नई दिल्ली। महाराष्ट्र (Maharashtra) में यूं तो उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) की सरकार गिरी है, लेकिन इसका असर विपक्ष (Opposition) की संयुक्त रणनीति (joint strategy) पर पड़ता नजर आ रहा है। जिस तरह देश के बहुत कम ही प्रदेशों में गैर भाजपा सरकार (BJP government) बची है, उसने विपक्ष को रणनीतिक रूप से कमजोर कर दिया है। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी (Shiv Sena and NCP) के साथ मिलकर कांग्रेस (Congress) ने एक तरह से भाजपा (BJP) का रास्ता रोकने की कोशिश की थी। लेकिन ताजा बदलावों के बाद कहना गलत नहीं होगा कि उसकी कोशिशों को बड़ा झटका लगा है।
काम न आया सिद्धांतों से समझौता
विपक्ष ने अपने सिद्धांतों से समझौता करके भाजपा का रास्ता रोकने की तैयारी की थी। महराष्ट्र इस दिशा में सबसे बड़ा उदाहरण बनकर उभरा था। यहां पर कांग्रेस और एनसीपी ने अपने चिर-विरोधी शिवसेना से हाथ मिलाया था। इस रणनीति के पीछे सत्ता पाने का मकसद कम, बल्कि तेजी से हावी होती जा रही भाजपा को रोकने का इरादा ज्यादा था। लेकिन यहां पर शिवसेना विधायकों की बगावत ने इस ढाई साल पुराने प्रयोग को फेल कर दिया।
फिर से सवालों के घेरे में
महाराष्ट्र से पहले इस तरह के प्रयोग 2015 में बिहार और 2013 में कर्नाटक में हुए थे। बिहार में महागठबंधन और कर्नाटक में जेडी (एस) के साथ मिलकर कांग्रेस ने भाजपा के साथ रास्ता रोका था। हालांकि 2019 के बाद विपक्षी दलों में संशय की स्थिति बनने लगी। विपक्ष इसके पीछे केंद्रीय एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल का भी दोष लगाता है। लेकिन महाराष्ट्र की असफलता ने भाजपा के प्रतिद्वंदियों को फिर से सवालों के घेरे में खड़ा करने का काम किया है। गौरतलब है कि झारखंड में झामुमो-कांग्रेस गठबंधन को लेकर भी कयासबाजियों के दौर चल रहे हैं।
मुद्दाहीन होता जा रहा विपक्ष
असल में विपक्ष के पास मुद्दों की कमी भी साफ नजर आ रही है। पूर्व में जिन मुद्दों को लेकर विपक्षी दल चुनाव में उतरे थे वह उतने असरदार नहीं रहे। चाहे वह कमजोर अर्थव्यव्था हो, बदहाल बेरोजगारी या फिर चीन का बढ़ता अतिक्रमण। सिर्फ इतना ही नहीं, कोरोना के समय हुई मुश्किलें, डिमोनेटाइजेशन और किसान सुधारों को लेकर हुए प्रदर्शन का भी चुनाव में बिल्कुल भी असर देखने को नहीं मिला। हालांकि कुछ क्षेत्रीय दलों ने जरूर भाजपा का प्रतिरोध करने में सफलता पाई है, लेकिन कांग्रेस अभी तक इसका कोई तोड़ नहीं निकाल पाई है।
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