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    लॉकडाउन समस्या का हल नहीं, जाग्रति जरूरी

  • July 13, 2020

    आमजन की बात
    इंदौर में कोरोना संक्रमितों की संख्या बढऩे के बाद एक बार फिर लॉकडाउन करने का विचार चल रहा है। लेकिन क्या कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन ही एकमात्र उपाय है?
    देश में पांच हजार से ज्यादा लोग शराब पीने से मरते है, नाना प्रकार की बीमारियों से मरनेवालों की संख्या इससे कहीं गुना अधिक है। लेकिन क्या देश में शराब पर प्रतिबंध लगा…? नहीं… उल्टा कोरोना संक्रमण काल में शराब दुकानों को खोला गया ताकि सरकार के राजस्व में कमी नहीं आएं भले ही उन पर बेवड़ों के हुजूम टूटते नजर आएं। मंदिर तो अभी तक बंद है। लॉकडाउन किसी समस्या को पैर फैलाने से रोकने का तात्कालिक उपाय हो सकता है, स्थायी नहीं और साढ़े तीन माह पहले इस नुस्खे पर भी अमल कर लिया गया है लेकिन क्या परिणाम सामने आएं। देश में हजारों लोगों की नौकरियां चली गई, कारखानों के चक्के थम गए, काम-धंधे ठप हो गए। उन लोगों के पास भी दो समय खाने के लिए संकट खड़ा हो गया जिसके पास पैसे थे और जिसके पास नहीं थे। लॉकडाउन ने अधिकांश लोगों को जाने-अंजाने ही डिप्रेशन, चिड़चिड़ेपन और अकेलेपन में डूबो दिया जिन घरों में कभी किट-किट नहीं होती थी वहां भी चिल्ला-चोंट सुनने में आने लगी और तलाक की बातें होने लगी। अर्थव्यवस्था तो रसातल में गई ही… लोगों का चैन हराम हो गया।
    अनलॉक के बाद शुरू होना चाहिए था लोगों में जनजाग्रति का काम… लेकिन पहले से ही परेशान लोगों को राहत देने की बजाय क्या शुरू हुआ नगरनिगम का कोई कर्मचारी साफ-सफाई या अपने रोजमर्रा के काम की बजाय रसीद-कट्टे लेकर चालान बनाने के लिए ‘शिकारÓ ढंूढऩे लगे। लंबे समय से लोगों पर हाथ साफ करने में नाकाम पुलिस चौराहों-चौराहों पर चालान बनाने में जुट गई, कागज खंगालने लगी। लोगों को समझाने, कोरोना से बचाव के उपाय बताने और जागरूकता फैलाने की बजाय उन्हें पास-पास लाना ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रहा है जिससे अब लॉकडाउन पर विचार करने की नौबत आन पड़ी है।
    सीधी सी बात है लोगों को अच्छे से महामारी के बारे में समझा दिया जाएं, आंकड़े छिपाएं नहीं बल्कि बताएं तो हर व्यक्ति महामारी से डरेंगा और खुद-ब-खुद सावधानी रखेंगा। अभी तो ये हाल है कि दो महीने पुरानी मौतों के आंकड़े आ रहे है, कौन संक्रमित हो रहा है यह ही पता नहीं चल रहा है। लॉकडाउन लगाना ही समस्या का एकमात्र हल नहीं है यदि लोगों को खुद की चिंता नहीं है तो सरकार क्यों उनके लिए चिंतित हो रही है? यदि वास्तव में इतनी ही चिंतित है तो बताएं कि कोरोना पीडि़त या उससे मृत लोगों के परिजनों या आश्रितों के लिए उसने क्या सहायता या सुविधाएं उपलब्ध कराई है? यदि महामारी के डर से बाजार ही बंद कर दिए गए। लोगों को घरों में पैक कर दिया गया तो क्या लोग भूख या बेकारी, बेरोजगारी से मरने को मजबूर नहीं हो जाएंगे और शायद ऐसे लोगों की तादाद कोरोना संक्रमितों या उससे मरनेवालों से ज्यादा ही होगी। खाली घर शैतान का… क्या लोग अपराध करने को मजबूर नहीं हो जाएंगे? दो जून की रोटी तो सबको चाहिए, भूख तो सबको लगती है, काम तो हर हाथ को चाहिए। कुछ हजारों लोगों की नादानी की सजा लाखों लोगों को नहीं दी जाना चाहिए। सरकारी आंकड़े ही बता रहे है कि महामारी के शिकार 65 प्रतिशत से ज्यादा लोग ठीक भी हो रहे है तो लॉकडाउन का हौवा क्यों….? क्या इससे कालाबाजारी, जमाखोरी नहीं बढेÞंगी? जो लोग महामारी की गंभीरता नहीं समझेंगे वे खुद इस महामारी के परिणाम भुगतेंगे, सरकार ‘सरकारÓ ही रहें भगवान नहीं बनें। कहते है व्यक्ति के जन्म के समय ही विधिमाता उसकी मृत्यु का समय भी लिख देती है तो फिर डर-डरकर क्या और कितना जीना। हां, सावधानी रखना जरूरी है वो हर व्यक्ति खुद समझें और सरकार अपने स्तर पर प्रचार-प्रसार व उपाय करें। सरकार इतनी ही उदार है तो टैक्स का तगादा नहीं करें। मयशालाएं नहीं खुलवाएं और हर जरूरतमंद या गरीब व्यक्ति को मॉस्क और सेनिटाईजर खुद के खर्चे से बांट दें।
    पहले ही 24 मार्च को जब देश में कोरोना के कु ल जमा 600 मरीज भी नहीं थे और कुल जमा 60 लोगों की मौत भी नहीं हुई थी तब लॉकडाउन लगाने की जल्दीबाजी कर दी गई जिसके दुष्परिणाम हम पलायन, बेरोजगारी, चरमराती अर्थव्यवस्था के रूप में देख चुके है… बस अब और नहीं…। बड़ी मुश्किल से जनजीवन पटरी पर आ रहा था। मेरे मत में अब फिर इस फेल हो चुके नुस्खे पर अमल करना उचित नहीं है। चाहे शहर हो, प्रदेश हो या देश हों। कुछ हजार लोगों के लिए लाखों लोगों को घरों में कैद कर देना अक्लमंदी नहीं कही जा सकती। खासकर तब जब दुनियां के कई वैज्ञानिक दावा कर रहे है और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) तक ये मान रहा है कि कोरोना वायरस हवा में भी है तब हम लॉकडाउन करके कितना और कहां तक बचेंगे…? यह यक्षप्रश्न है।
    बजरंग कचोलिया

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