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    जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटका खाते रहे दिनकर

  • September 22, 2020

    सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के चिंतक और मुक्ति के लोक नायक की जयंती पर ‘कलम आज उनकी जय बोल’

    (राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती 23 सितम्बर पर विशेष)

    26 जनवरी 1950 को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत गणतंत्र की स्थापना कर रहा था, तो उस समय लाल किले की प्राचीर से साधारण धोती-कुर्ता पहने एक युवक ने जब पढ़ा था ‘सदियों की ठण्डी बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है, दो राह समय के रथ का घघर्र नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ तो पूरे परिदृश्य में एक सन्नाटा खिंच गया था। समय की आने वाली पदचापों का स्पष्ट आभाष देने वाले उस ओजस्वी युवक का नाम था रामधारी सिंह दिनकर। जिन्हें पूरी दुनिया आज भी राष्ट्रकवि के नाम से जानती है। रामधारी सिंह दिनकर का जन्म तत्कालीन मुंगेर (अब बेगूसराय) जिला के सिमरिया में एक सामान्य किसान बाबू रवि सिंह के घर 23 सितम्बर 1908 को हुआ था।

    मनुरूप देवी के कोख से पैदा हुए बालक के बारे में तब कहां किसी को पता था कि यह बच्चा एक दिन ना केवल राष्ट्रीय फलक पर छा जाएगा। बल्कि ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अपनी ही कृति में पुरुरवा के माध्यम से अभिव्यक्त कि ‘मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं।’ हिन्दी साहित्य के उस सूर्य की प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव-घर तथा बारो स्कूल से शुरू हुई। लेकिन उच्च विद्यालय की पढ़ाई करने के लिए कभी नाव से तो कभी तैरकर 15 किलोमीटर दूर मोकामा हाई स्कूल जाना पड़ता था। मोकामा से प्रवेशिका पास करने बाद पटना कॉलेज से प्रतिष्ठा की डिग्री हासिल किया और 1933 में बरबीघा उच्च विद्यालय के प्रधानाध्यापक पद पर तैनात हुए। अगले साल से ही निबंधन विभाग के अवर निबंधक, 1943 से 1945 तक संगीत प्रचार अधिकारी तथा 1947 से 1950 तक बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में निदेशक रहने के बाद जब संविधान सभा का प्रथम निर्वाचन हुआ तो ओजस्वी वाणी एवं राष्ट्र प्रेरक कविता के कारण राज्यसभा सदस्य मनोनीत कर दिए गए।

    1952 से 1958 तथा 1958 से 1963 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। लेकिन लोकसभा का चुनाव हारने वाले ललित नारायण मिश्र ने 1963 में अपने लिए इस्तीफा देने का अनुरोध किया था तो बगैर समय गंवाए राज्यसभा सदस्य पद से इस्तीफा देे दिया। इसके बाद 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति और 1972 तक भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार के पद का दायित्व निर्वहन करना पड़ा। अपनी कविता से राष्ट्र प्रेमियों को प्रेरणा देकर, उनके दिल और दिमाग को उद्वेलित कर झंकृत करने वाले राष्ट्रकवि दिनकर का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि आज जब सत्ता शक्ति का केंद्र बन गई है और राजनीतिक सर्वशक्तिमान के उसके आगे-पीछे रहने के इस दौर में दिनकर जी को याद करना संजीवनी ग्रहण करने के समान है। दिनकर जी की वाणी में ही उनके बारे में कहा जा सकता है कि विद्यापति के बाद करीब छह सौ वर्षों तक यह भूमि किसी महाकवि की प्रतीक्षा करती रही। तब जाकर वह दूसरा महाकवि दिनकर के रूप में मिला।

    दिनकर निराला के समान ओज और ऊर्जा के शायद भारत में सबसे बड़े कवि थे। इनमें सात्विक क्रोध, कोमल करुणा और सौंदर्य की अनूठी पहचान थी। दिनकर ने ‘हिमालय’ को ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यक्तित्व प्रदान करके उसे देश के स्वाधीनता, संघर्ष और गौरव का प्रतीक बना दिया। उन्होंने हिमालय के साथ-साथ समुद्र का भी उपयोग अपनी कविता में किया। समुद्र विशालता, संघर्ष, आकुलता और गर्भिता का प्रतीक है। वह एक प्रकार से दिनकर के व्यापक व्यक्तित्व का रूपक बन सकता है। उन्होंने लिखा भी है ‘सुनूं क्या सिंधु गर्जन तुम्हारा स्वयं युगधर्म का हुंकार हूं मैं।’ दिनकर जी का इतिहास बोध उनके प्रबंध काव्य के पात्रों के व्यक्तित्व में दिखलाई पड़ता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद युद्ध की विभीषिका से स्तब्ध होकर ‘कुरुक्षेत्र’ भले ही महाभारत युग को आधार बनाकर लिखा गया था। लेकिन यह सदियों तक पढ़ा और सुना जाता रहेगा। कुरुक्षेत्र में युद्ध की विभीषिका ही नहीं उसके कारण भी खोजे गए हैं और मनुष्य के सुखद भविष्य के प्रति आशा की अभिव्यक्ति की गई।

    दिनकर के अनुसार मानवीय पीड़ा, मानवीय करुणा और मानवीय संघर्ष परस्पर जुड़े हैं, जब तक पीड़ा है तब तक आशा है। पीड़ा मानवता का सबसे बड़ा लक्षण है, पीड़ा बोध का अभाव ही मनुष्य को जड़ बना देता है। राष्ट्रकवि दिनकर राष्ट्रीय आंदोलन के सागर की तरंगों में फेंकी गई एक मणि थे। राष्ट्रीयता के उस युग में जब छायावादी कवि भारत माता की कल्पना ‘सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामला’ के रूप में कर रहे थे, तब उन्होंने कथाकार प्रेमचंद की तरह भारत मां का मैला आंचल देखा था। उनकी काव्य चेतना भारतीय जीवन की बेमिसाल विपन्नता से व्युत्पन्न है। छायावाद के व्योम विहारिणी अशरीरी कल्पना को छोड़ वह घोर गरीबी से उत्पन्न विद्रोही राष्ट्रीय भावना की कविता रचते रहे। ‘पल्लव’ की भूमिका छायावाद का घोषणा पत्र है, तो ‘रेणुका’ में संकलित ‘कविता की पुकार’ राष्ट्रीयतावादी प्रगतिशीलता काव्यधारा का घोषणापत्र है।

    ‘कविता की दुकान’ हिंदी की नई सामाजिक चेतना का जीवन्त स्मारक है। दिनकर जी ने लिखा है कल्पना के चूल्हे पर, कल्पना के आकाश में, कल्पना की खिचड़ी पकाते थे और यथार्थ का एक ही धक्का उन्हें वास्तविकता की जीवन पर पटक देने के लिए पर्याप्त था। राष्ट्रीय भावना, सामाजिक और क्रांतिकारी चेतना तथा भारतीय नवजागरण के रविंद्रनाथ ठाकुर के बाद दूसरे सबसे कवि रामधारी सिंह दिनकर में शक्ति और सौंदर्य का बेमिसाल मिश्रण और नई मनुष्यता के जन्म की प्रसव पीड़ा साफ साफ दिखती थी। दिनकर की राष्ट्रीयता का स्वतंत्र केवल साम्राज्यवाद के अंत में निहित नहीं था, बल्कि एक समतामूलक और न्याय पूर्ण समाज के व्यवस्था की रचना में भी था। संपत्ति का असमान वितरण, वैयक्तिक भोगवाद, राजतंत्र अभिव्यक्ति की पराधीनता को उन्होंने विश्व की अशांति का कारण बताया था।

    लोकतंत्र की बुनियाद में न्याय, बुद्धि, समत्व की भावना तथा जाति एवं वर्ण के स्थान पर प्रतिभा को प्रतिष्ठा नहीं मिलने पर लोकतंत्र नष्ट हो जाने की बात कहते हुए उन्होंने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में ज्वलंत सवालों को उठाया था। आत्मचिंतन और आत्मलोचन उनकी ऐसी विशेषता थी जिसने निरंतर गतिशील रखते हुए ‘रेणुका’ से ‘उर्वशी’ होते हुए ‘हारे को हरिनाम’ तक पहुंचाया। दिनकर केवल ओज, शौर्य और सहजता के कवि ही नहीं, प्रेम-सौंदर्य, रहस्यवाद और गीतात्मकता की वर्तुलता के कवि भी थे। जिन्होंने रसवंती, उर्वशी, सामधेनी और नील कुसुम के साथ ‘कोयला और कवित्व’ भी लिखा। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका लिखकर अपने को गौरवान्वित महसूस किया तथा 1959 में इस कृति के लिए दिनकर जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1959 में राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के चांसलर डॉ. जाकिर हुसैन ने साहित्य के डॉक्टर सम्मान दिया तो गुरुकुल महाविद्यालय द्वारा विद्याशास्त्री के रूप में अभिषेक मिला।

    1968 को साहित्य-चूड़मानी के रूप में राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर में सम्मानित होने के बाद 1972 में ‘उर्वशी’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से विभूषित किए गए। ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान समारोह में ही उन्होंने कहा था कि ‘मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं। इसलिए उजाले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है। यानी निश्चित रूप से वह बनने वाला रंग है केसरिया।’ द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित प्रबन्ध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को विश्व के एक सौ सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74 वां स्थान दिया गया है। भाषा और भावों के ओज का अद्भुत संयोजन करने वाले राष्ट्रकवि दिनकर, महाभारत के संजय की तरह दिव्यदृष्टि से प्रत्यक्षदर्शी के रूप में वेदना, संवेदना एवं अनुभूति के साक्षी बनकर काव्यात्मक लेखनी को कागजों पर मर्मस्पर्शी ढंग से उतारा करते थे।

    कोमल भावना की जो धरा ‘रेणुका’ में प्रकट हुई थी, रसवंती में उन्हें सुविकसित ‘उर्वशी’ के रूप में भुवन मोहिनी सिद्धि हुई। कहा जाता है कि दिनकर की उर्वशी हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ है। धूप छांव, बापू, नील कुसुम, रश्मिरथी का भी जोर नहीं। राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रीय भावना का ज्वलंत स्वरूप परशुराम की प्रतीक्षा में युद्ध और शांति का द्वंद कुरुक्षेत्र में व्यक्त हो गया। संस्कृति के चार अध्याय जैसे विशाल ग्रंथ में भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया, जो उनकी विलक्षण प्रतिभाओं का सजीव प्रमाण है। दिनकर की प्रासंगिकता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उनका साम्राज्यवाद विरोध है। तभी तो हिमालय में लिखते हैं ‘रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर’। रेणुका में लिखते हैं ‘श्रृण शोधन के लिए दूध बेच बेच धन जोड़ेगें, बुंद बुंद बेचेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे, शिशु मचलेगें, दूध देख जननी उनको उसको बहलाएगी’।

    हाहाकार के तो शीर्षक में ही उन्होंने कह दिया ‘हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, दूध दूध वो वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं’। परशुराम की प्रतीक्षा में एनार्की ने भारतीय लोकतंत्र वास्तविकता को उजागर करते हुए कहा है ‘दोस्ती ही है देख के डरो नहीं, कम्युनिस्ट कहते हैं चीन से लड़ो नहीं, चिंतन में सोशलिस्ट गर्क है, कम्युनिस्ट और कांग्रेस में क्या फर्क है, दीनदयाल के जनसंघी शुद्ध हैं, इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क्रुद्ध हैं’। 1950 में दिनकर जी ने राजनीति के जनविरोधी चेतना और भ्रष्टाचार की पोल खोल खोलते हुए कहा था ‘नेता का अब नाम नहीं ले, अंधेपन से कम नहीं ले, मंदिर का देवता, चोरबाजारी में पकड़ा जाता है’। रश्मिरथी में ‘जाति जाति रटते वे ही, जिनकी पूंजी केवल पाखंड है’ से समाज को ललकारा, तो कुरुक्षेत्र में समतामूलक समाज के लिए लिखा ‘न्याय नहीं तब तक जबतक, सुख भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो’।

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