महाराजा अग्रसेन त्याग, अहिंसा, शांति व समृद्धि के लिए एक सच्चे समाजसेवी तथा अवतार थे। इनका जन्म प्रतापनगर के राजा वल्लभ के घर हुआ था। उस समय द्वापर युग का अंतिम चरण था। वर्तमान कैलेंडर अनुसार महाराजा अग्रसेनजी का जन्म 5185 वर्ष पहले हुआ। इन्होंने बचपन से ही वेदों, शास्त्रों, अस्त्र-शस्त्र, राजनीति व अर्थनीति आदि का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। सभी क्षेत्रों में काबिल होने के बाद अग्रसेनजी का विवाह नागों के राजा कुमुद की पुत्री माधवी से हुआ। राज वल्लभ ने संन्यास लेकर अग्रसेनजी को राज्य का काम सौंप दिया। अग्रसेनजी ने निपुणता से राज्य का संचालन किया तथा राज्य का विस्तार करते हुए प्रजा के हितों के लिए काम किया। ये धार्मिक प्रवृत्ति के मालिक थे। धर्म में उनकी गहरी रूचि थी। वह परमात्मा में विश्वास रखते थे, इसलिए उन्होंने अपने जीवन में कई बार देवी लक्ष्मीजी से यह वरदान हासिल किया कि जब तक उनके कुल में लक्ष्मी देवी की आराधना होती रहेगी तब तक अग्रकुल धन-सम्पदा से खुशहाल रहेगा। देवी महालक्ष्मीजी के आशीर्वाद से राजा अग्रसेन ने नए राज्य के लिए रानी माधवी के साथ भारत यात्रा की तथा अग्रोहा नगर बसाया। आगे चलकर अग्रोहा कृषि व व्यापार के पक्ष से एक प्रसिद्ध स्थान बन गया। महाराजा अग्रसेनजी ने राज्य व प्रजा की भलाई के लिए 18 हवन किए। उनके 18 पुत्र पैदा हुए। उनके नाम से ही अग्रवाल समाज के 18 गौत्र बने।
आज अग्रवाल समाज ने ही हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरीश चंद्र, पंजाब केसरी लाला लाजपत राय, सर गंगा राम, डॉ. भगवान दास, सर शादीलाल, हनुमान प्रसाद पोद्दार, डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारी व कमलापति सिंघानिया जैसे प्रसिद्ध उद्योगपति भारतीय समाज को प्रदान किए हैं। आज भी 18 गौत्र के अग्रवंशी भारत में ही नहीं, सारे विश्व में जाने जाते हैं। सारे ही महाराजा अग्रसेनजी की नीतियों पर चलते हैं तथा समाज सेवा के क्षेत्र में सबसे आगे हैं।
18 ऋषियों के नाम बनाए 18 गौत्र
अकाल के दौरान चार व्यक्तियों के परिवार ने वेश बदलकर पहुंचे अग्रसेनजी को अपनी थाली से थोड़ा-थोड़ा भोजन निकालकर दिया। इस घटना से प्रेरित होकर अग्रसेनजी ने अपने राज्य में हर निर्धन को 1 रुपया और 1 ईंट दिलाकर समृद्ध करवाया। अग्रसेनजी ने वैश्य समाज की स्थापना के लिए 18 ऋषियों से 18 यज्ञ कराए, 18 ऋषियों के नाम पर 18 गौत्र बनाए। उनके पुत्र भी 18 थे। सन् 1995 में भारत सरकार ने दक्षिण कोरिया से 350 करोड़ रुपए में एक विशेष तेलवाहक जहाज खरीदा, जिसका नाम महाराजा अग्रसेन रखा गया।
अग्रोहा का निर्माण… एक ईंट और एक रुपए का सिद्धांत प्रतिपादित किया…
महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहां अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि-मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया, जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है, यहीं पर महाराजा अग्रसेन ने अपने समुदाय को सशक्त बनाने के लिए एक ईंट और एक रुपए का सिद्धांत प्रतिपादित किया।
अविचल तपस्या से किए थे मनोरथ पूर्ण
कुपित इंद्र ने अपने अनुचरों से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया, जिससे भयंकर अकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि-त्राहि मच गई, तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इंद्र से युद्ध कर प्रताप नगर को विपत्ति से बचाया, लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान शंकर एवं महालक्ष्मी माता की आराधना की। इंद्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएं उत्पन्न कीं, परंतु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुईं एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इंद्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इंद्र को अनुभव प्राप्त है। यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोल्हापुर नरेश महीरथ की शक्तियां तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इंद्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पड़ेगा। तुम निडर होकर अपने नए राज्य की स्थापना करो।
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