– सुरेश हिंदुस्थानी
फिल्मों के माध्यम से जिस प्रकार फिल्म के निर्माता-निर्देशकों द्वारा हिन्दू धार्मिक भावनाओं का अपमान किया जाता है, वह निश्चित ही शर्म की बात है। इन लोगों की इतनी हिम्मत इसलिए भी हो जाती है, क्योंकि हिन्दू समाज पुरातन काल से सहिष्णु है। वह सर्वधर्म समभाव की भावना को अंगीकार करता है। इसीलिए हिन्दू समाज सभी धर्मों का सम्मान करता है। हिन्दू समाज की इसी विशेषता के कारण फिल्म बनाने वाले ऐसा कुकृत्य करने का दुस्साहस करते हैं। हम यह भली-भांति जानते हैं कि ऐसी फिल्म किसी और धर्म की बना दी जाए तो तूफान आ जाता है।
भारत पुरातन काल से वसुधैव कुटुम्बकम के भाव से समस्त विश्व को देखता है। इस भाव को पुष्ट करने के लिए भारत के प्राचीन धर्मग्रंथ समाज को एक होने की राह पर अग्रसर करते हैं। इसलिए भारत की संस्कृति को विविधता में एकता के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। भारतीय दर्शन को आत्मसात करने वाले समाज में यही भाव एक विशेष गुण के रूप में दिखाई देता है, लेकिन जब भारत में पराधीन काल रहा, उस समय भारत की इस संस्कृति को मिटाने का उपक्रम किया गया। सांस्कृतिक मानबिन्दुओं पर कुठाराघात करने के कुत्सित प्रयास किए गए।
इतना ही नहीं आज भी ऐसी मानसिकता के व्यक्ति पूरे विश्व में रहने वाले हिन्दू समाज की आस्था पर हमला करते दिखाई देते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सरेआम हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान किया गया। जिसमें हम सभी को स्मरण होगा कि चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने माँ सरस्वती की आपत्तिजनक पेंटिंग बनाकर भारत की आस्था को रौंदने का काम किया था। विसंगति तो यह है कि कुछ संस्थाओं द्वारा इस कृत्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समर्थन किया गया, जबकि इसके विपरीत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ये समर्थक किसी और धर्म के बारे में सही बात को भी गलत तरीके से प्रचारित करके बवंडर खड़ा कर देते हैं। लेकिन हिन्दू आस्था पर हमले करने वालों के लिए ये मौन साध लेते हैं।
किसी भी समाज की आस्था का मजाक बनाना न्यायोचित नहीं और न ही यह कृत्य किसी भी प्रकार क्षम्य है। ऐसा कृत्य बड़े अपराध की श्रेणी में आता है। फिर भी मन दुखी तब होता है, जब एक जैसी घटनाओं को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा जाता है। इस प्रकार की मानसिकता ठीक नहीं कही जा सकती। हम सभी को भारत के मूल स्वभाव का परिचय देना चाहिए।
अभी हाल ही में टोरंटो निवासी फिल्म निर्माता लीना मणिमेकलाई ने अपनी विवादित डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘काली’ का जो पोस्टर जारी किया है, उससे हिन्दू समाज उद्वेलित है। इस पोस्टर में हिन्दू समाज की आराध्य मां काली को आपत्तिजनक अवस्था में प्रदर्शित किया है। यहां प्रश्न यह है कि फिल्म का नाम काली ही क्यों रखा गया? सवाल यह भी है कि ऐसे कृत्यों के बाद भी हिन्दू समाज से शांति से अपील की जाती है। जबकि ऐसे कृत्यों पर मुसलमान या ईसाई समाज की आवाज को विश्व स्तर पर प्रचारित करने का अभियान चलाया जाता है।
कुल मिलाकर बात यह है कि गलत तो गलत ही होता है। आस्था को अपमानित करने का कोई भी कृत्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं हो सकती। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आशय यही है कि हम वही बोलें जिससे राष्ट्र और समाज की भावनाओं का सम्मान हो। अगर हमारे किसी भी कृत्य से आस्था अपमानित होती है तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कतई नहीं मानी जा सकती।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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