महावीर जयंती (25 अप्रैल) पर विशेष
योगेश कुमार गोयल
‘अहिंसा परमो धर्मः’ सिद्धांत के लिए जाने जाते रहे भगवान महावीर का अहिंसा दर्शन आज के समय में सर्वाधिक प्रासंगिक और जरूरी प्रतीत होता है क्योंकि वर्तमान समय में मानव अपने स्वार्थ के वशीभूत कोई भी अनुचित कार्य करने और अपने फायदे के लिए हिंसा के लिए भी तत्पर दिखाई देता है। एकबार भगवान महावीर सुवर्णबालिका नामक नदी के निकट स्थित कनखल नामक आश्रम के पास से गुजर रहे थे, तभी उन्होंने पीछे से एक ग्वाले की भयाक्रांत आवाज सुनी। ग्वाले ने भयभीत स्वर में भगवान महावीर से कहा, ‘‘हे देव! कृपया आप यहीं रुक जाएं, यहां से आगे न जाएं क्योंकि इसी मार्ग पर आगे एक बहुत भयानक और अत्यंत विषैला काला नाग रहता है, जिसने अभीतक इसी राह पर जाने वाले सैंकड़ों राहगीरों को अपने विष की ज्वाला से भस्म कर दिया है। उस विषधर की विषाग्नि से हजारों पशु-पक्षी, पेड़-पौधे जलकर राख हो चुके हैं।’’
ग्वाले की बात सुनकर भगवान महावीर दो क्षण के लिए रुके और फिर उन्होंने अपने दोनों हाथ अभयसूचक मुद्रा में ऊपर उठा दिए, मानो वहां उपस्थित लोगों से कह रहे हों कि तुम लोग घबराओ नहीं, चिन्ता छोड़ दो। उसके बाद वे शांत एवं निश्चिन्त भाव से आगे चल पड़े। वहां उपस्थित लोगों ने उन्हें समझाने का लाख प्रयत्न किया और आगे जाने से रोकना चाहा लेकिन वे अपनी ही धुन में मस्त होकर आगे बढ़ते गए।
चण्डकौशिक नामक उस भयानक काले नाग, जिसके बारे में ग्वाले ने भगवान महावीर को बताया था, उसकी बांबी के पास एक बहुत प्राचीन देवालय था। भगवान महावीर सीधे वहां पहुंचे और वहीं ध्यानमग्न हो गए। कुछ ही देर बाद जब वह काला नाग जंगल में घूमने के पश्चात् लौटकर अपनी बांबी में आया तो उसने बांबी के पास एक मनुष्य को निश्चिन्त भाव से देवालय में ध्यानमग्न देखा। यह देख उसे बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि उसके भय से कोई भी प्राणी इस क्षेत्र में आने से घबराता था। नागराज को भगवान महावीर पर बहुत क्रोध आया और मारे क्रोध के वह जोर-जोर से फुफकारने लगा। उसने गुस्से में भरकर अपनी विषमयी दृष्टि से महावीर की ओर देखा तो उसकी आंखों से विषमयी ज्वालाएं निकलने लगी किन्तु यह क्या, नागराज की आंखों से निकल रही तीव्र विषमयी ज्वालाओं का भगवान महावीर पर कोई असर नहीं हो रहा था। अगर कोई और प्राणी होता तो इतनी देर में तो वह जलकर खाक हो जाता।
नागराज का क्रोध और बढ़ गया और उसने महावीर पर बार-बार प्रहार करने शुरू कर दिए लेकिन फिर भी महावीर पर कोई असर न पड़ते देख नागराज ने भगवान महावीर के पैर के अंगूठे में तीव्र दंश मारा। नागराज के आश्चर्य की सीमा न रही क्योंकि इस दंश से महावीर पर कोई प्रभाव पड़ने के बजाय महावीर के पैर के अंगूठे से दूध की धारा फूट पड़ी। जब नागराज भगवान महावीर को विचलित करने और उन्हें भस्मसात् करने की अपनी सारी कोशिशें करके थक गया और उनका बाल भी बांका न कर सका तो भगवान महावीर ने अपनी आंखें खोली और नागराज को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘हे चण्डकौशिक! अब तो तुम शांत हो जाओ और अपना क्रोध शांत करो।’’
महावीर के मुख से अमृतमयी वचन सुनते ही मानो जादू हो गया और चण्डकौशिक नामक उस भयानक काले नाग का सारा क्रोध उसी क्षण पानी-पानी हो गया। भगवान महावीर की कृपादृष्टि से उसे अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हो आया कि किस प्रकार उसने अपने क्रोध के कारण ही पूर्व जन्मों में भी काफी भयंकर कष्ट झेले थे। वह शांत भाव से अब भगवान महावीर के चरणों में लोट गया और उनसे क्षमायाचना करने लगा। जब दूर से गांव वालों ने यह अद्भुत दृश्य देखा तो उनके आश्चर्य का पारावर न रहा और सभी भगवान महावीर का गुणगान करने लगे।
भगवान महावीर ने जीवन पर्यन्त अपने अमृत वचनों से समस्त मानव जाति को ऐसी अनुपम सौगात दी, जिन पर अमल करके मानव चाहे तो इस धरती को स्वर्ग बना सकता है। आज के परिवेश में हम जिस प्रकार की समस्याओं और जटिल परिस्थितियों में घिरे हैं, उन सभी का समाधान महावीर के सिद्धांतों और दर्शन में समाहित है। अपने जीवनकाल में उन्होंने ऐसे अनेक उपदेश और अमृत वचन दिए, जिन्हें अपने जीवन तथा आचरण में अमल में लाकर हम अपने मानव जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
भगवान महावीर का कहना था कि जो मनुष्य स्वयं हिंसा करता है या दूसरों से हिंसा करवाता है अथवा हिंसा करने वालों का समर्थन करता है, वह जगत में अपने लिए बैर बढ़ाता है। अहिंसा की तुलना संसार के सबसे महान् व्रत से करते हुए उनका कहना था कि संसार के सभी प्राणी बराबर हैं, अतः हिंसा को त्यागिए और ‘जीओ व जीने दो’ का सिद्धांत अपनाइए। वे कहते थे कि संसार में प्रत्येक जीव बराबर है, अतः आवश्यक बताकर की जाने वाली हिंसा भी हिंसा ही है और वह जीवन की कमजोरी है। उनके अनुसार छोटे-बड़े किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, बिना दी गई वस्तु स्वयं न लेना, विश्वासघाती असत्य न बोलना, यह आत्मा निग्रह सद्पुरुषों का धर्म है। जो लोग कष्ट में धैर्य को स्थिर नहीं रख पाते, वे अहिंसा की साधना नहीं कर सकते। अहिंसक व्यक्ति तो अपने से शत्रुता रखने वालों को भी अपना प्रिय मानता है। उनका कहना था कि संसार में रहने वाले चल और स्थावर जीवों पर मन, वचन एवं शरीर से किसी भी तरह के दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिए। भगवान महावीर के अनुसार किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही ज्ञानी होने का एकमात्र सार है और यही अहिंसा का विज्ञान है।
धर्म को लेकर भगवान महावीर का मत था कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है और अहिंसा, तप व संयम उसके प्रमुख लक्षण हैं। जिन व्यक्तियों का मन सदैव धर्म में रहता है, उन्हें देव भी नमस्कार करते हैं। उनका कहना था कि मानव और पशुओं के समान पेड़-पौधों, अग्नि, वायु में भी आत्मा वास करती है और पेड़ पौधों में भी मनुष्य के समान दुख अनुभव करने की शक्ति होती है। महावीर कहते थे कि क्रोध प्रेम का नाश करता है, मान विषय का, माया मित्रता का नाश करती है और लालच सभी गुणों का। जो व्यक्ति अपना कल्याण चाहता है, उसे पाप को बढ़ाने वाले इन चारों दोषों क्रोध, मान, माया और लालच का त्याग कर देना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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