– हृदय नारायण दीक्षित
शिव भारतीय देव अनुभूति के निराले देवता हैं। बाकी सब देव हैं, शिव महादेव हैं। वैदिक देव सोम वनस्पति के राजा हैं। शिव अपने मस्तक पर सोम धारण करते हैं। पौराणिक शिव के गले में सांपों की माला है। वे विषपायी भी हैं। ऋग्वेद (ऋ . 7.59.12) के देवता हैं रूद्र। वे तीन मुँह वाले हैं। रुद्र, ‘त्रयम्बकं यजामहे सुगंन्धिं पुष्टि वर्धनम्’-पोषण संवर्धन करते हैं। अकाल मृत्यु नहीं होने देते। मोक्ष भी दिलाते हैं। रुद्र शिव सर्वत्र लोकप्रिय महादेव हैं लेकिन पश्चिमी विद्वानों ने हड़प्पा सभ्यता की खोज के आधार पर शिव को ऋग्वेद के रुद्र से अलग देवता बताया। मार्शल का कथन (मोहनजोदड़ो एण्ड दि इंडस सिविलाइजेशन, खण्ड 1,पृ. 54) है ‘वैदिक देवरुद्र की उपासना शिव से मिला दी गई।’ लेकिन यह बात गलत है। शिवरुद्र यहां ऋग्वेद से लेकर उत्तर वैदिक कालीन उपनिषदों में है। रामायण, महाभारत व परवर्ती साहित्य में भी है। शिव आस्था में सांस्कृतिक निरंतरता है।
यजुर्वेद के 16वें अध्याय में भी शिव आराधन है। ऋषि रुद्र देव का निवास पर्वत की गुहा में बताते हैं। उन्हें नमस्कार करते हैं। चौथे मन्त्र में वे रूद्र ‘शिवेन वचसा’ है, शिव हैं। वे प्रमुख प्रवक्ता हैं। नीलकण्ठ ‘नमस्ते अस्तु नीलग्रीवाय’ हैं। वे सभारूप हैं। सभापति भी हैं (मन्त्र 24)। सेना और सेनापति भी (मन्त्र 25) हैं। वे सृष्टिरचना के आदि में प्रथम पूर्वज हैं। वे ग्राम गली में विद्यमान हैं। वे कूप और नदी में भी हैं। वायुप्रवाह, प्रलय, वास्तु, सूर्य, चन्द्र में भी शिव की उपस्थिति हैं (मन्त्र 37-39)। वे द्युलोक, अन्तरिक्ष, व पृथ्वी तक व्याप्त हैं। मन्त्र 49 में वे रुद्र फिर शिव ‘या ते रुद्रशिवा’ हैं। भारतीय संस्कृति की त्रयी ’सत्य, शिव और सुंदर’ में प्रकट हुई है। इस त्रयी में शिव का अर्थ लोक मंगल है।
अथर्ववेद के 11वें अध्याय में ‘रुद्र सूक्त’ है। रुद्र यहाँ ‘भव‘ (उत्पत्ति) हैं। उनके हजारों शरीर और आँखें हैं (मन्त्र 3)। वे अन्तरिक्ष मण्डल के नियन्ता हैं। उनको नमस्कार है (मन्त्र 4)। वे ‘समदर्शी’-सबको एक समान देखते हैं। ऋषि अथर्वा रूद्र (शिव) के प्रति भावविभोर जान पड़ते हैं ‘‘नमस्तेऽस्तवायते नमो अस्तु परायते। नमस्ते रुद्र तिष्ठत आसीनायोत ते नमः-हमारी ओर आती शिवशक्ति, हमारी ओर से लौटती शिवशक्ति, हमारे पास बैठी, खड़ी शिवशक्ति को सभी परिस्थितियों में नमस्कार है। सायं नमस्कार, प्रातः नमस्कार, रात्रि-दिवा और प्रतिपल नमस्कार’’ (मन्त्र 15-16)। अथर्ववेद में उनसे सुरक्षा की प्रार्थनाएँ हैं। यहां शिव वैयक्तिक सत्ता नहीं है। शिवत्व ने समूचे अस्तित्व को व्याप्त कर रखा है।
शिव नटराज हैं। ‘नाट्यशास्त्र’ में उल्लेख है कि ब्रह्मा ने शिव से भरत का नाटक देखने का आग्रह किया। शिव ने नाटक देखे, इनमें नृत्य और संगीत नहीं था। शिव ने ब्रह्मा से कहा, ‘‘संध्या के समय नृत्य करते हुए मैंने नृत्य का निर्माण किया। मैंने इसे अंगहारों से, जो कारणों से मिलकर निर्मित होते हैं, जोड़ते हुए और भी सुन्दर बनाया है। तुम इन अंगहारों का नाटक की पूर्व रंग विधि में प्रयोग करो। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में शिव ही नृत्य के आदि रचनाकार हैं। नृत्य आनन्दरस की भावपूर्ण, रसपूर्ण देह-अभिव्यक्ति है। भरतमुनि के नाट्शास्त्र (1/133) के अनुसार, ‘‘शिव ने रेचक, अंगहार तथा पिंडिबन्धों के सृजन-कार्य को पूर्ण करने के पश्चात् उन्हें तंडु मुनि को प्रदान किया (1.133)। इन्ही तंडु ने गान वाद्य से संयुक्त कर जिस (नए) नृत्त प्रयोग की सर्जना की वह ताण्डव नाम से प्रसिद्ध हुआ (वही)। महाभारत (अनुशासन पर्व 14.56) में शिवनृत्य और संगीत का वर्णन है। वे अपने हास्य, नृत्यसंगीत उल्लास में सबको सम्मिलित करते हैं, ‘‘हँसते, गायते, च वे नृत्यते च मनोहरम्। वाद्ययत्यति वाद्यानि विचित्राणि गणैमुताः।’’ वे अपने गणों के साथ भी हँसते गाते नृत्य करते हैं। शिव शास्त्र ही नहीं लोक आनंद के भी देवता हैं।
श्वेताश्वातरोपनिषद् के तीसरे अध्याय की शुरुआत में कहते हैं, जो ईश्वर जगत् के अधिपति ‘ईशत ईशनीभिः’ हैं, उनको जानकर लोग अमर हो जाते हैं (अध्याय 3.1)। शिवत्व का बोध अमरतत्व की प्राप्ति है। फिर बताते हैं ‘‘एको हि रुद्रो न द्वितीययाय-वे एक ही रुद्र हैं। कोई दूसरा नहीं।‘‘ उनकी आँखें सब जगह हैं। सब जगह मुख हैं। हाथ हैं, पैर हैं (वही 3.2)। यहाँ रुद्र इन्द्रादि देवताओं को उत्पन्न करने वाले हैं।‘‘ इस उपनिषद् में यजुर्वेद (अध्याय 16) के रूद्रसम्बन्धी मन्त्र हैं। श्लोक 8 में यजुर्वेद (अध्याय 31.18) का दोहराव है, ‘‘वे मृत्यु-बन्धन के दुःख से मुक्ति दिलाते हैं।‘‘
महाकवि कालिदास शिव आस्तिक थे। वे ऋग्वेद की परम्परा बढ़ाते हुए ‘कुमारसम्भव‘ में कहते हैं, ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही मूर्ति के तीन रूप हैं। कभी शिव विष्णु से बढ़ जाते हैं, कभी ब्रह्मा इन दोनों से और कभी ये दोनों ब्रह्मा से बढ़ जाते हैं।‘ यहीं कालिदास ब्रह्मा के मुँह से शिवमहिमा कहलवाते हैं, ‘शंकर अंधकार से पार रहने वाले परम तेज हैं। अविद्या उन्हें छू नहीं पाती। हम और विष्णु उनकी महिमा का ठिकाना नहीं लगा पाए।‘ कालिदास शिवभक्त थे। ब्रह्मवादी थे। ब्रह्म को शिव मानते थे। तुलसीदास भी दार्शनिक स्तर पर ब्रह्मवादी थे। रामभक्त थे। समूची सृष्टि को सीयराममय देखते थे लेकिन उन्होंने अपने अराध्य श्रीराम से शंकर की उपासना करवाई। ‘शिवद्रोही मम दास को स्वप्न में भी नापसंद करने‘ की बात स्वयं श्रीराम ने कही। जैसे श्रीराम मर्यादापुरुषोत्तम होकर भी शिव उपासक हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण भी शिव-उपासक थे। महाभारत (अनुशासन पर्व) में कृष्ण की शिव उपासना का वर्णन है। कृष्ण की एक पत्नी जाम्वंती के पुत्र नहीं हुए। कृष्ण पुत्र की इच्छा से तप के लिए हिमालय गए। उनकी भेंट शिवभक्त उपमन्यु से हुई। उपमन्यु ने कृष्ण को बताया, ‘आप भगवान शिव को खुश कीजिए। आप अपने समान पुत्र पाएँगे‘ (अनुशासन पर्व, 14.68-70)। सारे देवता अमर हैं परन्तु शिव की बात दूसरी है। वे पाशुपत अस्त्र से युक्त हैं। इस अस्त्र के लिए ब्रह्मा और विष्णु भी अबध्य नहीं हैं (वही)। ‘ब्रह्मा ने रथंतर साम के जरिए शिव आराधना की थी। इन्द्र ने भी शतरुद्री पढ़ी‘ (14.282-84)।
श्री कृष्ण ने तप किया। श्री कृष्ण को शिव के दर्शन मिले। श्री कृष्ण ने कहा, ‘सहस्त्रों सूर्यों जैसा तेज दिखाई पड़ा।‘ अर्जुन ने श्री कृष्ण का विश्वरूप देखकर जो शब्द कहे थे, ठीक वही शब्द ‘दिव्य सूर्य सहस्त्राणि‘ श्री कृष्ण ने शिवदर्शन के बाद कहे। श्रीकृष्ण फिर कहते हैं, ‘जब मैंने भगवान हर (शिव) को देखा, मेरे रोंगटे खड़े हो गए। 12 आदित्य, 8 वसु, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार आदि देव महादेव की स्तुति कर रहे थे। इन्द्र और विष्णु अदिति और ब्रह्मा शिव के निकट रथंतर सामगान कर रहे थे‘ (14.386-92)। यहाँ कृष्ण ऋग्वैदिक परम्परावाले देवताओं के नाम दुहराते हैं। आगे कहते हैं, ‘पृथ्वी, अंतरिक्ष, ग्रह, मास, पक्ष, ऋतु संवत्सर, मुहूर्त, निमेष, युग, चक्र तथा दिव्य विद्याएँ शिव को नमस्कार कर रहे थे।‘ यहाँ विज्ञान की टाइम-स्पेस दिक्काल धारणा भी है। काल की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी इकाई शिव आराधक है। यहाँ काल भी शिव आराधन से शक्ति लेते हैं। शिव महाकाल है।
शिव बड़े निराले देवता हैं। वे कृपालु हैं। भोलेनाथ हैं। वे संपूर्णणता के महादेव है। महायोगी है। सौन्दर्य उनकी अनुमति से खिलता है। काम उद्दीपक बसंत उनके अनुशासन में हैं। रामचरित मानस के अनुसार कामदेव ने वसन्त फैलाया। उन्होंने तीसरी आँख खोली। काम भस्म हो गया। कामपत्नी रति बहुत रोई। शिव ने काम को पुनर्जीवन दिया। वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं। परम योगी हैं। नर्तक भी हैं। नटराज हैं। अभिनेता भी हैं। परम शक्तिशाली भी हैं। सावन माह उन्हें प्रिय बताया जाता है। उन्हें नमस्कार है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
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