– योगेश कुमार गोयल
भारत में सर्वाधिक महत्व जिस देव का है, वो देवाधिदेव भगवान शिव ही हैं, जो आज भी समूचे भारतवर्ष में उतने ही पूजनीय और वंदनीय हैं, जितने सदियों पहले। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि देशभर में जितने मंदिर या तीर्थस्थान भगवान शिव के हैं, उतने अन्य किसी देवी-देवता के नहीं। आज भी समूचे देश में भगवान शिव की पूजा-उपासना व्यापक स्तर पर होती है। यही कारण है कि ‘महाशिवरात्रि’ पर्व को भारत में राष्ट्रीय पर्व का दर्जा प्राप्त है। भगवान शिव को ‘कालों का काल’ और ‘देवों का देव’ अर्थात् ‘महादेव’ कहा गया है। देव-दानव, मानव-प्रेत, भगवान शिव सभी के आराध्य देव हैं। ‘भोले बाबा’ के रूप में सर्वत्र पूजनीय भगवान शिव को समस्त देवों में अग्रणीय और पूजनीय इसलिए भी माना गया है क्योंकि वह अपने भक्तों पर बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं और दूध या जल की धारा, बेलपत्र व भांग की पत्तियों की भेंट से ही अपने भक्तों पर प्रसन्न हो जाते हैं तथा उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं।
भारत में शायद ही ऐसा कोई गांव मिले, जहां भगवान शिव का कोई मंदिर अथवा शिवलिंग स्थापित न हो। यदि कहीं शिव मंदिर न भी हो तो वहां किसी वृक्ष के नीचे अथवा किसी चबूतरे पर शिवलिंग तो अवश्य स्थापित मिल जाएगा। एक होते हुए भी शिव के नटराज, पशुपति, हरिहर, त्रिमूर्ति, मृत्युंजय, अर्द्धनारीश्वर, महाकाल, भोलेनाथ, विश्वनाथ, ओंकार, शिवलिंग, बटुक, क्षेत्रपाल, शरभ इत्यादि अनेक रूप हैं।
‘महाशिवरात्रि’ पर्व फाल्गुन मास की कृष्ण त्रयोदशी को मनाया जाता है। यह व्रत सृष्टि के समस्त प्राणियों के लिए अत्यंत कल्याणकारी माना गया है। शिवरात्रि देवों के देव महादेव अर्थात् भगवान शिव के जन्म का स्मरणोत्सव है। इस अवसर पर शिवभक्त उपवास तथा रात्रि जागरण करते हैं ताकि उनकी पूजा-अर्चना, उपासना एवं त्याग से भगवान शिव की कृपादृष्टि उन पर सदैव बनी रहे। माना जाता है कि इसी दिन रात्रि के मध्य में जगतपिता ब्रह्मा से रूद्र के रूप में भगवान शिव का अवतरण हुआ था। यह भी कहा जाता है कि इसी दिन प्रलय की वेला में प्रदोष के समय भगवान शिव ने तांडव करते हुए समस्त ब्रह्माण्ड को अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त किया था। इसीलिए इस अवसर को ‘कालरात्रि’ अथवा ‘महाशिवरात्रि’ कहा जाता है।
प्रश्न यह है कि जिस प्रकार विभिन्न महापुरुषों के जन्मदिन को उनकी ‘जयंती’ के रूप में मनाया जाता है, उसी प्रकार भगवान शिव के जन्मदिन को उनकी ‘जयंती’ के बजाय ‘रात्रि’ के रूप में क्यों मनाया जाता है? इसका कारण संभवतः यही है कि रात्रि को पापाचार, अज्ञानता और तमोगुण का प्रतीक माना गया है और कलियुग में क्या संत, क्या साधक, क्या एक आम मानव, अर्थात् हर कोई दुखी है, अतः कालिमा रूपी इन बुराइयों का नाश करने के लिए प्रतिवर्ष चराचर जगत में एक दिव्य ज्योति का अवतरण होता है और यही रात्रि ‘शिवरात्रि’ है।
‘शिव’ और ‘रात्रि’ का शाब्दिक अर्थ एक धार्मिक पुस्तक में स्पष्ट करते हुए कहा गया है, ‘‘जिसमें सारा जगत शयन करता है, जो विकार रहित है, वह शिव है अथवा जो अमंगल का ह्रास करते हैं, वे ही सुखमय, मंगलमय शिव हैं। जो सारे जगत को अपने अंदर लीन कर लेते हैं, वे ही करुणासागर भगवान शिव हैं। जो भगवान नित्य, सत्य, जगत आधार, विकार रहित, साक्षीस्वरूप हैं, वे ही शिव हैं। महासमुद्र रूपी शिव ही एक अखंड परम तत्व हैं, इन्हीं की अनेक विभूतियां अनेक नामों से पूजी जाती हैं, यही सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान हैं, यही व्यक्त-अव्यक्त रूप से ‘सगुण ईश्वर’ और ‘निर्गुण ब्रह्म’ कहे जाते हैं तथा यही परमात्मा, जगत आत्मा, शम्भव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, रूद्र आदि कई नामों से संबोधित किए जाते हैं।’’
‘रात्रि’ शब्द ‘रा’ दानार्थक धातु से बना है अर्थात् जो सुखादि प्रदान करती है, वह ‘रात्रि’ है। रात्रि सदा आनन्ददायिनी होती है, अतः सबकी आश्रयदात्री होने के कारण उसकी स्तुति की गई है। इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ है, ‘‘वह रात्रि, जो आनन्द देने वाली है, जिसका शिव नाम के साथ विशेष संबंध है।’’ ऐसी रात्रि माघ फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की है, जिसमें शिव पूजा, उपवास व जागरण होता है। इसीलिए इस रात्रि को शिवपूजा करना एक महाव्रत माना गया है और इसीलिए इसका नाम ‘महाशिवरात्रि’ पड़ा।
धार्मिक ग्रंथों में भगवान शिव के बारे में यही उल्लेख मिलता है कि तीनों लोकों की अपार सुन्दरी और शीलवती गौरी को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों और भूत-पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका शरीर भस्म से लिपटा रहता है, गले में सर्पों का हार शोभायमान रहता है, कंठ में विष है, जटाओं में जगत तारिणी गंगा मैया हैं और माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल (नंदी) को भगवान शिव का वाहन माना गया है और ऐसी मान्यता है कि स्वयं अमंगल रूप होने पर भी भगवान शिव अपने भक्तों को मंगल, श्री और सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं।
कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने भी भगवान शिव की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए उन्हें अपनी एक आंख समर्पित कर दी थी। इस बारे में कहा गया है कि भगवान विष्णु जब शिव को प्रसन्न करने के लिए 1008 कमल के फूलों से उनका अभिषेक कर रहे थे, तब आखिर में एक कमल कम रह गया। इसपर भगवान विष्णु ने तुरंत कटार से अपनी एक आंख निकाली और कम रहे कमल के स्थान पर भगवान शिव को अर्पित कर दी। इससे शिव विष्णु पर इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने भगवान विष्णु को अपना दिव्य मंत्र प्रदान कर दिया-
त्रयम्बकं यजामहे
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम।
उर्वारूकमिव बन्धनात।
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
भगवान शिव के मस्तक पर अर्द्धचंद्र शोभायमान है। इसके संबंध में कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय समुद्र से विष और अमृत के कलश उत्पन्न हुए थे। इस विष का प्रभाव इतना तीव्र था कि इससे समस्त सृष्टि का विनाश हो सकता था, ऐसे में भगवान शिव ने इस विष का पान कर सृष्टि को नया जीवनदान दिया जबकि अमृत का पान चन्द्रमा ने कर लिया। विषपान करने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया, जिससे वे ‘नीलकंठ’ के नाम से जाने गए। विष के भीषण ताप के निवारण के लिए भगवान शिव ने चन्द्रमा की एक कला को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। यही भगवान शिव का तीसरा नेत्र है और इसी कारण भगवान शिव ‘चन्द्रशेखर’ भी कहलाए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved