महात्मा गांधी पुण्यतिथि (30 जनवरी) पर विशेष
– गिरीश्वर मिश्र
महात्मा गांधी सारी मानवता के लिए एक सार्वभौमिक सामाजिक सिद्धांत में विश्वास करते थे और सबके कल्याण के बारे सोचते थे। सभ्यता के बारे में उनकी सोच सांस्कृतिक भिन्नताओं के पार जाती है। इसलिए उनके विचारों में ‘पूर्व’ और ‘पश्चिम’ एक-दूसरे के करीब और अक्सर मिलते हुए दिखाई पड़ते हैं। उनका ख्याल था कि यदि ‘आधुनिकता’ को हटा दें तो दोनों एक से ही हैं। श्रीमद्भगवद्गीता, ईशावास्योपनिषद, रामायण जैसे भारतीय ग्रंथों और नरसी मेहता की वाणी जैसे लोक समादृत स्रोत के साथ ही गांधीजी पश्चिम का आदर भी करते थे। गांधीजी ने बाइबिल भी अच्छी तरह पढ़ी थी। सी.एफ. एंड्र्यूज जैसे कई अंग्रेज उनके पक्के मित्र थे। वे स्वयं कहते हैं कि ईसा मसीह के ‘सर्मन आन दि माउंट’ से उनको अहिंसा के विचार को ग्रहण करने में मदद मिली थी। रस्किन, थोरो और ताल्सताय जैसे पश्चिम के अनेक विचारकों ने उनको प्रभावित किया था। पर यह भी सर्वविदित है कि गांधीजी ने आधुनिक पश्चिम की तीखी आलोचना की और शेष विश्व पर उसके अतिक्रमण की प्रवृत्ति की खूब खिंचाई भी की। वह आशा करते थे कि कभी न कभी प्रामाणिक पश्चिम और प्रामाणिक पूर्व का उदय अवश्य होगा जिनमें स्वाभाविक निकटता होगी। यद्यपि वे अपने लिए किसी गैरआधुनिक, गैरपश्चिमी समाज के सिद्धांतकार की भूमिका नहीं स्वीकार करते पर आधुनिकता की आतंकित-सी करने वाली छवि उनके मन में जमकर बैठी हुई थी। उसी के अनुरूप उन्होने ‘हिंद स्वराज’ में आधुनिक सभ्यता की कटु समीक्षा भी प्रस्तुत की।
गांधीजी विभिन्न विचारों को गहने और पचाने के बाद तथा जांच परख में ठीक पाने पर समाज के पास ले जाते थे। अपने अनुभव के आलोक में उनमें बदलाव लाने के लिए भी तत्पर रहते थे। चूंकि गांधीजी के विचार सुदीर्घ अवधि में अनुभवों के आलोक में विकसित होते रहे उनकी व्याख्या भी कई तरह से सम्भव है। बहुत हद यद तक यह कहना ठीक जान पड़ता है कि तथाकथित सेकुलर या धर्मनिरपेक्ष वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाने के कारण आधुनिक पश्चिम गांधीजी की आलोचना का पात्र बना। उनकी नजर में अतिक्रांत करने वाली एक आध्यात्मिक दृष्टि ही मानवता के पक्ष में थी इसलिए ग्राह्य थी। उल्लेखनीय है कि धर्म-निरपेक्षता के आधार पर ही विज्ञान को उत्कृष्ट कहा गया। हालांकि गांधी द्वारा आधुनिक विज्ञान को अस्वीकृत करना कट्टरता और अंधविश्वास से समझौते के रूप में भी देखा गया तथापि यह जानना जरूरी है आधुनिक विज्ञान की सीमाएं हैं। वह अपने को नगरीय-औद्योगिक दुनिया तक सीमित रखता है और वही इस विचार का मुख्य जीवन-तंतु है। धर्म-निरपेक्षता आधुनिक विज्ञान की आधारशिला है जिसके हिसाब से विचार और ज्ञान को भावना और नैतिकता से अलग रखा जाय। आधुनिक जीवन के कई पहलू मसलन प्रकृति के प्रति एक उपयोगितावादी दृष्टि आधुनिक विज्ञान ने आत्मसात कर लिया जो उसे सेकुलर, नैतिकता के विचार से मुक्त और भावनात्मक दृष्टि से तटस्थ बनाता है।
गांधीजी का विश्वास था कि प्रकृति, समाज और इतिहास की धर्म निरपेक्ष प्रवृत्तियों से काम नहीं चलेगा। ज्ञाता से स्वतंत्र और नैतिक दृष्टि से विरहित कोरा वस्तुनिष्ठ ज्ञान संभव नहीं है। प्रौद्योगिकी गांधीजी की चिंता का एक बड़ा कारण है। यह सबका अनुभव है कि आधुनिक विज्ञान को आधुनिक प्रौद्योगिकी का समर्थन प्राप्त होने के कारण उसके साथ उपयोगिता और नियंत्रण की तीव्र प्रवृत्तियां भी जुड़ गईं। आधुनिकता तकनीकी को अवसर देती है। धर्मनिरपेक्ष आधुनिक विज्ञान मूलत: भौतिक विज्ञान की अवधारणा पर टिका हुआ है। यहां तक कि जीवित प्राणियों की अध्ययन पद्धति भी इसी खांचे के आधार पर विकसित हुई। इस तरह आधुनिक समाज भी यंत्रवादी स्वभाव के अनुरूप परिकल्पित हुआ। प्रौद्योगिकी को स्वायत्तता नहीं दी जा सकती क्योंकि विज्ञान का नाम लेकर प्रौद्योगिकी ऐसे सामाजिक परिवर्तन को प्रश्रय देती है जो व्यक्ति, समाज और प्रकृति के मानवीय और जीवित अंश को छीन लेता है। मुश्किल यह है कि प्रौद्योगिकी के चक्रव्यूह में प्रवेश करने पर छुटकारा नहीं मिलता है। तकनीकी से उत्पन्न समस्या का समाधान भी तकनीकी में ही ढूढा जाता है। ध्यान रहे गांधी तकनीकी की जगह तकनीकीवाद की आलोचना करते हैं। इस अर्थ में ‘ चरखा’ मिल से अच्छा है। वह मनुष्यता की और मनुष्य की स्वायत्तता की रक्षा करता है।
महात्मा गांधी ने अपने आचरण और व्यवहार से राजनैतिक प्रभुत्व को खंडित किया और 19 वीं सदी के सामाजिक उद्विकास की अवधारणा को नकारते थे। वे वैयक्तिकता, उपयोगिता और उपभोक्तावाद का खंडन किया और राष्ट्र-निर्माण के लिए ‘व्यक्ति’ और ‘सामाजिक’ के बीच का भेद तोड़ा। उनके अनुसार व्यक्ति-चेतना सामूहिक चेतना पर आधृत थी। आश्रम और ट्रस्टीशिप (न्यासिता) का विचार, दायित्व और अपरिग्रह इसी को दर्शाते हैं। उन्होंने अहिंसा पर आधृत गैरवर्चस्व वाली समानता को महत्व दिया जो पारस्परिकता पर निर्भर करती है। वह संस्कृति को वैज्ञानिक नहीं शाश्वत मानव मूल्यों के आलोक में देखते हैं और साहस के साथ समकालीन राजनीति की संस्कृति को अपनी नैतिक राजनीति से जोड़ते हैं। पश्चिम के जीवन, अनुभव और विचार को पचाकर उन्होंने आधुनिकता के विकल्प के रूप में भारतीय संस्कृति को तीक्ष्ण बनाया और अद्यतन किया। आवश्यकता है कि जिस नई आलोचक भारतीय परम्परा को गांधीजी ने शुरू किया उस परम्परा में सर्जनात्मक सम्भावना की तलाश की जाय।
हम सब उनकी 150 जयंती मनाने का अनुष्ठान भी इस वर्ष आयोजित कर रहे हैं। उनका पुण्य स्मरण करना और बार-बार करते रहना जरूरी है। हमको यह याद करना चाहिए कि महात्मा गांधी ने आधुनिक विश्व के लिए एक मानवीय दृष्टि का विकास किया और दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में उसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया। उनके इस प्रयास का भारत के बाहर दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला, संयुक्त राज्य अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) तथा म्यामार में सू की आदि अनेक नेताओं ने अपने-अपने देशों में जनसंघर्ष के लिए प्रेरणा प्राप्त की और अपने कार्य को संचालित किया। गांधीजी द्वारा आरम्भ किया गया प्रयोग किसी भी कसौटी पर निश्चय ही आज के युग में क्रांतिकारी कहा जायगा। वे स्वयं को ‘आध्यात्मिक’ कहते थे, ईश्वर में गहरी आस्था रखते थे और जीवन में अनेक व्रतों, सिद्धान्तों और अभ्यासों का सतत पालन करते रहे। यह भी बेहद गौरतलब है कि आज के युग का जो माहौल बन रहा है उसमें बहुतों को मौन, उपवास, इंद्रिय-निग्रह, पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश) का आदर, ईश-प्रार्थना, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, करुणा, त्याग, सत्याग्रह, अपरिग्रह (जरूरत भर की चीजों को रखना), अस्तेय (दूसरे का सामान चोरी न करना) और सत्य जैसे शब्द निरे किताबी लगते हैं। उनसे जुड़े व्यवहार सुनने में बड़े ही अव्यावहारिक, ढोंगी, अनुपयोगी, प्रगतिविरोधी और एक हद तक पिछड़ेपन का चिह्न लगते हैं।
अव्वल तो यह सब सुनने के लिए किसी के पास समय ही नहीं है और यदि समय है भी तो इसे समकालीन प्रवृत्ति या धारा के विपरीत और असंभव करार देंगे। पर ठीक इसके विपरीत गांधीजी के लिए ये सभी अनुकरणीय और सहज में ही प्रयुक्त होने वाले जरूरी व्यावहारिक आदर्श थे। गीता और उपनिषद् से आत्मसात करने के बाद ये उनके जीवन के व्याकरण के जरूरी नियम बन गए थे जिनपर चलना ही उनके लिए एक मात्र रास्ता था। गांधीजी की नजर में हम जहां रहते हैं उसके परिवेश और समाज की सीमाओं और ताकतों को नजरंदाज नहीं करना चाहिए। पर सबसे ऊंचा है मानव धर्म। वे महाभारत जैसे विराट युद्ध को जीतकर भी जो पीड़ा विजयी युधिष्ठिर को हो रही थी, उसे पहचान रहे थे और उसकी व्यर्थता को देख रहे थे। वे मान रहे थे कि सचमुच मनुष्यता से ऊपर कुछ नहीं है।
गांधीजी ने अपने लिए जिन व्यावहारिक आदर्शों को अपनाया उनतक पहुंचना किसी भी तरह सरल न था। इनको पाने में गांधीजी को बार-बार लज्जा, भय, हानि, खतरा, असुरक्षा, और संशय सबका सामना करना पड़ा। फिर भी वे डटे रहे और इन सबको खोजा, जांचा-परखा, आजमाया और स्वयं संतुष्ट होने के बाद उनपर जीवनपर्यंत चलते रहे। फिर तो ये सब जीवन में श्वांस-प्रश्वास की तरह अनिवार्य शारीरिक कार्य की तरह गांधीजी के व्यवहार और आचरण के अभिन्न अंग जैसे बन गए। तरह-तरह के आकर्षणों और प्रलोभनों से भरी दुनिया में अपने को अलग कर इतना आत्म-परिष्कार निश्चय ही सहज नहीं था। इसके लिए जिस कठोर संयम और ईश्वर के प्रति निष्कपट समर्पण की जरूरत थी उसके लिए आत्मिक बल गांधीजी ने स्वयं अपने अनुभव और मानसिक दृढता से एकत्र किया था। सीमित निजी और व्यापक सार्वजनिक जीवन के बीच की सीमा रेखा मिटाना किसी के लिए सरल नहीं होता है परन्तु गांधीजी ने ऐसा साहस किया और अपने निर्णयों पर चलने के लिए उन्होंने अपने भीतर आत्म-विश्वास जुटाया। और तो और यह सब उन्होंने निजी और सामाजिक जीवन की जटिल और बहुत हद तक विपरीत परिस्थितियों के बीच किया। महात्मा होने के प्रसिद्ध लक्षण मन, वचन और कर्म का एका को उन्होंने चरितार्थ किया था। उनके जीवन में अनेक अवसर आए जब कोई सामान्य व्यक्ति सरलता से विचलित हो जाता परंतु वे अटल बने रहे। अपने अनुगामियों को और अपने आश्रम के अंतेवासियों के लिए भी गांधीजी अपने जीवन सिद्धांतों के अनुरूप आचरण के लिए सतत प्रेरित करते रहे।
‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’- कहकर गांधी जी ने पारदर्शिता, साहस और अभय का असाधारण प्रतिमान स्थापित किया था। अपने निजी संकल्प से जीवन में गांधीजी ने स्वयं अपना मार्ग निश्चित किया और उसपर अविचल भाव से चलते रहे। हम सब मूर्तिपूजक ठहरे, सो बापू के पुतले बनाकर वर्षों से पूजा करते आ रहे हैं। जरूरत है कि उसकी प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए उनके विचारों पर अमल किया जाय। आज भी महात्मा गांधी प्रेरणा के स्रोत हैं।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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