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    महाराष्ट्र में प्रकृति के क्रूर मिजाज ने ढाया कहर

  • July 25, 2021

    – प्रमोद भार्गव

    समूचे महाराष्ट्र में आई तेज बारिश ने कहर ढा दिया है। बाढ़ के साथ भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। नतीजतन 129 से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकी हैं। रायगढ़ में जमीन घंसने से 36 और सतारा में 27 मौतों की जानकारी मिली है। गोंदिया और चंद्रपुर में भी जनहानि की खबरें हैं। रत्नागिरी में वायुसेना के हेलिकाप्टरों को बाढ़ प्रभावित इलाकों में लोगों को बचाने में लगाना पड़ा है। कोंकण क्षेत्र व पश्चिम महाराष्ट्र में भारी बारिश ने भीषण तबाही मचाई हुई है। कुछ दिन पहले मुंबई में बारिश के चलते हुए अलग-अलग हादसों में 31 लोगों की मौत हो चुकी है। कोल्हापुर, रत्नागिरी, पालघर, ठाणे, सिंधुदुर्ग, पुणे और सतारा में कई स्थलों पर बाढ़ का पानी भर जाने से जनजीवन ठप हो गया है। अनेक लोग बाढ़ और भूस्खलन के चलते लापता हैं।

    प्रकृति जब रौद्र रूप दिखाती है, तब मनुष्य के सारे आधुनिक उपकरण व उपक्रम लाचारी का सबब बन जाते हैं। लिहाजा मनुष्य अपनी बर्बादी अपनी आंखों से देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाता। ऐसे में प्रत्येक संवेदनशील मनुष्य कुछ पल के लिए यह जरूर सोचता है कि इन प्राकृतिक आपदाओं के लिए उसके द्वारा ही किया गया आधुनिक व तकनीकी विकास जिम्मेदार है। तकनीकी रूप से स्मार्ट सिटी बनाने पर दिया जा रहा जोर भी इस तबाही के लिए जिम्मेदार है। मुंबई, नागपुर, सतारा, पुणे और कोल्हापुर इसके ताजा उदाहरण हैं। इन शहरों को स्मार्ट बनाते समय वर्षा जल के निकासी की कोई परवाह नहीं की जा रही है, जबकि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती गर्मी से अरब सागर तूफानों का गढ़ बनता जा रहा है। 2001 के बाद ऐसे तूफानों में 52 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी देखी गई है।

    हाल ही के अध्ययनों में पाया है कि ज्यादातर मामलों में हवा धीरे-धीरे तूफान का रूप लेती है और आखिर में चक्रवात बनकर किसी समुद्री किनारे से टकराती है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रापिकल मेटेरोलॉजी पुणे के वरिष्ठ वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कॉल ने बताया कि अरब सागर में बंगाल की खाड़ी की तुलना में ज्यादा नमी पैदा हो रही है। इससे विक्षोभ पैदा हो रहे हैं जो तूफान की गति प्रदान करते हैं। पहले दक्षिण-पश्चिम अरब सागर ज्यादा ठंडा होता था, लेकिन अब इसकी गर्मी बढ़ रही है। जो बाढ़ और चक्रवाती तूफानों का कारण बन रही है। बाढ़ की यह त्रासदी असम, झारखंड व बिहार जैसे वे राज्य भी झेल रहे हैं, जहां बाढ़ दशकों से आफत का पानी लाकर हजारों ग्रामों को डूबो देती है। इस लिहाज से शहरों और ग्रामों को कथित रूप से स्मार्ट व आदर्श बनाने से पहले इनमें ढांचागत सुधार के साथ ऐसे उपाय करने की जरूरत है, जिससे ग्रामों से पलायन रुके और शहरों पर आबादी का दबाव न बढ़े ?

    शहरों की बुनियादी समस्याओं का हल शहरों में मुफ्त वाई-फाई देने या रात्रि में पर्यटन पर जोर देने से निकलने वाला नहीं है, इसका समाधान शहर बसाते समय पानी निकासी के प्रबंध करने से ही निकलेगा। यदि वास्तव में राज्यों को स्मार्ट शहरों की जरूरत है, तो यह भी जरूरी है कि शहरों की अधोसरंचना संभावित आपदाओं के अनुसार विकसित की जाए। आफत की यह बारिश इस बात की चेतावनी है कि हमारे नीति-नियंता, देश और समाज के जागरूक प्रतिनिधि के रूप में दूरदृष्टि से काम नहीं ले रहे हैं। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मसलों के परिप्रेक्ष्य में चिंतित नहीं हैं।

    2008 में जलवायु परिवर्तन के अंतरसकारी समूह ने रिपोर्ट दी थी कि धरती पर बढ़ रहे तापमान के चलते भारत ही नहीं दुनिया में वर्षाचक्र में बदलाव आने वाले हैं। इसका सबसे ज्यादा असर महानगरों पर पड़ेगा। इस लिहाज से शहरों में जल-प्रबंधन व निकासी के असरकारी उपायों की जरूरत है। इस रिपोर्ट के मिलने के तत्काल बाद केंद्र की तत्कालीन संप्रग सरकार ने राज्य स्तर पर पर्यावरण सरंक्षण परियोजनाएं तैयार करने की हिदायत दी थी। लेकिन देश के किसी भी राज्य ने इस अहम सलाह पर गौर नहीं किया। इसी का नतीजा है कि हम जल त्रासदियां भुगतने को विवश हो रहे हैं।

    यही नहीं शहरीकरण पर अंकुश लगाने की बजाय, ऐसे उपायों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे उत्तरोत्तर शहरों की आबादी बढ़ती रहे। यदि यह सिलसिला इन त्रासदियों को भुगतने के बावजूद जारी रहता है तो ध्यान रहे, 2031 तक भारत की शहरी आबादी 20 करोड़ से बढ़कर 60 करोड़ हो जाएगी। जो देश की कुल आबादी की 40 प्रतिशत होगी। ऐसे में शहरों की क्या नारकीय स्थिति बनेगी, इसकी कल्पना भी असंभव है।

    वैसे, धरती के गर्म और ठंडी होते रहने का क्रम उसकी प्रकृति का हिस्सा है। इसका प्रभाव पूरे जैवमंडल पर पड़ता है, जिससे जैविक विविधता का आस्तित्व बना रहता है। लेकिन कुछ वर्षों से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि की रफ्तार बहुत तेज हुई है। इससे वायुमंडल का संतुलन बिगड़ रहा है। यह स्थिति प्रकृति में अतिरिक्त मानवीय दखल से पैदा हो रही है। इसलिए इस पर नियंत्रण संभव है। कुछ साल पहले चेन्नई, बैग्लुरू और गुरुग्राम की जल त्रासदियों को वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम माना था। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन समिति के वैज्ञानिकों ने तो यहां तक कहा था कि ‘तापमान में वृद्धि न केवल मौसम का मिजाज बदल रही है, बल्कि कीटनाशक दवाओं से निष्प्रभावी रहने वाले विषाणुओं-जीवाणुओं, गंभीर बीमारियों, सामाजिक संघर्षों और व्यक्तियों में मानसिक तनाव बढ़ाने का काम भी कर रही हैं।’

    दरअसल, पर्यावरण के असंतुलन के कारण गर्मी, बारिश और ठंड का संतुलन भी बिगड़ता है। इसका सीधा असर मानव स्वास्थ्य और कृषि की पैदावार व फसल की पौष्टिकता पर पड़ता है। यदि मौसम में आ रहे बदलाव से बीते छह-सात साल के भीतर घटी प्राकृतिक आपदाओं और संक्रामक रोगों की पड़ताल की जाए तो वे हैरानी में डालने वाले हैं। तापमान में उतार-चढ़ाव से ‘हिट स्ट्रेस हाइपरथर्मिया’ जैसी समस्याएं दिल व सांस संबंधी रोगों से मृत्युदर में इजाफा हो सकता है। पश्चिमी यूरोप में 2003 में दर्ज रिकॉर्ड उच्च तापमान से 70 हजार से अधिक मौतों का संबंध था।

    बढ़ते तापमान के कारण प्रदूषण में वृद्धि दमा का कारण है। दुनिया में करीब 30 करोड़ लोग इसी वजह से दमा के शिकार हैं। पूरे भारत में 5 करोड़ और अकेले दिल्ली में 9 लाख लोग दमा के मरीज हैं। अब बाढ़ प्रभावित समूचे महाराष्ट्र में भी दमा के मरीजों की और संख्या बढ़ना तय है। बाढ़ के दूषित जल से डायरिया व आंख के संक्रमण का खतरा बढ़ता है। भारत में डायरिया से हर साल करीब 18 लाख लोगों की मौत हो रही है। बाढ़ के समय रुके दूषित जल से डेंगू और मलेरिया के मच्छर पनपकर कहर ढाते हैं। तय है, बाढ़ थमने के बाद बाढ़ प्रभावित मुंबई को बहुआयामी संकटों का सामना करना होगा।

    बहरहाल जलवायु में आ रहे बदलाव के चलते यह तो तय है कि प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति बढ़ रही है। इस लिहाज से जरूरी है कि मुंबई के बरसाती पानी का ऐसा प्रबंध किया जाए कि उसका जलभराव नदियों, नालों और बांधों में हो, जिससे आफत की बरसात के पानी का उपयोग जल की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों में किया जा सके। साथ ही शहरों की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के लिए कृषि आधारित देशज ग्रामीण विकास पर ध्यान दिया जाए।

    दरअसल मनुष्येत्तर प्राणियों में बाढ़ और सूखे की दस्तक जान लेने की प्राकृतिक क्षमता होती है। इसीलिए बिलों से जीव-जंतु बाहर निकलने लगते हैं और खूंटे से बंधे पालतू मवेशी रंभाकर रस्सी तोड़कर भागने की कोशिश में लग जाते हैं। करीब तीन दशह पहले तक मनुष्य भी इन संकेतों को आपदा आने से पहले भांपकर सुरक्षा के उपायों में जुट जाता था। किंतु मौसम विभाग की कथित भविष्यवाणियों और मौसम मापक उपकरणों के आ जाने से उसकी ये क्षमताएं विलुप्त हो गईं। नतीजतन जनता को जानमाल के संकट कुछ ज्यादा ही झेलने पड़ रहे हैं। ये आपदाएं स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि अनियंत्रित शहरीकरण और कामचलाऊ तौर-तरीकों से समस्याएं घटने की बजाय बढ़ रही हैं।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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