। वह अगर मर और डूब रही है तो उसकी वजह क्या है? हालांकि तेजस्वी यादव के बयानों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। उनके पिता लालू प्रसाद यादव को भी लोग सुनते तो मन से हैं लेकिन उसे भी जनता कोई खास तवज्जो नहीं देती।

    बिहार के दस जिलों सीतामढ़ी, शिवहर, सुपौल, किशनगंज, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, गोपालगंज और पूर्वी चंपारण के 245 पंचायतों में नदियां कहर बरपा रही हैं। 4.6 लाख लोग बाढ़ की विभीषिका से प्रभावित हैं। बिहार में बाढ़ अब हर साल की समस्या बन चुकी है। बागमती, बूढ़ी गंडक, ललबकैया, कमलाबलान, महानंदा, कोसी और गंडक नदी खतरे का निशान पार कर रही है। बाढ़ रोकने के लिए हम नदियों पर बने बांधों को और मजबूत कर सकते हैं लेकिन जबतक सरकारी मशीनरी बाढ़जन्य नुकसान का आकलन करती है तब तक दूसरी बाढ़ फिर सिर पर आ धमकती है। ऐसे में बांधों की मरम्मत हो ही नहीं पाती और वे टूट जाते हैं। इससे भारी जन-धन का नुकसान होता है। रही-सही कसर नदियों की कटान पूरी कर देती है। निर्णय और क्रियान्वयन में तेजी लाकर ही इस खतरे से निपटा जा सकता है।

    तेजस्वी यादव को इतना तो विचार करना ही होगा कि अगर बाढ़ की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री इस्तीफा देने लगें तो हर साल चुनाव कराने की नौबत आ जाए। एक ही नहीं, कई राज्यों में आ जाए। देश का 12.5 प्रतिशत क्षेत्र ऐसा है जो हर साल बाढ़ की चपेट में आता है। बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, केरल, असम, बिहार, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में बाढ़ का सर्वाधिक असर होता है। कुछ वर्षों से तो सूखे के लिए जाना जाने वाला राजस्थान भी बाढ़ की चपेट में आने लगा है। मानसूनी बरसात, दक्षिण पश्चिम भारत की नदियां जैसे ब्रहमपुत्र, गंगा, यमुना आदि बाढ़ के साथ इन प्रदेशों के किनारे बसी बहुत बड़ी आबादी के लिए खतरे का सबब बन जाती है।

    देश में रावी, यमुना-साहिबी, गंडक, सतलज, गंगा, घग्गर, कोसी तीस्ता, ब्रह्मपुत्र महानदी, महानंदा, दामोदर, गोदावरी, मयूराक्षी, साबरमती और इनकी सहायक नदियों में पानी किनारों को तोड़कर बड़ी दूर तक पानी फैल जाता है। विभिन्न राज्यों के बाढ़ प्रवृत्त क्षेत्रों का इलाका ज्यादा बढ़ता जा रहा है। उत्तर प्रदेश में 7.336 लाख हेक्टेयर, बिहार में 4.26 लाख हेक्टेयर, पंजाब में 3.7 लाख हेक्टेयर, राजस्थान में 3.26 लाख हेक्टेयर, असम 3.15 लाख हेक्टेयर, बंगाल 2.65 लाख हेक्टेयर, उड़ीसा का 1.4 लाख हेक्टेयर और आंध्र प्रदेश का 1.39 लाख हेक्टेयर, केरल का 0.87 लाख हेक्टेयर, तमिलनाडु का 0.45 लाख हैक्टेयर, त्रिपुरा 0.33 लाख हैक्टेयर, मध्यप्रदेश का 0.26 लाख हैक्टेयर का क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है। देश में हर वर्ष बाढ़ से कम से कम 13 अरब 40 करोड़ का नुकसान होता है। यह 81.11 लाख हेक्टेयर जमीन को प्रभावित करता है। बाढ़ के कारण 35.7 लाख हेक्टेयर में खड़ी फसलें बर्बाद होती हैं। बाढ़ के प्रकोप से कम से कम 1600 लोगों की मौत होती है और 95 हजार जानवरों की मौत हो जाती है।

    संयुक्त राष्ट्र ने अक्टूबर, 2018 में इकोनॉमिक लॉसेज, पॉवर्टी एंड डिजास्टर 1998-2017 नाम से एक रिपोर्ट जारी की जिसके अनुसार पिछले 20 साल में वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित देशों को 2,908 बिलियन डॉलर का भारी नुकसान हुआ है जिसमें मौसम के बदलने के कारण आपदाओं से 2,245 बिलियन डॉलर खाक हो गए जो कुल नुकसान का 77 प्रतिशत है।

    अकेले भारत को विगत 2 दशकों (1998-2017) में बाढ़ के कारण 79.5 बिलियन डॉलर यानी 54,73,45,57,50,000 रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ। बाढ़ के लिहाज से 2018 का साल भारत के लिए बेहद बुरा रहा। कई राज्यों समेत केरल में अचानक आई बाढ़ ने भारी तबाही मचाई थी। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1953 से 2017 के बीच बाढ़ की वजह से गुजरे 64 सालों में 1,07,487 लोगों की जान चली गई। जन हानि के आधार पर 1977 में आई बाढ़ सबसे भयावह रही क्योंकि इस साल सबसे ज्यादा 11,316 लोगों ने अपनी जान गंवाई। सरकार के अनुसार 1976 से लेकर 2017 तक हर साल (1999 में 745 और 2012 में 933 मौतों को छोड़कर) इस प्राकृतिक विपदा से मरने वालों की संख्या 1 हजार से ज्यादा ही रही है। औसतन हर साल 1,654 लोग जल आपदा की भेंट चढ़ जाते हैं।

    गत वर्ष मार्च में राज्यसभा में बारिश और बाढ़ से जुड़े पूछे गए एक सवाल पर केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने बताया कि 1953 से लेकर 2017 तक बारिश और बाढ़ की वजह से देश को 3 लाख 65 हजार 860 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। 1,07,487 लोग बाढ़ और बारिश की भेंट चढ़ गए। 1965 में 7.135 करोड़ रुपए की संपत्ति बर्बाद हुई । 1967 से हर साल 150 करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ जो साल दर साल बढ़ता ही चला गया और 1977 में यह नुकसान हजार करोड़ के आंकड़े को पार कर गया था। 1977 में आई प्राकृतिक आपदा में सर्वाधिक 11,316 लोगों ने अपनी जान गंवायी थी। 1988 में बाढ़ से देश में 4,252 लोगों की मौत हो गई थी। भारत में बाढ़ का बड़ा कारण चीन और नेपाल से भारत में बहने वाली नदियां हैं। अपने बांध बचाने के लिए ये देश जरूरत से ज्यादा पानी नदियों में छोड़ते रहते हैं। मुंबई में भी कुछ सालों से आ रही बाढ़ ने देश को चौंकाया है। बाढ़ की विभीषिका से बिहार, पूर्वोत्तर और यूपी समेत कई राज्य हर साल प्रभावित होते हैं, लेकिन उसका प्रभावी समाधान नहीं तलाश पाना, चौंकाने वाली बात है।

    असम में ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के बढ़ते जलस्तर से आदमी तो आदमी, जीव-जंतु तक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। कांजीरंगा पार्क में पानी भर जाने से 76 वन्य जीव काल कवलित हो चुके हैं। बाढ़ हर साल की समस्या है। हर बरसात बाढ़ आती है। बाढ़ से निपटने की सरकारी तैयारी महीनों पहले से आरंभ हो जाती है लेकिन बरसात आते ही सारी तैयारी धूल-धूसरित हो जाती है। आखिर क्या वजह है कि जब बाढ़ आती है या किसी नदी में जलस्तर बढ़ता है तभी सिंचाई विभाग को रेलवे और सड़क मार्ग पर बने नदी के पुलों की याद आती है। बाढ़ हर साल देश को अरबों रुपये का चूना लगाती है, इसके बाद भी अगर नहीं चेत पा रहे हैं तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है?

    जब तक बांधों के टूटने, नहरों के टूटने के लिए बड़े अधिकारियों पर कार्रवाई नहीं होगी, उनपर अर्थदंड नहीं होगा, उन्हें जेल नहीं भेजा जाएगा तबतक बाढ़ राहत का पैसा यूं ही पानी में बहता रहेगा। बांध का टूटना जनता के विश्वास का टूटना है। बांध बनाए ही इसलिए गए थे कि वे बाढ़ को रोकेंगे लेकिन हाल के वर्षों में देखा जा रहा है कि बांधों की वजह से ही जनता बाढ़ का कहर झेल रही है। ऐसे में हमें बांधों के औचित्य पर भी विचार करना करना होगा। विद्युत उत्पादन के अन्य विकल्पों पर भी विचार करना होगा। आखिर कबतक हम देश की जनता की जान को जोखिम में डालते रहेंगे?

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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