– डॉ. आनंद सिंह राणा
भगवान परशुराम (भगवान विष्णु के छठवें रुद्र रूप अवतार, भगवान शिव के अनन्य शिष्य ) के संबंध में विविध तथ्यों पर प्रकाश डालना वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक प्रासंगिक है। भगवान परशुराम का जबलपुर से घनिष्ठ संबंध रहा है, परंतु सबसे पहले उस षड्यंत्र को मुखर कर दूं, जो भगवान परशुराम को लेकर रचा गया है, तथा जो भविष्य में ब्राम्हण और क्षत्रियों के मध्य वैमनस्यता और विवाद का कारण बन सकता है? तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों और वामपंथी इतिहासकारों ने अर्थ का अनर्थ लगाकर जनश्रुति में भी प्रचारित कर ही दिया है कि भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया है परंतु वास्तविकता तो कुछ और ही है?जिसे इस आलेख में स्पष्ट किया गया है! सोशल मीडिया और उत्सवों में तथा आक्रोश में ऐसे कथन से भगवान परशुराम केवल एक वर्ग विशेष के लिए पूजनीय हो जाते हैं जबकि दूसरे वर्ग के लिए चुनौती बन जाते हैं और आस्थायें दरकने लगती हैं, जबकि भगवान परशुराम सर्वव्यापी हैं और सबके हैं! भगवान परशुराम ही थे जिन्होंने कर्म के सिद्धांत को वर्ण का आधार बनाया।
सच तो यह है कि हैहय वंशी (चंद्रवंशी) क्षत्रिय राजा सहस्त्रार्जुन (कार्त्तवीर्य अर्जुन) से बखेड़ा खड़ा हुआ और उसके बाद इन्हीं से संबंधित अहंकारी और अत्याचारी क्षत्रियों राजाओं से पृथ्वी को 21 बार रहित किया और धर्म की स्थापना की। इस अनुष्ठान में सूर्यवंशी क्षत्रियों ने भगवान परशुराम का सदैव साथ दिया। यह विचारणीय है कि यदि सभी क्षत्रियों का समूल विनाश किया होता तो अयोध्या के रघुकुल से भी उनका संघर्ष हुआ होता, परंतु ऐंसा कभी नहीं हुआ अन्य और भी उदाहरण हैं।जिसके संदर्भ में पृथक से लिखा जाना अपेक्षित है। पुराणों, धर्मेतर ग्रंथों पुरातत्वीय स्रोतों और ऐतिहासिक संदर्भों के आलोक में त्रेतायुग में भगवान विष्णु के दो महत्वपूर्ण अवतार हुए प्रथम भगवान परशुराम – जिन्होंने हैहयवंशी सहस्त्रार्जुन (रावण जिससे भयाक्रांत रहता था) वध किया। द्वितीय भगवान श्रीराम – जिन्होंने रावण का वध किया और धर्म की स्थापना की। लेकिन आज भगवान परशुराम के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
आरंभ यदि जाबालिपुरम से नहीं किया तो भगवान परशुराम के अवतरण की कथा और इतिहास अधूरा रह जायेगा। इसलिए महर्षि भृगु (परशुराम के परदादा) से प्रारंभ करना ही उचित होगा। माँ नर्मदा के किनारे जाबालिपुरम का क्षेत्र जाबालि ऋषि और भेड़ाघाट से भड़ौंच तक का क्षेत्र महर्षि भृगु के नाम से भृगुक्षेत्र कहलाता था। भेड़ाघाट में महर्षि भृगु की तपोस्थली एवं आश्रम था। उस पर माहिष्मती के महान हैहयवंशी (चंद्रवंशी) राजाओं का राज्य फैला था जिसके राजगुरु – महर्षि भृगु थे, महर्षि भृगु के यहाँ महर्षि ऋचीक (ऋचिका) का अवतरण हुआ था, इनकी पत्नी सत्यवती से महर्षि जमदग्नि का अवतरण हुआ था। महर्षि ऋचीक भी हैहयवंशियों के राजगुरु थे।
उन दिनों हैहयवंश में महारथी सहस्त्रार्जुन का भी जन्म हो चुका था। सहस्त्रार्जुन माहिष्मती के राजा बने और महर्षि जमदग्नि उसके राजगुरु बने। महर्षि जमदग्नि का विवाह कन्नौज नरेश गाधि (प्रसेनजित) की सुपुत्री – रेणुका से हुआ। उधर सहस्त्रार्जुन (कार्तवीर्य अर्जुन) असीम शक्ति अर्जित कर साम्राज्य को विशाल बना दिया, वह किसी से पराजित नहीं हुआ इसलिए भी मदांध हो गया और अत्याचारी – अनाचारी हो गया था। इसलिए महर्षि जमदग्नि से नहीं बनी, महर्षि जमदग्नि ने राजगुरु का पद त्याग दिया और अपने आश्रम आ गये। माता रेणुका ने अपने पांचवें पुत्र के लिए महादेव की उपासना की और भगवान परशुराम का अवतरण हुआ। सहस्त्रार्जुन भगवान परशुराम का मौसा था। भगवान परशुराम की प्रारंभिक शिक्षा महर्षि ऋचीक और मामा विश्वामित्र के सानिध्य में हुई।
भृगु वंशी होने के नाते भगवान परशुराम का जबलपुर से गहरा नाता रहा है। परशुराम कुंड के समीप प्राचीन परशुराम मंदिर है, जिस स्थान पर प्रतिमा है उसके पास ही परशुराम पर्वत शिखर है अनादिकाल से स्थापित भगवान परशुराम के चरण चिन्ह और अन्य साक्ष्य प्रमाणित करते हैं कि परशुराम जी यहां वर्षों तक तपस्यारत थे। परशुराम कुंड में कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही मां नर्मदा का प्राकट्य हुआ था। जनश्रुति के अनुसार भगवान परशुराम प्रतिदिन स्नान करने नर्मदा जाते थे। एक दिन मां नर्मदा प्रकट होकर बोलीं कि स्नान करने आने से आपका समय व्यर्थ होता है। अत: आप कल सुबह तपस्थली में जहां पहला कदम रखेंगे वहीं मैं प्रकट हो जाऊंगी। दूसरे दिन भगवान परशुराम ने जहां पहला कदम रखा वहीं मां नर्मदा जलराशि के रूप में प्रकट हो गईं।
विद्वान श्री के. एम. मुंशी ने अपनी कृति ‘भगवान परशुराम’ में नर्मदा के किनारे भृगु वंश के इतिहास पर समुचित प्रकाश डाला है। जहाँ एक ओर जबलपुर में खमरिया के पास मटामर में भगवान परशुराम की तपस्या के प्रमाण मिले हैं तो वहीं दूसरी ओर परशुराम की किशोरावस्था में अघोर तंत्र की शिक्षा प्राप्त करने के प्रमाण भी मिलते हैं।माँ नर्मदा के लम्हेटा के उस पार लम्हेटी गांव के पास डडवारा नामक ग्राम में अघोर तंत्र की शिक्षा का केंद्र था, अघोर तंत्र के आचार्य डड्डनाथ वहां कुलाधिपति थे , अघोर तंत्र की शिक्षा भगवान परशुराम ने उन्हीं से प्राप्त की थी। ऋचीक ने “सारंग” नामक धनुष प्रदान किया। ब्रम्हर्षि कश्यप ने वैष्णव मंत्र दिये। तदुपरांत परशुराम ने कैलाश गिरिश्रंग जाकर महादेव से शिक्षा प्राप्त की। महादेव ने परशुराम को “विद्युदभि” परशु एवं “विजया” धनुष कमान दिया और साथ ही महान् युद्धकला “कलारिपायट्टू” भी सिखाया।
एक दिन माता रेणुका चित्ररथ गंधर्व पर मानसिक रूप से आसक्त हो गयीं, जिसे जमदग्नि ने जान लिया और अपने पुत्रों को रेणुका को मारने आदेश दिया जिसे परशुराम पूर्ण किया परंतु अपने पिता जमदग्नि के वरदान से सभी को पुनर्जीवित भी किया। इसकी आड़ में सहस्त्रार्जुन अपनी सेना समेत महर्षि जमदग्नि से मिलने आया और कामधेनु गाय कपिला के चमत्कार देखकर मोहित हो गया। एक दिन मौका देखकर महर्षि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़कर कपिला को ले गया। फलस्वरूप सहस्त्रार्जुन और परशुराम का महायुद्ध हुआ, जिसमें परशुराम ने सहस्त्रार्जुन का वध कर दिया, जिसका बदला सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने महर्षि जमदग्नि की हत्या करके लिया। माता रेणुका भी सती हो गयीं। यहीं से आरंभ हुआ महासंग्राम जिसमें हैहयवंशी (चंद्रवंशी) राजा जो सहस्त्रार्जुन के समर्थन में उतरे उनका इक्कीस बार पृथ्वी से विनाश किया गया।
परशुराम ने सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से अपने पिता का तर्पण किया, परंतु इस महासंग्राम(लगभग 16300 वर्ष पूर्व एक गणना के अनुसार) में सूर्यवंशी क्षत्रियों और शेष चंद्रवंशी राजाओं ने परशुराम का समर्थन किया। आईये जानते हैं कौन किसके साथ था। परशुराम के साथ अवन्ति नरेश, आर्यावर्त के सम्राट सुदास, विदर्भ नरेश, पंचनद नरेश, गांधार नरेश मांधाता, मेरु नरेश, आर्योण (ईरान), अविस्थान (अफगानिस्तान), श्री(सीरिया), सप्तसिंधु नरेश, कन्नौज के गाधिचंद्रवंशी प्रमुख थे। जबकि विरोध में माहिष्मती, चेदि नरेश, कौशिक, रेवत, तुर्वस, अनूप, रोचमान, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश के अन्य हैहयवंशी राजा थे। इसलिए ये कहना कि 21 बार पृथ्वी समूल क्षत्रिय विहीन हुई सर्वथा असत्य है। अत:भगवान परशुराम पर आरोप लगाना अनुचित है, उन्होंने कभी शासन नहीं किया वरन् दान किया। महर्षि ऋचीक के कहने पर युद्ध और संहार बंद किया। श्रीराम के अवतरण के उपरांत उनका तेजोहरण हुआ। हनुमान जी से घोर युद्ध के उपरांत परशुराम ने पश्चाताप स्वरूप उनके द्वारा मारे गये क्षत्रिय राजाओं के लिए तर्पण किया ।
भगवान परशुराम के उन विलक्षण कार्यों पर भी प्रकाश डाला जाना चाहिए जो श्लाघनीय हैं। भगवान परशुराम ने कर्म के सिद्धांत पर वर्ण व्यवस्था को साकार किया उन्होंने शूद्रों को पढ़ाया और बड़ी संख्या में उन्हें ब्राम्हण बनाया, दक्षिण भारत में सर्वाधिक संख्या थी। इसलिए दक्षिण में भी वे पूजनीय हैं,सामूहिक विवाह भी कराये।इसलिए भगवान परशुराम सामाजिक समरसता के प्रतीक हैं।
महर्षि अत्रि की धर्म पत्नी “अनुसूइया” और अगस्त्य ऋषि की पत्नी “लोपामुद्रा के साथ मिलकर, नारी जागृति और उत्थान के लिए श्लाघनीय कार्य किये। भगवान परशुराम दक्षिण भारत के भूमि सुधार आंदोलन के पुरोधा एवं जल संरक्षण के प्रणेता थे। भारत में जल शोधन तकनीक के साथ जल संरक्षण हेतु बांध के निर्माण की तकनीक सिखाने का श्रेय भगवान परशुराम को ही है। एतदर्थ भगवान परशुराम भारत में सामाजिक समरसता, भूमि सुधार आंदोलन और जल प्रबंधन सहित अन्य नवाचारों के पुरोधा के रूप सदैव पूजनीय और स्मरणीय रहेंगे।
(लेखक, इतिहास के प्राध्यापक एवं इतिहास संकलन समिति से संबद्ध हैं।)
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