– सुरेश हिन्दुस्थानी
जब सच से सामना होता है, तब सबकी बोलती बंद हो जाती है। कुछ इसी प्रकार का वातावरण फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर भी हो रहा है। इस फिल्म का एक तरफ विरोध भी हो रहा है, लेकिन जिसने इस दर्द को झेला है, उसने जब इस फिल्म को देखा तो उसकी आंखों के समक्ष गुजरे हुए दर्दनाक पल आते चले गए। जिन लोगों ने यह झेला है उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे। धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करने वाले कथित बुद्धिजीवी वर्ग का जिस प्रकार से नैरेटिव ध्वस्त होता हुआ दिखाई दे रहा है, उससे उनके पेट में मरोड़ उठ रही है। उनका कहना है कि फिल्म का एक ही पक्ष दिखाया गया है, लेकिन कश्मीर घाटी का बड़ा सच यही है कि केवल हिन्दुओं को ही अपने घर और व्यवसाय से बेदखल किया गया। इसी प्रकार कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि यह सब पाकिस्तान के संरक्षण में कार्य करने वाले आतंकवादियों के संकेत पर ही हो रहा था।
जहां तक बॉलीवुड की बात है तो यह सच है कि कई फिल्मों में हिन्दू देवी-देवताओं को पत्थर की मूर्ति कहकर संबोधित किया गया है, जबकि ऐसी टिप्पणियां अन्य धर्मों के आराधक पर किया जाए तो भूचाल आ जाता है। वास्तविकता यह है कि फिल्मों के माध्यम से भारतीय नागरिकों का ब्रेन वॉश किया गया और हमारा समाज भी उसे इसलिए स्वीकार करता गया क्योंकि वह सत्य से बहुत दूर जा चुका था। अब जब सच सामने आ रहा है तो सबकी आंखों पर जो परदा चढ़ा था, वह हटने लगा है। दर्द केवल उन्हीं को हो रहा है, जिन्होंने इस आवरण को चढ़ाने का कार्य किया था। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स सही मायनों में एक फिल्म ही नहीं, बल्कि एक ऐसा सच है जिसे हिन्दुस्तान ने झेला है।
कश्मीरी हिन्दुओं के दर्द पर बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर आज देशभर में चर्चा हो रही है। फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री से एक पत्रकार ने पूछा कि वह अगली फिल्म किस मुद्दे पर बनाने की सोच रहे हैं तो उनका जवाब था कि उनकी अगली फिल्म दिल्ली दंगों पर होगी। यानी अब नैरेटिव रिवर्सल का दौर शुरू हो चुका है। अब अति संवेदनशील कहे जाते रहे मुद्दों को भी छूने का साहस बॉलीवुड में आने लगा है। ऐसी साहसिक फिल्मों पर तर्क-वितर्क होने लगे हैं। राजनीति से लेकर सामाजिक रूपरेखा पर सवाल उठने लगे हैं और यह जरूरी भी है और समय की मांग भी।
अब ये सवाल जरूर पूछे जाने चाहिए कि हमारी सरकार के सामने कश्मीर में (या कहीं पर भी) ऐसी क्या मजबूरी होती है जिसकी वजह से आरा मशीन में लकड़ी की तरह एक महिला को चीर देने का अधिकार दे दिया जाता है? ऐसा कौन सा इंकलाब होता है जिसमें ऐलान करके बहू-बेटियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म होता है। उनकी नृशंस हत्या होती है या फिर ऐसी कौन-सी मजबूरी होती है, जिसकी वजह से आतंक से लाल होती धरती को देखकर भी दिल्ली दरबार को आंखें मूंद लेने के लिए मजबूर होना पड़़ता है?
देश की हर पार्टी और हर काल के नेतृत्व को बताना चाहिए कि दुनिया में ऐसा कौन-सा अभागा देश है या अभागी जनता है जो एक कातिल को दिल्ली दरबार में सम्मान पाते देखती है। जेकेएलएफ के नेता यासीन मलिक से हाथ मिलाते पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तस्वीर देखकर तब भी देश की जनता दांत पीसकर रह गई थी। इस पाक परस्त नेता ने पूरी ठसक के साथ कैमरे के सामने स्वीकार किया था कि उसने भारतीय वायुसेना के चार निहत्थे अधिकारियों को भरे चौराहे पर गोलियों से भून दिया। बावजूद इसके खून से लथपथ हाथ लेकर एक लकवा ग्रस्त सा दिखने वाला अलगाववादी नेता कश्मीर से निकला और ठाठ से दिल्ली दरबार में दाखिल हुआ। देश के प्रधानमंत्री से उसने पूरी अकड़ के साथ-हाथ मिलाया।
द कश्मीर फाइल्स फिल्म रिलीज होने के बाद कश्मीरी हिन्दुओं के उस भयावह नरसंहार को भूल चुकी आज की नई पीढ़ी गूगल सर्च में इसी तस्वीर को सबसे ज्यादा खोज रही है। कश्मीरी हिन्दुओं के पलायन और सामूहिक नरसंहार के संदर्भ में भी इन दोनों टर्म की विवेचना होना चाहिए। यासीन मलिक का हौसला देखिए, उसने कैमरे के सामने स्वीकार किया कि उसने भारतीय वायुसेना के चार अधिकारियों को बीच चौराहे पर गोलियों से भून दिया, लेकिन उसका अपराध सिर्फ इतना ही नहीं था। उस पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण का भी आरोप है।
यह तो एक फिल्म की ही बात है, कश्मीर में जो कुछ हुआ, वह वास्तविकता है। जो लोग कश्मीर छोडक़र आए, उनके मन में एक अंतहीन दर्द की इबारत कंपायमान कर देती है। देश में घटित ऐसी और फाइल्स हैं, जिनका सच सामने आना चाहिए। देश की जनता यह भी जानना चाहती है कि कैसे गोधरा में रामभक्तों को रेल के डिब्बे में जिन्दा जला दिया गया। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस नेताओं ने कैसे सिखों का नरसंहार किया? इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और संजय गांधी की हत्या के पीछे कौन-सी विदेशी ताकतों का हाथ था? ऐसे ही कुछ बड़े सवाल और भी हैं, जिनका सच देश की जनता जानना चाहती है। इन मुद्दों पर भी फिल्म बननी चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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