– प्रतिभा कुशवाहा
मणिबेन पटेल का एक आसान परिचय तो यही है कि वे महान स्वतंत्रता सेनानी सरदार बल्लभ भाई पटेल की पुत्री थीं, पर वे एक महान स्वतंत्रता सेनानी की पुत्री से बढ़कर देश को गढ़ने वाली स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता भी थीं। गांधीवादी आदर्शों से प्रभावित और उनके ही पदचिन्हों पर चलने वाली मणिबेन को स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान के लिए याद किया जाता है।
मणिबेन पटेल का जन्म गुजरात के करमसाडी में 03 अप्रैल 1903 को हुआ था। उनका बचपन अन्य लोगों के बचपन से अलग रहा। पिता देश की सेवा में व्यस्त रहने के कारण उनके पास हमेशा उपलब्ध नहीं रहते थे और माता का देहांत उनकी छह वर्ष की अवस्था में हो गया था। अतः उनका लालन-पालन उनके चाचा बिठ्लभाई पटेल के यहां हुआ। उन्हीं के यहां रहकर उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी की। उन्होंने बाम्बे के क्वीनमैरी हाईस्कूल से प्रारम्भिक शिक्षा और स्नातक की पढ़ाई विद्यापीठ, गुजरात से पूरी की। विद्यापीठ की स्थापना महात्मा गांधी ने की थी। यहीं पर रहकर उन्होंने महात्मा गांधी की शिक्षाओं को न केवल अपनाया, बल्कि 1918 से अहमदाबाद के उनके आश्रम में रहकर काम भी करना शुरू कर दिया।
महात्मा गांधी की देखरेख में ही मणिबेन सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह में भाग लिया। इन सब कार्यों के चलते वे कई बार जेल भी गई। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर यारवडा जेल में रखा गया, जहां वे 1942 से 45 तक रहीं। यहां भी वे अपने पिता और महात्मा गांधी के दिए संस्कारों को नहीं भूलीं। वे जेल में भी प्रार्थना के साथ-साथ चरखा कातना, पढ़ना, साफ-सफाई और बीमार साथियों की देखरेख करती रहीं।
मणिबेन का उनके पिता सरदार पटेल के साथ दूर और फिर बहुत ही नजदीक का रिश्ता रहा। जब वे देश के लिए काम करने लगीं तो वे पिता के नजदीक आ गईं। 1930 से ही वे पिता की सहायक के तौर पर काम करती थीं। सरदार पटेल के सभी अप्वांटमेंट के साथ-साथ एक सेक्रेटरी के सारे काम वे ही देखने लगी थीं। वे हर जगह अपने पिता के साथ रहती और प्रत्येक विषय पर अपने पिता के विचारों से परिचित भी रहती थीं। सरदार पटेल के रोजमर्रा के कामों की डायरी वे ही मेंटेन किया करती थीं। कहने का अर्थ है कि वे सरदार पटेल की प्रतिछाया के तौर पर काम कर रही थीं। 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु तक वे इसी तरह काम करती रहीं।
स्वतंत्रता के बाद एक राजनेता के तौर पर भी उन्हें जाना जाता है। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से प्रथम लोकसभा 1952-57 और दूसरी लोकसभा 1957-62 के लिए सांसद चुनी गईं। वे गुजरात कांग्रेस की 1957-64 के दौरान वाइस प्रेसिडेंट भी रहीं। 1964 में वे राज्यसभा के लिए भी चुनी गईं। लगभग तीन दशकों तक वे सांसद रहीं। इमरजेंसी के दौरान वे गिरफ्तार हुईं, इमरजेंसी के विरोध में उन्होंने आंदोलन में भाग लिया।
1976 में एक फिर से दाण्डी मार्च का आयोजन किया, जिसका उद्देश्य लोगों को जागरूक करना था। इन सब राजनीतिक कामों के अतिरिक्त वे कई ऐसी धर्मार्थ संस्थाओं से भी जुड़ीं जिनका काम लोगों को सामाजिक तौर पर मजबूत करना था। गुजरात विद्यापीठ, वल्लभ विद्यानागर, बारदौली स्वराज आश्रम के साथ-साथ सरदार पटेल मेमोरियल ट्रस्ट से वे आजीवन जुड़ी रहीं। इन सब कामों को करते हुए वे 1990 में आने वाली पीढ़ी के लिए एक बड़ी विरासत छोड़कर इस संसार से विदा हो गईं।
(लेखिका हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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