– डॉ. रमेश चंद
वानिकी, कृषि और संबद्ध क्षेत्रों का एक अंग है। कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में चार खंड शामिल हैं- फसलें, पशुधन, मात्स्यकी और वानिकी। इन चार खंडों में से पहले तीन खंड हरित क्रांति, श्वेत क्रांति और नीली क्रांति आदि जैसी क्रांतियों के गवाह रहे हैं। इन क्रांतियों के कारण पिछले 50 वर्षों के दौरान इन क्षेत्रों के उत्पादन में 3.05 प्रतिशत से अधिक की वार्षिक वृद्धि हुई। जबकि वानिकी के उत्पादन में प्रति वर्ष महज 0.54 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई। वानिकी क्षेत्र की यह वृद्धि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि दर का एक तिहाई भी नहीं है। आर्थिक और इकोलॉजी की दृष्टि से इसके बेहद गंभीर नतीजे हुए। देश में उत्पादित लकड़ी एवं लकड़ी के उत्पादों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में भारी गिरावट आई और भारत को लकड़ी व लकड़ी के उत्पादों की घरेलू मांग के बड़े हिस्से को आयात के माध्यम से पूरा करना पड़ा। वानिकी में मामूली वृद्धि का सीधा अर्थ पर्यावरण और इकोलॉजी के अनुकूल उत्पादन में कम वृद्धि भी है। कार्बन प्रच्छादन, जल संतुलन और प्राकृतिक इकोसिस्टम के सेहत की दृष्टि से इसके दूरगामी प्रभाव हैं।
वानिकी का उत्पादन तीन स्रोतों पर निर्भर है। ये स्रोत हैं- सार्वजनिक वन, निजी स्वामित्व वाली भूमि और केंद्र एवं राज्यों, पंचायतों, समुदायों आदि के स्वामित्व वाली अन्य प्रकार की भूमि। विभिन्न कारणों से लकड़ी एवं लकड़ी आधारित उत्पादों के निष्कर्षण और लकड़ी आधारित उद्योग की स्थापना की प्रक्रिया वन संरक्षण अधिनियमों तथा विभिन्न विनियमों द्वारा कड़ाई से विनियमित की जाती है। भारत में वन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली कुल भूमि 23.4 मिलियन हेक्टेयर है। इन क्षेत्रों में वनोपज, विशेषकर लकड़ी और लकड़ी के उत्पादों के व्यावसायिक निष्कर्षण पर प्रतिबंध या रोक लगाने के पीछे कुछ तर्क हैं। हालांकि आर्थिक विकास, पर्यावरण, इकोलॉजी और स्थिरता से संबंधित लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इस वन क्षेत्र के बाहर वानिकी और पेड़ उगाने को प्रोत्साहित करने की काफी संभावनाएं हैं।
सबसे बड़ी संभावना कृषि भूमि पर है, जहां कृषि वानिकी को अपनाकर इस दिशा में बढ़ा जा सकता है। कुल कृषि योग्य भूमि में से 26 मिलियन हेक्टेयर भूमि परती पड़ी रहती है। यह देश में वनक्षेत्र के अंतर्गत आने वाली कुल भूमि से अधिक है। भारत में 12 मिलियन हेक्टेयर कृषि योग्य बंजर भूमि भी उपलब्ध है। परती भूमि, कृषि योग्य बंजर भूमि और खेत की सीमाओं पर पेड़ उगाने की अपार संभावनाएं हैं। वर्तमान में, वानिकी वृक्षारोपण के तहत निजी गैर-वन भूमि के बहुत छोटे से हिस्से को कवर किया जाता है और वहां पेड़ों की अधिकांश प्रजातियां नैसर्गिक रूप से ही उगती हैं। वे लकड़ी की घरेलू मांग को पूरा करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं। इसके परिणामस्वरूप भारत बड़ी मात्रा में लकड़ी और लकड़ी के उत्पादों का आयात कर रहा है। इस आयात में 2018-19 तक वृद्धि का रुझान दिखाई देता रहा है। वर्ष 2018-19 के दौरान लकड़ी और लकड़ी के उत्पादों का आयात 6126 मिलियन अमेरिकी डॉलर या 42841 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था।
वृक्षारोपण और कृषि-वानिकी में बहुत कम रुचि होने के पीछे के कारणों के गहन परीक्षण की आवश्यकता है। देश में लकड़ी और लकड़ी के उत्पादों की मांग में कोई कमी नहीं आई है। इनकी मांग बढ़ने से कीमतें दिनों-दिन बढ़ रही हैं और इनका आयात भी बढ़ रहा है। कुछ वर्ष पहले तक वन क्षेत्र से बाहर निजी भूमि पर उगने वाले पेड़ों की कटाई पर सख्त प्रतिबंध था। एक राज्य से दूसरे राज्य में उन्हें ले जाने के लिए ट्रांजिट परमिट की आवश्यकता होती थी। इससे निजी भूमि पर प्राकृतिक रूप से उगने वाले पेड़ों का अस्तित्व जोखिम में पड़ गया, क्योंकि भूमि के मालिकों को ऐसे पेड़ों को बेचने की अनुमति प्राप्त करने के लिए बोझिल और जटिल प्रक्रियाओं का अनुसरण करना पड़ता था।
इस बीच देश में वृक्षारोपण को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय वन नीति 1988 और राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति 2014 लागू की गई। इन बातों को ध्यान में रखते हुए, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 18 नवंबर, 2014 को राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को “वन क्षेत्र से बाहर निजी भूमि पर उगाई जाने वाली वृक्ष प्रजातियों के लिए कटाई और पारगमन नियमन” के लिए नए दिशानिर्देश जारी किए। इन दिशा- निर्देशों में पेड़ों की कटाई के लिए किसी भी प्रतिबंध से मुक्त प्रजातियों की सूची और निजी भूमि पर उगने वाले वृक्षों की प्रजातियों के लिए उदार पारगमन नियम का स्पष्ट उल्लेख किया गया। इसके बाद, इस मामले को नीति आयोग द्वारा कृषि और संबद्ध क्षेत्रों से संबंधित सुधारों के एक भाग के रूप में राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों के समक्ष उठाया गया। कुछ राज्यों ने केंद्र सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का पालन करने के लिए अपनी ओर से अधिसूचनाएं जारी कीं। किंतु, अधिकांश राज्यों में इनका सक्रियतापूर्वक अनुपालन नहीं किया गया।
निजी भूमि पर उगाए गए पेड़ों की कटाई और पारगमन पर प्रतिबंधों को सीमित तौर पर उदार बनाए जाने से वानिकी के उत्पादन में वृद्धि होने के साथ-साथ लकड़ी और लकड़ी के उत्पादों के आयात में काफी कमी हुई। निजी भूमि पर उगाई जाने वाली वृक्ष प्रजातियों की कटाई पर प्रतिबंध में छूट की अधिसूचना के एक साल बाद, वन क्षेत्र का उत्पादन लगातार तीन वर्षों के लिए 5 प्रतिशत से अधिक वार्षिक वृद्धि दर्शाता है। 1950-51 से ऐसा कभी नहीं हुआ। इसी तरह, 2014-15 के बाद दो वर्षों के दौरान लकड़ी और लकड़ी के उत्पादों के आयात में 5 प्रतिशत की गिरावट आई और उसके बाद की अवधि में आयात में वृद्धि होने के बजाय उतार-चढ़ाव होता रहा।
स्थानीय रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि देश में कुछ इलाकों में चिनार जैसी कृषि वानिकी प्रजातियों के रकबे में काफी वृद्धि हुई है। हालांकि, पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध हटाने की जानकारी देश के बड़े हिस्से में नहीं पहुंच पाई है। इस जानकारी को गांव के स्तर तक पहुंचाने की जरूरत है। भारत में हरियाली को बढ़ावा देने के लिए देश में पेड़ों की कटाई और पेड़ों के उत्पादों की आवाजाही को प्रतिबंध से पूरी तरह मुक्त बनाने की भी आवश्यकता है। प्रौद्योगिकी के वर्तमान समय में, उत्पाद की आपूर्ति के स्रोतों, यानी- भूमि या निजी भूमि- का पता लगाने के उपाय उपलब्ध हैं।
पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों के त्वरित और बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पादन हेतु अब तकनीकी विकल्प उपलब्ध हैं। हालांकि, विभिन्न प्रकार के विनियामक प्रतिबंधों के कारण पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों के बाजार बेहद ही अविकसित हैं। यदि इन बाधाओं को हटा दिया जाए, तो कृषि और संबद्ध क्षेत्रों के अन्य तीन उप-क्षेत्रों की तरह ही वानिकी क्षेत्र में भी “भूरी क्रांति” की अपार संभावनाएं हैं।
(लेखक, नीति आयोग के सदस्य हैं।)
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