नई दिल्ली (New Delhi)। भारत (India) दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र (world’s largest democracy) है। दुनिया के दूसरे देशों में भारत की तरह भाषायी, धार्मिक, क्षेत्रीय विविधता (linguistic, religious, regional diversity) कहीं और नजर नहीं आती। ऐसे में विविधता से भरे देश और अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न मुद्दों को आधार बनाकर वोट डालने की मानसिकता रखने वाले मतदाताओं (Voters) को साधना किसी एक दल के लिए टेढ़ी खीर है। हालांकि, देश में ऐसे कई कारक हैं, जो अलग-अलग कारणों से मतदाताओं के विभिन्न वर्गों को प्रभावित करने के साथ एक धारणा तैयार करते हैं। इसी धारणा का मतदान और नतीजे पर हमेशा से सीधा असर पड़ता रहा है।
नेतृत्व या चेहरा
आम चुनाव (General election) में नेतृत्व या चेहरा अहम कारक रहा है। जिस दल या गठबंधन का चेहरा जितना मजबूत व लोकप्रिय, उसे उतना ही लाभ। मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग है, जो दलों या गठबंधन का नेतृत्व करने वाले चेहरे के आधार पर फैसला करता है। नेहरू, इंदिरा, वीपी सिंह, वाजपेयी से लेकर वर्तमान में मोदी तक। यह फेहरिस्त लंबी है। हालांकि, ऐसे कई अवसर भी आए, जब चेहरे के सवाल को पीछे छोड़ मतदाताओं ने सत्तारूढ़ दल या गठबंधन के खिलाफ नाराजगी जताते हुए चेहरे को महत्व नहीं दिया। नब्बे के दशक से वर्तमान सदी के पहले दशक तक गठबंधन सरकारों के दौर में ऐसे कई उदाहरण सामने आए। 2014 से एक बार फिर से नतीजे तय करने में चेहरे की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। इस बार राजग का चेहरा फिर से पीएम मोदी हैं। देखना दिलचस्प होगा कि मतदाता इस बार चेहरे को अहमियत देते हैं या दूसरे कारक को।
आधी आबादी
आधी आबादी यानी महिला वर्ग (Half population women) का अलग वोट बैंक के रूप में स्थापित होना भारतीय राजनीति में बड़े परिवर्तन का सूचक है। हालिया कई विधानसभा चुनावों में आधी आबादी ने जनादेश तय करने में अहम भूमिका निभाई है। महिलाएं अपनी पसंद तय कर रही हैं। कई मतदान केंद्रों पर पुरुषों से ज्यादा वोट डालने पहुंच रही हैं। बदले हालात में राजनीतिक दल इस वर्ग पर केंद्रित योजनाएं और नीतियां बना रहे हैं। केंद्र से लेकर राज्यों तक में महिला केंद्रित योजनाओं, कार्यक्रमों, नीतियों की बाढ़ आ गई है। इस बार बीते आम चुनाव के मुकाबले 9.3% अधिक (47.1 करोड़) महिलाएं वोट डालेंगी। जाहिर है महिलाओं के बिना किसी दल का काम नहीं चलने वाला।
युवा मतदाता
चुनाव में 18-29 आयुवर्ग के मतदाता नतीजे तय करने में अहम कारक होंगे। कुल मतदाताओं में इनका हिस्सा 22 फीसदी से अधिक है। इनमें 18-19 साल के दो करोड़ मतदाता पहली बार वोट डालेंगे। इस वर्ग की अहमियत को देखते हुए पीएम मोदी ने इन्हें देश की चार जातियों में एक बताया है। दूसरी ओर, विपक्ष का मुद्दा बेरोजगारी है। मतलब युवा वर्ग जिस ओर झुकेगा, उसका पलड़ा भारी रहेगा।
बूथ प्रबंधन
बूथ प्रबंधन भी चुनावी नतीजे तय करने में अहम कारक है। खासतौर पर नजदीकी मुकाबले में। करीब 10 लाख बूथों के प्रबंधन के लिए बड़ा तंत्र चाहिए। कार्यकर्ता आधारित दलों ने बूथ स्तर पर प्रबंधन के लिए कई उपाय किए हैं। भाजपा का बूथ कमेटी और पन्ना प्रमुख का प्रयोग अरसे से चर्चा का विषय रहा है। भाजपा, टीएमसी, आप, बीजद, वाम दलों को बेहतर बूथ प्रबंधन का लाभ मिलता रहा है।
सोशल मीडिया
बीते एक दशक में चुनावों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल बेतहाशा बढ़ा है। अध्ययन बताते हैं कि देश में 86 करोड़ लोग स्मार्टफोन या किसी दूसरे माध्यम से इंटरनेट चलाते हैं। इनमें 82 करोड़ सक्रिय इंटरनेट यूजर हैं। भाजपा ने 2014 के चुनाव में फेसबुक, 2019 में व्हॉट्सएप का खूब इस्तेमाल किया। इस बार पार्टी का सबसे अधिक जोर सोशल मीडिया क्रिएटर व यूट्यूबरों को साधने पर है। दूसरे दल भी सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में सोशल मीडिया भी जनादेश तय करने में एक अहम कारक साबित होगा।
नारे
चर्चित नारे भी दल या नेता के प्रति लोगों को आकर्षित करने में असरदार रहे हैं। कई बार नारे घाटे का सौदा भी साबित हुए हैं। मसलन, 2004 में भाजपा को ‘इंडिया शाइनिंग, फील गुड’ के नारे ने तो 2019 में कांग्रेस को ‘चौकीदार चोर है’ ने नुकसान पहुंचाया। इस बार पक्ष या विपक्ष के नारों में गारंटी शब्द ज्यादा प्रचलित हो रहा है।
अर्थव्यवस्था
वर्ग विशेष में धारणा बनाने में अर्थव्यवस्था का बड़ा योगदान रहा है। यही तय करती है कि भविष्य में रोजगार, निवेश, महंगाई जैसे सीधे प्रभावित करने वाले कारकों की क्या स्थिति होगी। यही कारण है कि विपक्ष लगातार महंगाई, बेरोजगारी का मुद्दा उठा रहा है। उसकी कोशिश इस बहाने यह धारणा बनाने की है कि देश की अर्थव्यवस्था सही पटरी पर नहीं है। दूसरी ओर, मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में देश को दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने के बाद अगले कार्यकाल में तीसरी बड़ी जीडीपी बनाने का भरोसा दे रही है।
मुद्दा
कई चुनावों में तो किसी खास मुद्दे ने जनादेश तय करने में बड़ी भूमिका निभाई है। मसलन, 1977 के चुनाव में विपक्ष ने आपातकाल को बड़ा मुद्दा बनाया। 1989 में बोफोर्स मुद्दे पर अजेय मानी जाने वाली कांग्रेस को पटखनी दी। 1998 व 1999 के चुनाव में भाजपा का विदेशी मूल का मुद्दा कारगर रहा था। इस चुनाव में अब तक कोई बड़ा मुद्दा सामने नहीं आया है।
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved