– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
भारत अपने गौरवशाली ”स्व” को जानने के नए संदर्भों में 75 वर्ष का उत्सव मना रहा है। हिमालयी क्षेत्र से आरंभ हुआ ”उन्मेष” देश के हृदय प्रदेश आ पहुंचा है। ‘उन्मेष’ का यह दूसरा संस्करण है। पहला आयोजन शिमला में गत वर्ष हुआ ही है। आप पूछ सकते हैं आखिर ये उन्मेष है क्या? वस्तुत: धरती पर सूर्य की पहली किरण पड़ते ही जगत जाग उठता है। जागना अर्थात अंतस की जागृति, क्रिया के रूप में जागना और विचारों में जाग जाना है। आप जब जागे रहते हैं तो आपके बाहर से लेकर अंदर तक सभी कुछ सचेत होता है। आप हर क्रिया की प्रतिक्रिया देने में सक्षम रहते हैं।
इसी जागने को संस्कृत में ‘उन्मेष’ कहा गया। जीवन में ‘उन्मेष’ आ जाए तो फिर किसी और की आवश्यकता नहीं रहती । यह ‘उन्मेष’ जीवन से जुड़ी हर जरूरत को पूरा करने में सक्षम है। जैसे कि जो जागा हुआ है, फिर उसे किस का भय ! स्वभाविक है जो जागा हुआ है, ‘उत्कर्ष’ भी उसी का होगा। समृद्ध, प्रशंसा, श्रेष्ठता, उत्तमता, अधिकता, उन्नति, उच्च गुणवत्ता जोकि उत्कर्ष शब्द के ही पर्यायवाची हैं का भोक्ता भी वही बनेगा।
संयोग देखिए; एक ओर भारत का सबसे समावेशी और भाषाओं की संख्या के प्रतिनिधित्व के संदर्भ में एशिया का सबसे बड़ा साहित्य आयोजन यह है, तो दूसरी तरफ ‘उन्मेष’ अपने साथ ‘उत्कर्ष’ को जोड़कर दुनिया का सबसे बड़ा कला-संस्कृति का उत्सव यह बन गया है। वैसे भी ‘उन्मेष’ के बिना ‘उत्कर्ष’ संभव नहीं है। हमारे यहां कहा भी गया है; उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है। जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सोई पावत है।
सभ्यताओं में संस्कृति और संस्कार का भोर भी कुछ ऐसा ही है। आपको नित्यप्रति जागना है, जो इसके प्रति आग्रही नहीं, दुनिया में विलुप्त हो चुकीं अब तक की अनेक सभ्यताओं की तरह वह भी देर सवेर समाप्त हो जाएंगे । रह जाता है तो सिर्फ किताब का एक पन्ना; बहुत हुआ तो दो-चार पन्ने तक सिमटा इतिहास। यदि इतिहास को पुन: जागृत करना पड़ जाए तो परम्पराओं की लकड़ी चाहिए, ऊष्मा का कठोर श्रम और न पीछे हटने वाला साहस चाहिए, तब कहीं जाकर इतिहास अपने आप को पुन: दोहराता है।
इतिहास से याद आया, भारत की पिचहत्तर वर्ष पहले की यात्रा सांस्कृतिक यात्रा तो थी, किंतु राजनीति के स्तर पर भारत कई भागों में बंटा हुआ था। अलग-अलग राज्य और अलग-अलग संहिताएं। मुद्राएं भी अलग, कर की प्रणाली भी अलग, यदि कुछ अलग नहीं तो वह था वृहद भारत की सांस्कृतिक अवधारणा। जिसमें हिमालय के धवल शिखर से लेकर सुदूर हिंद महासागर (इंदू सरोवर) तक एक भारत, जम्मूद्वीप, आर्यवर्त, अजनाभवर्ष, हिन्द, हिन्दुस्थान कई नामों से ख्यात एक अखण्ड भारत । जिसका संकल्प त्रिकाल संध्या-वंदन में और हर उस नई शुरूआत में जो प्रत्येक भारतवासी के जीवन से जुड़ी है।
भारतवासी संकल्प लेता है, जिसके बोल ही विष्णु र्विष्णु र्विष्णु: तीन बार विश्व के प्रत्येक अणु-परमाणु तत्व विष्णु को साक्षी मानकर शुरू होते हैं और काल की गणना में कल्प, मन्वन्तर, युग की गणना करते हुए साक्षी भाव से भूर्लोके जम्बू द्वीपे भरत खण्डे भारत वर्षे आर्या वर्तान्तर्गत ब्रह्मा वर्तस्य भारत क्षेत्रे भारत देशे कहते हुए यह संकल्प आगे बढ़ता है । तो यह हुआ संस्कृतिक भारत का दृष्य । जिसमें कभी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यान्मार, बांग्लादेश, श्रीलंका, थाईलैण्ड, कंबोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया और ईरान तक समाए हुए थे। किंतु काल प्रवाह में सांस्कृतिक भारत का जो दृष्य कल था, वह आज का नहीं है।
इस सांस्कृतिक भारत से राजनीतिक तौर पर 12 भाग टूटकर अलग हो चुके हैं। शेष भारत की विवधता में सम्वेत स्वर 15 अगस्त 1947 के प्रथम ऊषाकाल में हमने सुने और अनुभव किए । यहीं से एक नए भारत की यात्रा राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर से आरंभ होती है । यह संस्कृति संस्कार जन्य है। क्योंकि संस्कृति संस्कारों को जन्म देती है और ये संस्कार लोक के हैं, ग्राम्य जीवन के हैं, नगर के हैं, समूह, समाज, परिवार यहां तक कि व्यक्ति के अपने हैं। इन संस्कारों से ही विविध कलाओं का प्रादूर्भाव होता है। सबका हित करने वाला साहित्य इसी संस्कार से निकलता है और इसीलिए यह साहित्य शब्द उतना प्राचीन है जितना कि मनुष्य जीवन।
साहित्य स्वरूप को स्वतंत्र रूप से विश्लेषित करने का प्रथम प्रयास ‘अग्निपुरान’ में देखा जा सकता है। जिसके रचयिता वेदव्यास हैं। यद्यपि साहित्य स्वरूप विश्लेषण का प्रारंभ संस्कृत साहित्य में आचार्य भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ से माना जाता है। इस तरह से अनेक रूपों में शुरू हुई साहित्य, संस्कार और संस्कृति की यात्रा हमें देखने को मिलती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते हैं कि जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है। ह्रदय की मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते है। कविता जीवन और जगत की अभिव्यक्ति है। जयशंकर प्रसाद का मानना भी यही है। काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं होता। वह एक रचनात्मक ज्ञानधारा है।
वस्तुत: जिस समाज और देश में ज्ञान की यह धारा जितनी तेज गति से प्रवाहित होती है, उस को उत्तरोत्तर प्रगति से कोई रोक नहीं पाता है। आदि-अनादि देश भारत जोकि मानव इतिहास में दुनिया का सबसे पहला जागृत समाज भी है, यह चमत्कार सदियों से अनेकों बार करता आया है। ज्ञान की धारा यहां सतत प्रवाहित है, इसलिए यह यहां की सभ्यता और संस्कृति से जुड़े संस्कार को आगे बढ़ा देती है।
भारत की यह विशेषता ही है जो विविध पंथ मत दर्शन में भेद नहीं वैशिष्ट्य का दिग्दर्शन होता है। संपूर्ण भारत में एक अभेद्य अखण्ड संस्कृती की बहती अमृत धारा की परंपरा को आप अनुभव करते हैं । इसे समाज के सहयोग से आगे बढ़ाने के कार्य में सरकारों का भी सहयोग आप देख सकते हैं। इस संदर्भ में केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद से पिछले नौ सालों के दौरान जो नवाचार हुए हैं उन्हें देखा जा सकता है । जैसे कि अभी भोपाल में राष्ट्रपति मुर्मू द्वारा आरंभ हुए साहित्य, कला, संस्कृति की त्रिवेणी में अंतरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव के साथ ही संगीत नाटक अकादेमी द्वारा ‘उत्कर्ष’ शीर्षक से लोक एवं जनजातीय प्रदर्शनकारी कलाओं का राष्ट्रीय उत्सव हो रहा है।
वस्तुत: यहां इन दो आयोजनों को एक साथ जोड़ने के पीछे का हेतु भी यही है कि दोनों के मिलन से संस्कृति की अमृत धारा तेज गति से बहे । इसमें अंतरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव ‘उन्मेष’ अभिव्यक्ति का उत्सव है। साथ में आजादी का अमृत महोत्सव के अवसर पर भारत की लोक एवं जनजाति अभिव्यक्तियों का राष्ट्रीय उत्सव ‘उत्कर्ष’ है। हमारे लिए यह गौरवशाली क्षण है जोकि एक ही स्थान पर हम सभी भारत की विविध कलाओं का दर्शन कर रहे हैं। इसलिए मध्यप्रदेश में निवास करनेवालों से विशेषकर भोपाल में निवास कर रहे सभी लोगों से कहना यही है कि अपने व्यस्ततम समय में से थोड़ा समय भारत पर गर्व करने के लिए निकालिए । छह अगस्त तक चल रहे इस उन्मेष-उत्कर्ष में रविंद्र भवन के हंसध्वनी सभागार हो आइए। हमारे बच्चे भी जाने, अपनी कला, संस्कृति और इतिहास के साथ परम्परा और आधुनिकता के अंतर्संबंधों को। यहां हम उम्रदराज भी अपने भारत में जन्म लेने पर गर्व करने के कुछ क्षण जी लें।
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