img-fluid

नोटबंदी को लेकर बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी करती ‘कुत्ते’, सेंसर बोर्ड को समझ ही नहीं आई फिल्म

January 13, 2023

मुंबई। पिता ने ‘कमीने’ बनाई तो बेटा ‘कुत्ते’ ही बनाएगा। गुलजार से पारिवारिक रिश्ता है तो गाने वह लिखेंगे ही। क्या लिख रहे हैं, ऐसा क्यों लिख रहे हैं, इसके लिए वह उन लोगों को जिम्मेदार बताते हैं जिनके लिए वह ‘पूज्य’ रहे हैं, लेकिन खुद गुलजार के शब्दों में ‘चश्म ए बद दूर’ का मतलब ये नहीं समझते। आसमान को नजर न लगे लेकिन उनकी पहली फिल्म ‘कुत्ते’ का पहला सीन जिस तरह से उन्होंने शूट किया है, वह उनकी मौलिकता का प्रमाण है।

अपने पिता, मां और दानाजी (गुलजार) के आभामंडल से बाहर रहकर वह फिल्में बनाएंगे तो दूर तक जाएंगे। लेकिन, इन दिग्गजों की अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के बारे में सीमित समझ के भ्रमजाल में फंसे रहे तो उनकी आगे की राह मुश्किल है। फिल्म ‘कुत्ते’ का पहला सीन छोड़कर आखिर तक ये फिल्म विशाल भारद्वाज का ही सिनेमा लगती है। क्लाइमेक्स पर आकर नोटबंदी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण पर की गई फिल्म के नायक की टिप्पणी बहुत ही आपत्तिजनक है। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की तरफ से फिल्म देखने वालों को ये समझ में भी आई होगी, लगता नहीं है।

हिंदी सिनेमा की कॉरपोरेट दुनिया का अगला नमूना है फिल्म ‘कुत्ते’। एक निर्माता किसी तरह सितारे जोड़कर फिल्म बना लेता है। दूसरा निर्माता आकर मिडिलमैन बन जाता है। दोनों मिलकर किसी ऐसी कंपनी के पास पहुंचते हैं जिसके पास ओटीटी और सैटेलाइट चैनलों की तरफ से कंबल ओढ़ाकर ली गई मंजूरी (ब्लैनकेट अप्रूवल) पहले से है। फिल्म में जो पैसा लगा, वह बस इन दो अधिकारों को बेचकर आ गया।

अब क्या फिल्म का प्रचार और क्या इसका प्रसार! न मुंबई में फिल्म ‘कुत्ते’ के कलाकारों को रिलीज से पहले मीडिया से मिलाने का जतन हुआ और न उनको दिल्ली ले जाने की योजना सिरे चढ़ी। इन दिनों निर्माताओं का दिमाग अच्छी कहानी तलाशने में नहीं, बल्कि फिल्म की रिलीज से पहले प्रचार पर होने वाले खर्च को घटाने में लग रहा है। हां, फिल्म के संगीत की एक महफिल जरूर मुंबई में जमी जिसमें इस फिल्म के लिए ‘आवारा डॉग्स’ लिखने वाले गुलजार ने इस तरह के गाने लिखे जाने पर अपनी ये सफाई दी, ‘जिस समय में लोगों को चश्मेबद्दूर का मतलब ही न पता हो, उस समय में ऐसे ही गाने लिखे जा सकते हैं।’

खैर, गुलजार साहब, गुलजार साहब हैं, वह अपने श्रोताओं और पाठकों पर ये लांछन लगा सकते हैं। लेकिन, चश्मेबद्दूर का मतलब न समझने वाले हिंदी सिनेमा के कथित दर्शक सिर्फ मां, बहन की गालियों से ही भाव विभोर हो जाएंगे, ये बात उनके खेमे के सारे लोगों को समझनी बहुत जरूरी है। फिल्म ‘कुत्ते’ शुरू होते ही इस नाम का मतलब समझाने की कोशिश करती है कि जंगल में शेर, बकरी और कुत्ता मिलकर शिकार करते हैं। बकरी शिकार के तीन हिस्से लगाती है तो शेर गुस्सा होकर बकरी को खा जाता है।


कुत्ते के हिस्से लगाने की बारी आती है तो वह पूरा शिकार शेर की तरफ खिसकाकर बकरी की बची हड्डियां चूसने लगता है। लोकतंत्र की अराजक स्थिति पर ये बहुत बड़ी टिप्पणी है। लेकिन फिर कहानी एक भ्रष्ट पुलिस अफसर, उसके प्यादे, नशीली दवाओं की तस्करी वाले गिरोहों, एक और भ्रष्ट महिला पुलिस अफसर, एटीएम में पैसा पहुंचाने वाली वैन, वैन में रखे करोड़ों रुपये, इन रुपयों पर टिकी पुलिस वालों की नजर पर टिक जाती है। बीच में एक निहायत दोयम दर्जे का चुटकुला भी मेंढक और बिच्छू वाला चलता रहता है। हां, वही फिल्म ‘डार्लिंग्स’ वाला। यहां डंक मारने के बाद जब मेंढक अपनी पीठ पर सवार बिच्छू से इसका लॉजिक पूछता है तो वह इसे अपना कैरेक्टर बताता है।

निर्देशक आसमान भारद्वाज की फिल्म ‘कुत्ते’ में कोई हीरो नहीं है। सब कुत्ते हैं। अपने अपने हिस्से की हड्डी चूसने की कोशिश में। एक दूसरे की हड्डी पर भी झपट्टा मारते रहते हैं। अर्जुन कपूर जिस आईपीएस के मातहत काम करते हैं, उस आईपीएस की ऊंचाई इतनी भी नहीं है कि वह सिक्योरिटी एजेंसी का गार्ड बन सके। तब्बू का पूरा जोर गालियां देने पर है। ‘भूल भुलैया 2’ और ‘दृश्यम 2’ में बनी अपनी पूरी साख उन्होंने यहां राख कर दी है। अर्जुन कपूर के अभिनय की अपनी सीमाएं हैं।

पुलिस अफसर का उनका किरदार तैरना नहीं जानता है। बताया जाता है कि ये ट्रेनिंग में सिखाया ही नहीं गया। कोंकणा सेन शर्मा से बहुत उम्मीदें थीं और वह इन उम्मीदों पर कमोबेश खरी भी उतरती हैं। अनुराग कश्यप भी हैं एक ऐसे नेता के किरदार में जो पुलिस हवालात में बंद महिलाओं का शिकार करने की तलाश में है। नसीरुद्दीन शाह को फिल्म की वैल्यू बढ़ाने भर के लिए ही रखा गया है। बस कुमुद मिश्रा ही फिल्म के इकलौते ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने अपने अभिनय का विस्तार करने की कोशिश की है।

फिल्म ‘कुत्ते’ नए साल के दूसरे शुक्रवार को रिलीज हुई दो हिंदी फिल्मों में पहले नंबर पर मानी जा रही थी। दो स्टार पाकर भी ये पहले नंबर पर ही है क्योंकि इसके साथ रिलीज हुई फिल्म ‘लकड़बग्घा’ इतनी खराब फिल्म निकली कि उसकी रेटिंग और नीचे चली गई है। फैज अहमद फैज की नज्म ‘कुत्ते’ की रूह तलाशती इस फिल्म के बाकी गाने गुलजार ने लिखे हैं।

विशाल भारद्वाज ने संगीतबद्ध किए हैं और एक भी गाना ऐसा नहीं है जिसे ‘आवारा डॉग्स’ समझने वाले भी समझ सकें। कुछ याद रह जाता है तो बस पुराना गाना ‘ढेन टे णां’ जिसे सबने मिलकर नया चोला पहना दिया है। ए श्रीकर प्रसाद ने फिल्म को दो घंटे से कम का रखा है, ये भी उनका एक तरह का एहसान ही है दर्शकों पर क्योंकि एक बार फिल्म जो पटरी से उतरती है तो आखिर तक किसी को कुछ नहीं पता होता कि क्या चल रहा है परदे पर। लेकिन, लॉजिक का क्या, ये तो इन दिनों हिंदी सिनेमा का ही कैरेक्टर है।

Share:

सिर्फ छोटे उद्योगों को ही मिल सकेगी राहत, वो भी अधिसूचित क्षेत्र में ही

Fri Jan 13 , 2023
मुख्यमंत्री की घोषणा से भ्रम में ना रहे उद्यमी, बड़े उद्योगों को सभी तरह की अनुमतियां लेना होंगी, प्रदूषण फायर में भी रियायत संभव नहीं इंदौर। दो दिवसीय ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट भी कल सम्पन्न हो गई, जिसमें निवेश प्रस्तावों की झड़ी लग गई और 29 लाख लोगों को रोजगार मिलने के दावों के साथ लगभग […]
सम्बंधित ख़बरें
खरी-खरी
मंगलवार का राशिफल
मनोरंजन
अभी-अभी
Archives

©2024 Agnibaan , All Rights Reserved