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    शिवजी का डमरू और तीनों लोक

  • August 11, 2024

    – हृदयनारायण दीक्षित

    भारत में सावन का महीना शिव उपासना का जलरस भरा मुहूर्त है। शिव सोम प्रेमी हैं। सोम प्रकृति की सृजन शक्ति है। सृजन की यही शक्ति शिव ललाट की दीप्ति है। शिव के माथे पर सोम चन्द्र हैं। ऋग्वेद के ऋषियों के दुलारे सोम वनस्पतियों के राजा हैं। सोम प्रसन्न होते हैं। वनस्पतियां-औषधियां उगती हैं। खिलती हैं। खिलखिलाती हैं। भारतीय सप्ताह में एक दिन सोम का। पहला दिन रविवार रवि का तो दूसरा दिन सोमवार सोम का। शिवभक्तों को सोमवार प्रीतिकर है। शिव भी सोमवार का दिन भक्तों के लिए ही खाली रखते होंगे। काशी बहुत जाता हूं। काशी मंदिर में शिव उपासना की मूर्ति है। शिव दर्शन कई बार हुआ। मैंने समूची वाराणसी को सोम शिव पाया। हर-हर महादेव की गूंज व लोक उल्लास।


    शिव भोले शंकर हैं। औघड़दानी हैं। गण समूहों के मित्र हैं। गणों के साथ स्वयं भी नृत्य करते हैं। वे रूद्र शिव एशिया के बड़े भूभाग में प्राचीन काल से ही उपासित हैं। शिव गूढ़ रहस्य हैं। युधिष्ठिर के मन में शिव जिज्ञासा थी। शर शैय्या पर लेटे भीष्म से उन्होंने तमाम प्रश्न पूछे थे। वे भीष्म से शिव गुण भी सुनना चाहते थे। भीष्म ने कहा, ”शिवगुणों का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूं। वे सर्वत्र व्यापक हैं। वे प्रकृति से परे और पुरुष से विलक्षण हैं। श्रीकृष्ण के अलावा उनका तत्व दूसरा कोई नहीं जानता।” फिर अर्जुन से कहा, ”रूद्र भक्ति के कारण ही श्रीकृष्ण ने जगत को व्याप्त किया है।” यहां श्रीकृष्ण के विराट का कारण भी शिव तत्व का बोध है। मैं भारत के मन के साथ मन मिलाते हुए महादेव को नमस्कार करता हूं।

    ऋग्वेद वाले रूद्र शिव ‘सुगंधिं पुष्टिवर्द्धनं’ हैं। देवों को पुष्पार्चन किया जाता है लेकिन शिव को बेलपत्र और धतूरे का फल। शिव मस्त मस्त बिंदास देवता हैं। परम योगी। चरमोत्कर्ष वाले नृत्यकर्ता। श्रीकृष्ण की बांसुरी की धुन पर तीनों लोक मोहित हुए थे तो शिव के डमरू की धुन पर तीनों लोक अस्तित्व में रहते हैं। शिव जब चाहते हैं, रूद्र हो जाते हैं। प्रलयंकर हो जाते हैं लेकिन यही रूद्र शिव भी हैं। शिव महाकाल हैं। ऋग्वेद में ”जो रूद्र है, वही शिव भी है।” त्रिशूल उनका हथियार। ये तीन शूल क्या हैं? ये दैविक, दैहिक और भौतिक कष्ट तो नहीं हैं? या भौतिक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक वेदनाएं हैं। शिव दुख हारी हैं-त्रिशूल धारक जो हैं। लेकिन सोचने से मन नहीं भरता। मन यहां, वहां, जहां, तहां भागता ही है। मैं मन ही मन यजुर्वेद के शिव संकल्प मंत्र दोहराता हूं-”हमारा मन भागता है। यहां वहां। ऐसा हमारा मन शिव संकल्प से भरापूरा हो-तन्मे मनः शिव संकल्पं अस्तु।” मैं राजनीति में हूं सो मंच, माला, माइक का त्रिशूल भीतर तक धंसा हुआ है। सोम सामने है, भीतर ओम है। लेकिन सोम से वंचित हूं। ओम् की अनुभूति नहीं। करूं तो क्या करूं? ऋग्वेद के ऋषि वशिष्ठ ने आर्तभाव से पुकारा था त्र्यम्बक रूद्र को-हमें पकी ककड़ी की तरह मृत्यु बंधन से मुक्त करो। मैं स्वयं भी डंठल से चिपका हुआ पका फल हूं।

    संसार क्षर से क्षर की यात्रा है। अन्तर्यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है। पत्ती, पुष्प से पेड़ और पेड़ से जड़ की यात्रा सुगम है। जड़ें देखते ही बीज का ध्यान आता है। बीज के भीतर अनंत संभावनाएं हैं। पेड़, शाखा, पत्तियां और फूल। फिर-फिर बीज। ओम प्राण शक्ति है और सोम बीज का पल्लवन पुष्पन। ऋग्वेद के सोम कम लोगों को याद हैं लेकिन सोमवार हर सातवें दिन उन्हीं की स्मृति दिलाता है। सोम से ओम् की यात्रा शिव है। यहां कोई भौगोलिक दूरी नहीं। सोम और ओम साथ-साथ हैं। सोम शिव के ललाट पर हैं ही। शिव रूपक का सोम प्रतीक बड़ा प्यारा है। ऋग्वेद में सोम को पृथ्वी का निवासी बताया गया है। सोम असाधारण देवता हैं। आनंददाता भी हैं।

    सत्य, शिव और सुंदर की त्रयी आकर्षक है। इस त्रयी में सत्य महत्वपूर्ण है लेकिन सत्य को शिव भी होना चाहिए। सत्य और शिव का एकात्म सुंदर होता है। शिव में तीनों हैं। शिव और लोकमंगल पर्यायवाची हैं। लेकिन यह ऊर्जा सहज प्राप्य नहीं है। शिव के प्रति लोक आस्था विस्मयकारी है। कांवड़िये लम्बी पदयात्रा करते हैं। शिव प्राप्ति के प्रयास जरूरी हैं। पार्वती को भी शिव प्राप्ति के लिए महातप करना पड़ा था। कालिदास के ‘कुमार संभव’ में तपरत पार्वती को एक ब्रह्मचारी ने भड़काया ”पार्वती! आप भी किस प्रेम में फंस गई। आपका सुंदर हांथ सांप लिपटे शंकर को कैसे छुएगा। कहां हंस छपी चूनर ओढ़े आप? और कहां खाल ओढ़े शंकर?” शिव शंकर के रूप-कुरूप पर उसने बहुत कुछ कहा। पार्वती ने कहा, ”संसार के सारे रूप शिव के ही हैं-विश्वकूर्तेखाधार्यते वपु।” शिव ही सभी रूपों में रूप रूप प्रतिरूप हैं। कालिदास के कथानक में तब शिव ने अपना रूप प्रकट कर दिया। शिव बोले, ”अब मैं तुम्हारा दास हूं, पार्वती-तवस्मि दासः।” मन करता है कि पूंछू शिव से-महादेव! इतना कठोर तप क्यों कराते हैं? लेकिन शिव तप का पुरूस्कार भी तो देते हैं। तप प्रभाव में वे स्वयं भक्त के भी भक्त बन जाते हैं।

    पौराणिक शिव बड़े आकर्षक हैं। बैल की सवारी और पार्वती से बतरस। ‘विज्ञान भैरवतंत्र’ में शिव और पार्वती के मध्य गहन दार्शनिक संवाद का उल्लेख है। कालिदास ने शिव बरात का मनोरम शब्द चित्र खींचा है। बताया है कि शिव बरात नगर पहुंची। स्त्रियां अपना कामधाम छोड़कर छतों की ओर भागी। एक की जूड़े की माला टूट गई। एक ने दायीं आंख में ही काजल लगाया था, वह बायीं आंख का काजल लगाना छोड़ भाग चली। पार्वती-शिव जगत के माता -पिता हैं। विवाह के बाद देवों ने शुभकामनाएं दीं।

    भारतीय साहित्य शिव-पार्वती के सम्वाद से भरापूरा है। पार्वती प्रश्नाकुल हैं और शिव समाधानकत्र्ता। तुलसीदास के रामचरित मानस में पार्वती ने सीधे राम के अस्तित्व पर ही पूंछा। शिव ने ब्रह्म तत्व समझाया लेकिन पार्वती ने स्वयं परीक्षा ली। यह भी उचित था। अनुभव करना सुनने से ज्यादा श्रेष्ठ है। लेकिन शिव सब जानते थे। वे सर्वत्र उपस्थित हैं। उनके कण्ठ में विष है। वे नीलकंठ हैं। गले में सांप भी हैं लेकिन चन्द्रमा शिव का प्रिय आभूषण है। शरद्चन्द्र की पूनो शिव रस सोम की ही वर्षा करती है। सोम और चन्द्र पर्यायवाची हैं। शिव ने सनत कुमारों को बताया कि उनके तीन नेत्र हैं। सूर्य दांया नेत्र है और बांया चन्द्रमा। अग्नि मध्य नेत्र हैं।

    हम भारतवासी बहुदेव उपासक हैं। लेकिन बहुदेववादी नहीं। बहुदेव उपासना हमारा स्वभाव है। शिव एशिया के बड़े भाग में प्रचलित देव हैं। शिव देव नहीं महादेव हैं। वे हजारों बरस से भारत के मन में रमते हैं। एक अकेले ही। एको रूद्र द्वितीयोनास्ति। कुछेक विद्वान रूद्र शिव को आयातित देवता मानते हैं। शिव उपासना पश्चिम एशिया व मध्य एशिया तक विस्तृत थी भी। प्रख्यात मार्क्सवादी चिन्तक डाॅ. रामविलास शर्मा ने भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश (पृष्ठ 679) में लिखा है ”वास्तव में शैवमत, वैष्णवमत, बौद्धमत इन सबके स्रोत भारत में थे। यहां से इन मतों का प्रसार मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया में हुआ।” शिव उपासना का मूल केन्द्र भारत है। यजुर्वेद प्राचीन है। इसका 16वां अध्याय शिव की ही स्तुति है। यहां शिव कण-कण में व्याप्त चेतना हैं।

    (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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