– डॉ. राकेश राणा
15 अगस्त की तारीख अत्यंत महत्वपूर्ण दिन के रूप में देश को अद्वितीय अवदान देने वाली रही है। जहां आजादी का अविस्मरणीय संघर्ष इस दिन पूरा हुआ, वहीं श्री अरविन्द से भी यह दिन जुड़ा है। महर्षि अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कृष्ण-जन्माष्टमी के दिन कलकत्ता शहर में डॉ. कृष्णधन घोष के घर हुआ। पिता चाहते थे कि उनके बच्चों पर किसी भी तरह से भारतीयता का प्रभाव न पड़े। वह बुद्धिवाद के प्रबल हिमायती हो चुके थे और भारत को भी यूरोपीय मॉडल पर ही चलते-बढ़ते देखना चाहते थे।
प्राथमिक कक्षा से ही अरविन्द घोष को विदेशी स्कूल में दार्जिलिंग पढ़ने के लिए भेजा गया। सात वर्ष की आयु में ही उन्हें इंग्लैंड भेज दिया। आगे की पढ़ायी के साथ-साथ इस बात के प्रति सतर्कता बरतते हुए कि उन पर भारतीय संस्कृति और परम्परा का प्रभाव न पड़े। 14 वर्ष श्री अरविन्द इंग्लैंड में रहे, पूरी तरह अंग्रेजी आचार-विचार में पले-बढ़े और दीक्षित हुए। 21 वर्ष की आयु में भारत लौटते ही भारतीय आभामंडल में ऐसे खोए कि आते ही भारतीय भाषाओं और सांस्कृतिक परम्पराओं पर गहरी समझ बनाने के लिए जिज्ञासु की तरह जुट गए। क्योंकि परिवार श्री घोष को भले अंग्रेज दिलो-दिमाग के साथ शिक्षित-दीक्षित और विकसित करना चाहता था पर प्रकृति और नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। श्री अरविन्द स्वतः अनायास ही उस झुकाव में समर्पित योद्धा की तरह जुट चके थे। संस्कृत सीखी और वेदों तथा उपनिषदों पर गहरी समझ विकसित की। परिणाम पिता के तमाम प्रयासों के बावजूद वह अंग्रेजियत के बजाय भारतीयता से ऐसे भर गए कि उच्च कोटि के रहस्यवादी विद्वानों में उन्हें जाना जाने लगा।
वास्तव में नियति तो नियति होती है। हम सभी कुछ खास कामों को करने के लिए धरती पर आते है। इस दृष्टि से श्री अरविन्द घोष का जन्म कुछ महान दायित्वों को पूरा करने के लिए हुआ था। वह भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में उतरे तो वहां भी उन कार्यों को अंजाम दिया जो हर तरह से असाधारण थे। भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन जैसे उनके लिए बहु-प्रतिक्षित था। जिस उत्सुकता और निर्भीकता के साथ उन्होंने भारतीय जनमानस को अपने विचारों में संबोधित किया, वह राष्ट्रवाद की प्रखर अभिव्यक्ति का प्रारम्भ था। महर्षि अरविन्द उग्र राष्ट्रीयता के प्रखर व्याख्याता के रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन के केन्द्र में आ गए। भारत लौटते ही स्वतंत्रता संघर्ष में जुट गए और बम्बई से प्रकाशित ’इंन्दुप्रकाश’ में श्री घोष ने ’पुराने दीपों की जगह नए दीप’ नाम से लेखमाला शुभारम्भ किया। जिसमें महर्षि अरविन्द ने तत्कालीन नैराश्यपूर्ण स्वतंत्रता संघर्ष की शैली पर सीधे सवाल उठाने शुरू किए और प्रखर राष्ट्रवादी चेतना का संचार करने वाले विचारों से देशवासियों को आह्वान किया। इस लेखमाला में श्री अरविन्द ने एक के बाद एक विस्फोटक लेख लिखे। जिनका व्यापक प्रभाव हुआ।
श्री अरविन्द ने देश के जनमानस में व्याप्त जड़ता को तोड़ा और निष्क्रियता को झकझोरा अपने निर्भीक विचारों से। शनैः शनैः अरविन्द उग्र विचारधारा का ब्रांड बन गए और प्रखर राष्ट्रवादियों की पहली पसंद हो गए। विपिन्न चन्द्र पाल उस समय जाना-माना नाम थे और उनके द्वारा प्रकाशित समाचार-पत्र ’वन्देमातरम्’ श्री अरविन्द के लेखों के लिए लालायित रहता था। निरन्तर उनके लेखों का प्रकाशन ’वन्देमातरम्’ को सुर्खियों में रखने लगा था। श्री अरविन्द ने अपने लेखों में अपना नाम देना बन्द कर दिया बावजूद इसके ’वन्देमातरम्’ समाचार-पत्र बंगाल के राष्ट्रीय आन्दोलन का मुखपत्र बन गया। जिसने देशभक्ति और राष्ट्रीयता की ऐसी लहर पैदा कर दी कि ’वन्देमातरम्’ को ब्रिटिश हुकूमत को बार-बार बैन करना पड़ा। श्री अरविन्द के प्रखर वैचारिक लेखों ने राष्ट्रीयता के उग्र समर्थकों को पुरजोर समर्थन प्रदान किया। देश के आम जनमानस को संतोष प्रदान किया और स्वतंत्रता संघर्ष के आन्दोलनकारियों को एक सुस्पष्ट कार्यशैली सौंपी।
राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र और प्रखर बनाने वाले श्री अरविन्द से अंग्रेज इतने घबरा गए कि अगस्त 1907 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। किसी भी अखबार से सीधे जुड़े होने के सरकार को कोई प्रमाण नहीं मिला। उनपर अभियोग सिद्ध ना हो सका इसलिए जल्दी ही उन्हें छोड़ना पड़ा। इसी के साथ महर्षि अरविन्द की वैचारिकी के प्रभाव की परिणिति इस विस्फोट के साथ उभरकर सामने आयी कि कांग्रेस स्पष्टतः दो धड़ों में बंट गई- गरम दल और नरम दल। उसके बाद दोनों खेमोंं में वर्चस्व के लिए संघर्ष शुरू हो गया कि किसका प्रभाव संगठन पर रहे, नेतृत्व किसके हाथ में आए। नरमपंथियों में प्रमुख रूप से गोपालकृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्र बनर्जी और रासबिहारी बोस जैसे बड़े नेता शामिल थे। वहीं गरमपंथियों में लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और श्री अरविन्द शामिल थे।
महर्षि अरविन्द अनवरत स्वतंत्रता के संघर्ष को नयी उर्जा प्रदान करने में जुटे रहे। स्वयं भी श्री अरविन्द ने ’कर्मयोगी’ और ’धर्म’ जैसे समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया। जिनके माध्यम से राष्ट्रवादी चेतना का निर्माण करना और स्वतंत्रता संघर्ष के पाथेय पर आजादी के पथिकों को प्रेरित रखना उनका ध्येय था। श्री अरविन्द के स्वतंत्रता संघर्ष का राजनीतिक अभियान आध्यात्मिकता से सराबोर रहा है। उनके भीतर भरी भारतीयता उन्हें राजनीति से ऊपर उठाकर अंततः आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दायरों में खींच ही लायी। महर्षि अरविन्द अंततः योग के अनुभव और अनुसंधान से गुजरते हुए संधान में रत हो गए और 5 अप्रैल 1910 को जब पांडेचेरी पहुंचे तो वहीं आश्रम की स्थापना कर ली और फिर जीवनपर्यन्त वहीं रहे। योग साधना, पठन-पाठन और दर्शन तथा लेखन में रम गए। महर्षि अरविन्द जीवन यात्रा को ईश्वरीय योजना की तरह स्वीकारते हुए आगे बढ़े। इस संघर्ष-श्रृंखला में महर्षि पहले भारतीय जीवन की जड़ता को तोड़ने में अपना सर्वस्व लगा देते हैं और उसके बाद बढ़ते हैं उससे भी बड़ी जीवन साधना की तरफ। जो श्री अरविन्द को एकांती बनाती है और आश्रमी जीवन में रमा देती है। जहां योग साधना में संधान करने का महान उपक्रम महर्षि अरविन्द करते हैं।
भारत का स्वतंत्रता संघर्ष विभिन्न धाराओं की वैचारिकी और सांस्कृतिक चेतना की जागृति का प्रयास था। इस संघर्ष में भारतीयता की परम्परा के प्रमुख पोषकों में महर्षि अरविन्द ने अथक राष्ट्र साधना की। महर्षि अरविन्द सुन्दर, सुदृढ़ और समृद्ध भारत चाहते थे। इसलिए श्री अरविन्द के दर्शन में पर्याप्त संभावनाएं हैं एक मजबूत भारत के निर्माण की। महर्षि की साधना के दो महत्वपूर्ण सोपान हैं योग और आध्यात्म। ये ही भारत के आधार स्तम्भ भी हैं। आज के भोगवादी संसार में इन्हीं दोनों का अभाव है। श्री अरविन्द के सपनों का आजाद भारत आध्यात्मिक स्वभाव के साथ भौतिक समृद्धि के वैभव वाला हो ऐसी उनकी इच्छा थी। आजाद भारत विश्वगुरु की अपनी भूमिका का वरण कर मानव कल्याण करने वाला हो। ऐसे आजाद भारत की संकल्पना श्री अरविन्द के विचार-दर्शन की विरासत है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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