– डॉ. ओ.पी. चौधरी
आजकल ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का नारा बुलंदियों पर है, हमारे प्रधानमंत्री का नया संकल्प आत्मनिर्भर भारत का है। यह नया संप्रत्यय या संकल्पना नहीं अपितु अत्यंत पुरानी है। राष्ट्रपिता बापू तो स्वराज की कल्पना ही आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान,आत्मगौरव और राष्ट्रबोध के रूप में करते थे। पहले हमारे गाँव आत्मनिर्भर थे। आपसी भाईचारा, सद्यव्यवहार, शालीनता, संस्कार वहाँ के जनजीवन में रचा-बसा था। लेकिन विकास, आधुनिकता, नगरीकरण, वैश्वीकरण, वर्चस्व और सत्ता की भूख ने सब निगल लिया।
गाँवों की क्या गजब जीवन शैली थी, पुजारी और पशुच्छेदन करने वाले चमकटिया, सबकी अपनी-अपनी इज्जत थी, सम्मान था। कोई किसी भी जाति का हो, सबसे कोई न कोई रिश्ता था- बाबा, काका-काकी, भाई-भौजी, बूढ़ी माई, बुआ, बहिन, बड़की माई, आजी। सबकी इज्जत और मर्यादा थी। धन की असमानता कितनी भी रही हो, अट्टालिकाओं और झोपड़ियों का अंतर भले रहा हो, जात-पात, ऊंच-नीच, छुआछूत कितना भी रहा हो लेकिन दिलों में दूरी नहीं हुआ करती थी। कोई घटना-दुर्घटना होने पर गाँव का दृश्य दर्शनीय होता था। किसी बरगद वृक्ष के नीचे या किसी कुँए की जगत पर या गाँव से सटी बाग में पूरा गाँव इकट्ठा हो जाता था। दुर्घटना के दिन पूरे गाँव में चूल्हा मुश्किल से जलता था। सामान्यतया लोग एक-दूसरे की मदद करने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। शादी-ब्याह, तेरही, बरही या भोज सबके आपसी सहयोग से देखते-देखते हो जाते थे, बोझ नहीं लगता था और सभी हर्षोल्लास के साथ, अपनी इज्जत समझ कर जुटे रहते थे। महिलाएं महावर लगाकर अवसरानुकूल गीत गाते हुए आह्लादित मन से खाना बनाने के साथ ही अन्य कामों को आसानी से निपटा लेती थीं और सामंजस्य और सहयोग का अद्भुत तालमेल दिखाई पड़ता था।
हाथ तो सबके तंग थे। पेट मुश्किल से भरते थे लेकिन सबके चेहरे खिले रहते थे। होंठों पे मुस्कान रहती थी। दिलों में प्यार का सागर हिलोरे मारता था। गाँव में कोई भूख से नहीं मरता था। एक-दूसरे को सभी के घरों की रसोई का पता होता था। जिसके गाय-भैंस नहीं होती थी उसे भी दूध, दही या मट्ठे के लिए तरसना नहीं होता था। आज वैश्वीकरण ने गाँवों की सहजता को निगल लिया है और उन्हें विद्रूप कर दिया है। ‘विकास’ नाम के धोखे ने गाँवों को ठग लिया है। उनके उत्थान के कथित नारे मृगमरीचिका साबित हुये हैं। प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध दोहन से संतुलन गड़बड़ हो गया है।
आज आत्मनिर्भरता का नारा दिया जा रहा है। ये नारा नया नहीं, महात्मा गांधी का स्वप्न था। बापू ने “मेरे सपनों का भारत” में पूरा खाका खींचा है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उन्होंने इसपर बहुत अध्ययन किया, चिंतन किया, व्यवहार में लाये और कई योजनाओं को क्रियान्वित भी किया। आज जब कुटीर उद्योग बचे नहीं हैं, लघु उद्योग समाप्तप्राय हैं, मध्यम उद्योगों की आर्थिक स्थिति गंभीर है, बड़े सरकारी उद्योगों या उपक्रमों की नीलामी निरंतर जारी है और फिर जब आज भी हम निवेश हेतु बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरफ निगाह लगाए बैठे हैं, ऐसे में भारत आत्मनिर्भर कैसे बनेगा?
गाँवों में कृषि आधारित या उससे जुड़े हुए कुटीर उद्योगों की स्थापना, छोटे- छोटे कस्बों में, वहाँ उपलब्ध कच्चे माल के अनुरूप, कुटीर, लघु या मध्यम उद्योगों की स्थापना की कोई योजना अभी धरातल पर कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है। जबतक गाँवों व छोटे कस्बों में समुचित उद्योग, सड़कें, स्वच्छ पेयजल, चिकित्सालय, शिक्षण संस्थान इत्यादि जो आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक हैं, व्यवस्था नहीं की जाती तबतक हर क्षेत्र का समुचित व समान विकास संभव ही नहीं है।
जहाँ तक मैं समझता हूँ, केवल देश या प्रदेश की राजधानियों या फिर जनपद मुख्यालय के अगल-बगल उद्योंगों को स्थापित करने से, सर्वजन कल्याण होना व देश को आत्मनिर्भर बनाना दिवास्वप्न सरीखा है। इतना ही नहीं जबतक गाँवों में, छोटे कस्बों में आवश्यकतानुरूप आधारभूत सुविधाएं स्थापित नहीं होती, तबतक हमारे गाँव व छोटे कस्बे गरीब व बीमार ही रहेंगे। दरअसल गाँवों की इस जीर्ण अवस्था के मूल में हम तथाकथित विवेकी और सभ्यजनों द्वारा केवल वहाँ के संसाधनों का दोहन करना बदले में उनके विकास व उत्थान के लिए कुछ न करना ही है। हमसे अभिप्राय हर उस नागरिक से है, वो चाहे एमपी हो, एमएलए हो, अभिनेता हो, उद्योगपति हो, व्यवसायी हो, अधिकारी हो, कर्मचारी हो, शिल्पी हो, किंतु जो गाँवों में पैदा हुआ, पला-बढ़ा लेकिन शहर आने के बाद फिर पलट के उधर नहीं देखा, शहरों की चकाचौंध में डूब गया।
इस कोरोना काल में आज शहरी चकाचौंध कुछ धूमिल हुई है और शहरों से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन लगातार हो रहा है। ये पलायन जहाँ एक तरफ कुछ दुश्वारियां पैदा करेगा वहीं दूसरी तरफ गाँवों के उत्थान में मददगार होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। मनरेगा का दायरा बढ़ाया जाए। इसे कृषि कार्य से जोड़ा जाए, इससे अन्न उत्पादन बढ़ेगा, पराली जलाने की समस्या का समाधान होगा, मनरेगा के द्वारा पराली एकत्र कर सरकारी गौशालाओं के लिए पुआल व भूसा (चारा) एकत्र किया जा सकता है, यह आत्मनिर्भर भारत की ओर एक श्रेष्ठ कदम होगा। विशेषकर अपना देश जो जैव विविधता से सम्पन्न है, आत्मनिर्भरता असंभव नहीं है। यह एक अच्छा अवसर है जब गाँवों को, मजरों को फिर खुशहाल किया जा सकता है। सबका कल्याण हो! हम आत्मनिर्भर बनें, भारत महान हो!
(लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
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