– कौशल मूंदड़ा
अजी छोड़िये, सोशल मीडिया पर तो कुछ भी चलता रहता है, किस पर विश्वास करें, आप भी देखो और मजे लो…..। मन पड़े तो फारवर्ड करो, मन पड़े तो डिलीट करो…. कौन पूछ रहा है…..।
जी हां, सोशल मीडिया के बारे में हर किसी की यही राय सामने आती है। लेकिन, जब जरूरत पड़ती है तब यही सोशल मीडिया किसी भी मुद्दे को मुखर बनाता है, और उसे परिणाम तक भी ले जाता है। सोशल मीडिया पर वृहद रूप से सामने आने वाली राय को बड़ी-बड़ी कम्पनियों को भी मानने को मजबूर होना पड़ा है। ऐसे में हम सोशल मीडिया को ‘कुछ भी चलता है’ का तमगा देकर नकार नहीं सकते।
दरअसल, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जैसे ही अभिव्यक्ति की मर्यादा टूटती है, उसी जगह उसे सोशल मीडिया करार दिया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की मर्यादा के बीच का महीन अंतर ही सोशल मीडिया और मेन मीडिया का अंतर है। यदि कोई ऊटपटांग, अभद्र या अमर्यादित भाषण कर रहा है, तब मेन मीडिया उसे किस तरह पाठक तक पहुंचाता है और सोशल मीडिया किस तरह, यही तरीके भी मीडिया शब्द के प्रति जिम्मेदारी को भी परिभाषित करते हैं।
ऐसा नहीं है कि पहले भी ‘हेट स्पीच’ नहीं होती थी, अनर्गल, अमर्यादित, अभद्र प्रलाप नहीं होते थे, भाषण हों या नारे, इन डिजिटल माध्यमों के आने से पहले भी हुआ करते थे, तब भी मेन मीडिया अपनी मर्यादा की जिम्मेदारी को बखूबी निभाता रहा है और आज भी निभा रहा है। पाठक तक बात पहुंचती थी और अब भी पहुंचती है तो अमर्यादित शब्दों को ज्यों का त्यों कभी नहीं पहुंचाया जाता। एक सभ्य भाषा का प्रस्तुतीकरण आज भी होता है। इसके पीछे सीधा और साफ नजरिया है कि हम सभ्य समाज में रहते हैं और ऊटपटांग बातों को सभ्य समाज का बड़ा प्रतिशत न तो स्वीकार करता है न ही अपनी नई पीढ़ी को ऐसी सीख देना चाहता है।
वहीं, दूसरी तरफ नए तकनीकी माध्यमों में ऐसा नवाचार आया है कि अमर्यादित आचरण का ज्यों का त्यों प्रस्तुतीकरण सामने आने लगा है। ऊपर से जुमला यह कि हम थोड़े ही कह रहे हैं, वह कह रहा है, उसने ऐसा कहा है, वही तो सामने ला रहे हैं…..। जबकि, आज भी मेन मीडिया यदि ज्यों का त्यों प्रस्तुतीकरण देने को मजबूर भी होती है तो ऑडियो-वीडियो माध्यम में बीप की आवाज, अमर्यादित आचरण के दृश्य को ब्लर करने और प्रिंट मीडिया में डाॅट-डाॅट से प्रदर्शित करने का विकल्प प्रयोग किया जाता है। लोग स्वतः समझ जाते हैं कि अगले ने कुछ गलत और अमर्यादित बात कही होगी जो प्रसारण योग्य नहीं होगी।
सामान्य रूप से भी प्रिंट मीडिया ऐसे किसी शब्द का प्रयोग आज भी नहीं करता जो बेहद ही नकारात्मक होते हैं। उदाहरणतः ‘अमुक शख्स अपनी अनर्गल बातों से गंदगी फैला रहे हैं..’ इसे प्रिंट मीडिया आज भी ज्यों का त्यों छापने से दूर रहता है, इसके बजाय यह लिखा जाता रहा है कि ‘अमुक शख्स की बातें ऐसी हैं जो कतई उचित नहीं कही जा सकती..’।
इतने से शब्द पर इतना ध्यान रखने की जिम्मेदारी मेन मीडिया को परिभाषित करती है और ‘वायरल वैल्यू’ की डिमाण्ड के चलते धड़ल्ले से ज्यों का त्यों प्रस्तुतीकरण उस माध्यम को सोशल मीडिया करार दे देता है। और एक बार फिर वे माध्यम जो मेन मीडिया से हटकर बड़े-बड़े आंदोलन खड़ा करने में सक्षम हुए हैं और आज भी सक्षम हैं, क्षण भर में सोशल मीडिया की परिभाषा में डाल दिए जाते हैं।
एक बात और आती है कि खबर के साथ सबूत भी जरूरी है, तब यह बात हर तरह के मीडिया पर भी लागू होती है और लागू रही है। जब वीडियो माध्यम नहीं था, तब भी सबूत होते ही थे, कोई जब चुनौती देता था तभी उनको संवैधानिक प्रक्रिया के तहत उजागर किया जाता था, तब भी स्रोत उजागर नहीं होता था और आज भी स्रोत उजागर नहीं होता, मांगे जाने पर सबूत ही प्रदर्शित किए जाते हैं।
चर्चा में यह बात भी कही जाती है कि दर्शक या पाठक भी ऐसा ही देखना चाहते हैं। यही बात पहले सिनेमा के लिए भी कही जाती थी, लेकिन तब भी कुछ फिल्म, कुछ आर्ट फिल्म ऐसी भी आती थी जो रिकाॅर्ड तोड़ जाती थीं। ऐसा कैसे होता था, यानी इस बात को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि दर्शक अच्छी प्रस्तुतियों को भी पसंद करते हैं। उनकी पसंद तो दिखाने के बाद तय हो रही है, दिखाने से पहले क्यों तय किया जाता है कि दर्शकों को क्या देखना पसंद है।
इसी तरह, सिक्के के दूसरे पहलू पर भी विचार करना चाहिए। जिस शख्स को कुछ सैकड़ों, कुछ हजार लोग ही जानते होंगे, उस शख्स को मशहूर होना है तो वह आज की सोशल मीडिया की कार्यप्रणाली का पूरा लाभ उठाता है। भले ही उसकी बात सुनने कोई मीडिया नहीं गया हो, लेकिन अपनी बात को रिकाॅर्ड करवाकर सोशल मीडिया माध्यमों पर वायरल करवा देते हैं और ‘वायरल वैल्यू’ की अवधारणा को बैठे-बिठाए कंटेंट मिल जाता है और अगले का काम बैठे बिठाए हो जाता है। अब उसे जानने वाले कुछ सैकड़ों नहीं, कुछ हजारों नहीं बल्कि कुछ लाखों हो जाते हैं।
यही कारण है कि अब डिजिटल की तरफ बढ़ती मीडिया का भी बंटवारा किया जाने लगा है। मेन मीडिया और सोशल मीडिया, इन दो श्रेणियों में बांटकर मीडिया के क्षेत्र में मेहनत करने वालों को देखने का नजरिया भी अलग-अलग किया जाने लगा है। और यह अंतर मीडिया शब्द की जिम्मेदारी को हलके से लेने के कारण भी है।
किसी भी बात को कहने का अंदाज होता है, एक ही बात कई तरीकों से प्रस्तुत की जा सकती है। कोशिश तो की ही जा सकती है। वरिष्ठ पत्रकार कहते भी हैं, जो बात शांति से कही जा सकती है उसके लिए चिल्लाने की क्या जरूरत है…..। यदि बात में दम होगा तो वह धीमी आवाज में भी उतना ही प्रभाव करेगी। यहां कबीरदास जी का लिखा यह दोहा भी महत्वपूर्ण है कि ‘साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।’
इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि सोशल मीडिया पर कार्य कर रहे मीडियाकर्मियों की लेखनी, जिजीविषा से वह मेन मीडिया के विकल्प के रूप में तो कहा जा रहा है, लेकिन मेन मीडिया माना नहीं जा रहा। सोशल मीडिया पर संघर्ष कर रही कलम मेन मीडिया का दर्जा पाने के लिए तत्पर है तो दूसरी तरफ सरकार बेलगाम होते सोशल मीडिया प्लेटफार्म से चिंतित होकर उसे मर्यादित आचरण के अनुरूप ढालने को तत्पर है। सरकार ऐसा एक प्लेटफार्म सरकारी स्तर पर स्थापित कर सकती है जहां डिजिटल मीडिया एक ही छत के नीचे रहे, इससे एक लाभ यह भी होगा कि वहां सामने आ रही राय को संकलित कर सरकार अपनी नीतियों का निर्धारण भी कर सकती है और अमर्यादित आचरण से पहले इससे जुड़े लोग दस बार सोचेंगे भी।
सोशल मीडिया कहीं कमजोर भी नहीं है। जब हम निर्भया मामले को देखते हैं या मी-टू जैसे मुद्दों पर नजर डालते हैं तो सोशल मीडिया मजबूती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता नजर आता है, हालांकि कुछ तत्व हैं जो मर्यादित आचरण की सीमा का उल्लंघन भी कर जाते हैं, लेकिन नियमों को मजबूत कर ऐसे तत्वों को भी समझाया जा सकता है कि बात रखें लेकिन मर्यादा में, सहज और सामान्य शब्दों में, हिन्दी हो चाहे अंग्रेजी, दोनों का ही शब्दकोश बहुत बड़ा है, अपनी बात रखने के लिए अच्छे शब्दों का प्रयोग भी किया जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved